राष्ट्र की सांस्कृतिक पहचान है विक्रमी संवत

By: Mar 30th, 2019 12:10 am

किसी नवीन संवत को चलाने की शास्त्रीय विधि यह है कि जिस नरेश को अपना संवत चलाना हो, उसे संवत चलाने के दिन से पूर्व कम से कम अपने पूरे राज्य में जितने भी लोग किसी के ऋणी हों, उनका ऋण अपनी ओर से चुका देना चाहिए। विक्रमी संवत का प्रणेता सम्राट विक्रमादित्य को माना जाता है। कालिदास इस महाराजा के एक रत्न माने जाते हैं…

विक्रमी संवत अत्यंत प्राचीन संवत है। साथ ही यह गणित की दृष्टि से अत्यंत सुगम और सर्वथा ठीक हिसाब रखकर निश्चित किया गया है। किसी नवीन संवत को चलाने की शास्त्रीय विधि यह है कि जिस नरेश को अपना संवत चलाना हो, उसे संवत चलाने के दिन से पूर्व कम से कम अपने पूरे राज्य में जितने भी लोग किसी के ऋणी हों, उनका ऋण अपनी ओर से चुका देना चाहिए। विक्रमी संवत का प्रणेता सम्राट विक्रमादित्य को माना जाता है। कालिदास इस महाराजा के एक रत्न माने जाते हैं। कहना नहीं होगा कि भारत के बाहर इस नियम का कहीं पालन नहीं हुआ। भारत में भी महापुरुषों के संवत उनके अनुयायियों ने श्रद्धावश ही चलाए, लेकिन भारत का सर्वमान्य संवत विक्रमी संवत ही है और महाराज विक्रमादित्य ने देश के संपूर्ण ऋण को, चाहे वह जिस व्यक्ति का रहा हो, स्वयं देकर इसे चलाया। इस संवत के महीनों के नाम विदेशी संवतों की भांति देवता, मनुष्य या संख्यावाचक कृत्रिम नाम नहीं हैं। यही बात तिथि तथा अंश (दिनांक) के संबंध में भी है, वे भी सूर्य-चंद्र की गति पर आश्रित हैं। सारांश यह कि यह संवत अपने अंग-उपांगों के साथ पूर्णतः वैज्ञानिक सत्य पर स्थित है।

राष्ट्रीय संवत

भारतवर्ष में इस समय देशी-विदेशी मूल के अनेक संवतों का प्रचलन है, किंतु भारत के सांस्कृतिक इतिहास की दृष्टि से सर्वाधिक लोकप्रिय राष्ट्रीय संवत यदि कोई है तो वह विक्रमी  संवत ही है। 57 ईसा पूर्व में भारतवर्ष के प्रतापी राजा विक्रमादित्य ने देशवासियों को शकों के अत्याचारी शासन से मुक्त किया था। उसी विजय की स्मृति में चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि से विक्रमी संवत का भी आरंभ हुआ था।

विद्वानों में मतभेद

विक्रमी संवत के प्रारंभ के विषय में भी विद्वानों में मतभेद हैं। कुछ लोग ईस्वी सन् 78 और कुछ लोग ईस्वी सन् 544 में इसका प्रारंभ मानते हैं। फारसी ग्रंथ ‘कलितौ दिमनः’ में पंचतंत्र का एक पद्य ‘शशिदिवाकर योर्ग्रहपीडनम्श’ का भाव उद्धृत है। विद्वानों ने सामान्यतः कृत संवत को विक्रमी संवत का पूर्ववर्ती माना है। किंतु कृत शब्द के प्रयोग की व्याख्या संतोषजनक नहीं की जा सकी है।  कुछ शिलालेखों में मालव-गण का संवत उल्लिखित है, जैसे नरवर्मा का मंदसौर शिलालेख। कृत एवं मालव संवत एक ही कहे गए हैं क्योंकि दोनों पूर्वी राजस्थान एवं पश्चिमी मालवा में प्रयोग में लाए गए हैं। कृत के 282 एवं 295 वर्ष तो मिलते हैं, किंतु मालव संवत के इतने प्राचीन शिलालेख नहीं मिलते। यह भी संभव है कि कृत नाम पुराना है और जब मालवों ने उसे अपना लिया तो वह मालव गणाम्नात या मालव-गण स्थिति के नाम से पुकारा जाने लगा। किंतु यह कहा जा सकता है कि यदि कृत एवं मालव दोनों बाद में आने वाले विक्रमी संवत की ओर ही संकेत करते हैं तो दोनों एक साथ ही लगभग एक सौ वर्षों तक प्रयोग में आते रहे, क्योंकि हमें 480 कृत वर्ष एवं 461 मालव वर्ष प्राप्त होते हैं।  यह मानना कठिन है कि कृत संवत का प्रयोग कृतयुग के आरंभ से हुआ। यह संभव है कि कृत का वही अर्थ है जो सिद्ध का है, जैसे कृतांत का अर्थ है सिद्धांत और यह संकेत करता है कि यह कुछ लोगों की सहमति से प्रतिष्ठापित हुआ है। 8वीं एवं 9वीं शती से विक्रमी संवत का नाम विशिष्ट रूप से मिलता है। संस्कृत के ज्योतिःशास्त्रीय ग्रंथों में यह शक संवत से भिन्नता प्रदर्शित करने के लिए सामान्यतः केवल संवत नाम से प्रयोग किया गया है।

शास्त्रों व शिलालेखों में उल्लेख

विक्रमी संवत के उद्भव एवं प्रयोग के विषय में कुछ कहना कठिन है। यही बात शक संवत के विषय में भी है। किसी विक्रमादित्य राजा के विषय में, जो ईस्वी पूर्व 57 में था, संदेह प्रकट किए गए हैं। इस संवत का आरंभ गुजरात में कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा से (नवंबर, ईस्वी पूर्व 58) और उत्तरी भारत में चैत्र कृष्ण प्रतिपदा (अप्रैल, ईस्वी पूर्व 58) से माना जाता है। बीता हुआ विक्रमी वर्ष ईस्वी सन् 57 के बराबर है। कुछ आरंभिक शिलालेखों में ये वर्ष कृत के नाम से आए हैं।

नव संवत्सर

विक्रमी संवत 2076 का शुभारंभ 6 अप्रैल 2019 अर्थात चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से है। इस वर्ष संवत के राजा शनि होंगे और मंत्री सूर्य होंगे। पुराणों के अनुसार चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को ब्रह्मा ने सृष्टि निर्माण किया था, इसलिए इस पावन तिथि को नव संवत्सर पर्व के रूप में भी मनाया जाता है।  संवत्सर चक्र के अनुसार सूर्य इस ऋतु में अपने राशि चक्र की प्रथम राशि मेष में प्रवेश करता है। भारतवर्ष में वसंत ऋतु के अवसर पर नूतन वर्ष का आरंभ मानना इसलिए भी हर्षोल्लासपूर्ण है क्योंकि इस ऋतु में चारों ओर हरियाली रहती है तथा नवीन पत्र-पुष्पों द्वारा प्रकृति का नव शृंगार किया जाता है। लोग नववर्ष का स्वागत करने के लिए अपने घर-द्वार सजाते हैं तथा नवीन वस्त्राभूषण धारण करके ज्योतिषाचार्य द्वारा नूतन वर्ष का संवत्सर फल सुनते हैं। शास्त्रीय मान्यता के अनुसार चैत्र शुक्ल प्रतिपदा की तिथि के दिन प्रातः काल स्नान आदि के द्वारा शुद्ध होकर हाथ में गंध, अक्षत, पुष्प और जल लेकर ओउम भूर्भुवः स्वः संवत्सर अधिपति आवाहयामि पूजयामि – इस मंत्र से नव संवत्सर की पूजा करनी चाहिए तथा नववर्ष के अशुभ फलों के निवारण हेतु ब्रह्मा जी से प्रार्थना करनी चाहिए कि हे भगवन! आपकी कृपा से मेरा यह वर्ष कल्याणकारी हो और इस संवत्सर के मध्य में आने वाले सभी अनिष्ट और विघ्न शांत हो जाएं। नव संवत्सर के दिन नीम के कोमल पत्तों और ऋतुकाल के पुष्पों का चूर्ण बनाकर उसमें काली मिर्च, नमक, हींग, जीरा, मिश्री, इमली और अजवायन मिलाकर खाने से रक्त विकार आदि शारीरिक रोग शांत रहते हैं और पूरे वर्ष स्वास्थ्य ठीक रहता है।

कायम रही सांस्कृतिक पहचान

पिछले दो हजार वर्षों में अनेक देशी और विदेशी राजाओं ने अपनी साम्राज्यवादी आकांक्षाओं की तुष्टि करने तथा इस देश को राजनीतिक दृष्टि से पराधीन बनाने के प्रयोजन से अनेक संवतों को चलाया, किंतु भारत राष्ट्र की सांस्कृतिक पहचान केवल विक्रमी संवत के साथ ही जुड़ी रही। अंग्रेजी शिक्षा-दीक्षा और पश्चिमी संस्कृति के प्रभाव के कारण आज भले ही सर्वत्र ईस्वी संवत का बोलबाला हो और भारतीय तिथि-मासों की काल गणना से लोग अनभिज्ञ होते जा रहे हों, परंतु वास्तविकता यह भी है कि देश के सांस्कृतिक पर्व-उत्सव तथा राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर, गुरु नानक आदि महापुरुषों की जयंतियां आज भी भारतीय काल गणना के हिसाब से ही मनाई जाती हैं, ईस्वी संवत के अनुसार नहीं। विवाह, मुंडन का शुभ मुहूर्त हो या श्राद्ध-तर्पण आदि सामाजिक कार्यों का अनुष्ठान, ये सब भारतीय पंचांग पद्धति के अनुसार ही किया जाता है, ईस्वी सन् की तिथियों के अनुसार नहीं।


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