वन अधिकार का चुनावी मुद्दा

By: Mar 30th, 2019 12:07 am

कुलभूषण उपमन्यु

अध्यक्ष, हिमालय नीति अभियान

फिलहाल तो सरकार ने हस्तक्षेप करके अपना पक्ष रखकर न्यायालय में बात रखी कि एफआरए के खारिज दावों के दावेदारों की बेदखली रोकी जाए, क्योंकि कुछ दावे ठीक जांच के बाद खारिज नहीं हुए हैं। यानी जबरदस्ती खारिज किए गए हैं। उच्चतम न्यायालय ने 22 जुलाई तक अपने निर्णय पर रोक लगा दी है। अब उसके बाद क्या होगा कोई नहीं जानता…

वन अधिकार कानून 2006 वनवासी और अन्य वन निर्भर समुदायों के लिए एक बड़ी राहत के रूप में आया था, किंतु इसको लागू करने के कार्य को कुछ निहित स्वार्थ या वनों पर आधारित समाज के अर्थशास्त्र से लापरवाह शक्तियां लगातार लटकाने के तरीके ढूंढ रही हैं। कभी आदिवासी और अन्य परंपरागत वनवासी समुदायों की परिभाषा के आधार पर, तो कभी वन्य जीवों के संरक्षण को आधार बना कर। वन अधिकार कानून 2006 आदिवासी और अन्य परंपरागत वनवासियों के साथ उपनिवेशवादी शासन के दौरान हुए ऐतिहासिक अन्याय को दूर करने के लिए ही बनाया गया है। अंग्रेजों ने वनों के व्यापारिक दोहन के लिए तत्कालीन वन संसाधनों पर कब्जा जमाने के लिए तमाम वनों को सरकारी घोषित कर दिया। हालांकि कुछ वनों को राजस्व वन श्रेणी में रख कर समुदायों की आबादी बढ़ने के साथ बढ़ती जरूरतों और अन्य विकास संबंधी जरूरतों के लिए अलग व्यवस्था के अधीन रखा था। राजस्व वनों की प्रबंध व्यवस्था राजस्व विभाग देखता था। आबादी के बढ़ने के कारण नई जमीनें इसी भूमि में से आबंटित की जाति थीं। धीरे-धीरे वन क्षेत्र बढ़ता गया और राजस्व भूमियां सिकुड़ती गईं। उन्हें संरक्षित और आरक्षित वन श्रेणियों में बदलने का कार्य लगातार चलता रहा। इससे उन वनों पर निर्भर समुदायों को आजीविका के संसाधनों की कमी पड़ती गई। इसके शिकार दो तरह के समुदाय हुए। एक तो मध्य भारत के आदिवासी समुदाय, जो भूमि की मिलकीयत व्यवस्था पर विश्वास नहीं करते थे, वे गर्म इलाके के वासी थे और झूम खेती करके जीवनयापन करते थे। एक जगह पांच-सात साल एक कबीले ने सामूहिक खेती की, फिर वहां से अगले क्षेत्र में चले गए। इस तरह 25-30 सालों में उनका एक चक्कर पूरा होता था।

खेती के लिए काटा गया जंगल इस अरसे में दोबारा पनप गया होता था। इस तरह यह क्रम चलता रहता। एक तरह से ये समुदाय उस वन क्षेत्र के मालिक ही थे, क्योंकि वन संबंधी सब निर्णय तो वही लेते थे। राजाओं का मामूली नियंत्रण वनों पर रहता था, जिसके अंतर्गत राजा को सम्मान देकर ही समुदायों की व्यवस्था चलती रहती थी। वनों के व्यापार जैसी कोई व्यवस्था नहीं थी। अंग्रेजों ने जब इन क्षेत्रों पर कब्जा किया, तो सारी निर्णय व्यवस्था भी उनके हाथ चली गई। उन्होंने व्यापारिक प्रजाति के पेड़ों को ही प्रोत्साहन दिया। आदिवासी अपने वनों में ही अवैध कब्जाधारी बना दिए गए। झूम खेती को हतोत्साहित करने के लिए आदिवासी समुदायों को एक जगह टिककर खेती करने के लिए प्रोत्साहित किया गया, किंतु खेती के लिए जमीन की मिलकीयत देने के बजाय आदिवासी बसाहतों को वन ग्राम की श्रेणी में रख दिया। आजादी के बाद तक ये आदिवासी वहां अवैध कब्जाधारी किसान बने रहे। वन विभाग उनसे वनरोपण में मजदूरी का काम भी लेने लगा और जब मन करता उन्हें बेदखल करने का कार्य भी करता रहा। वन विभाग यह समझने में आज दिन तक नाकाम रहा है कि ये वनवासी वनों के लिए खतरा नहीं हैं, बल्कि इनकी वजह से ही इतना वन क्षेत्र बचा हुआ है। इस बात का प्रमाण यही है कि सघन वन वहीं बचे हैं, जहां आदिवासी और अन्य परंपरागत वन वासियों की बस्तियां हैं। जहां-जहां आधुनिक अर्थव्यवस्था के ध्वजवाहक तथाकथित विकसित लोगों के पांव पड़े, वहां से वनों का नामोनिशान तक मिट गया। पूरी स्थिर खेती का क्षेत्र, आधुनिक औद्योगिक विकास का क्षेत्र, शहरी क्षेत्र सब वृक्ष विहीन हो चुके हैं और इस सभ्यता का विस्तार जैसे-जैसे हो रहा है, उसकी भेंट सघन वन क्षेत्र आ रहे हैं। बड़ी परियोजनाओं, खनन जैसी गतिविधियों की भेंट लाखों हेक्टेयर वन भूमियां आ रही हैं। 1980 के वन संरक्षण कानून को इसी दृष्टि से बनाया गया। सोचा गया था कि इससे कुछ बचे हुए वन बच सकेंगे, किंतु बड़ी परियोजनाओं, खनन और उद्योगों के लिए तो केंद्र सरकारों से वन भूमि के प्रयोग को बदलने की स्वीकृति मिल ही जाती है। आ-जाकर गाज तो उन वन वासियों की जरूरतों के लिए छोटी-छोटी भूमि उपयोग में बदलाव की प्रार्थना पर ही पड़ती है, क्योंकि छोटा किसान या ग्रामीण क्षेत्र की विकास की छोटी-छोटी जरूरतों की पैरवी करने की कोई व्यवस्था नहीं है। खुद आदिवासी और अन्य परंपरागत वनवासी समुदाय आर्थिक रूप से भी मौजूद व्यवस्था के अनुसार भूमि उपयोग में बदलाव की प्रक्रिया को अंजाम तक पहुुंचाने की सामर्थ्य ही नहीं रखते और उसके लिए लंबा इंतजार भी लोगों की तात्कालिक जरूरतों को देखते हुए पूरी व्यवस्था को ही निरर्थक बना देता है। दूसरा प्रभावित वर्ग हिमालय में बसने वाला अन्य परंपरागत वनवासी समुदाय है। हिमालय क्षेत्र में कृषि भूमि केवल 10 प्रतिशत है। इतनी कम भूमि पर आत्मनिर्भर जीवनयापन असंभव है। कुछ वर्ग ही ऐसा है, जो वनों से जुड़े व्यवसायों के बिना भी विकसित जीवन जी रहा है, किंतु बाकी के लोगों को वन आधारित अर्थव्यवस्था के आधार पर ही जीवन चलाना पड़ता है। औसत जोत एक हेक्टेयर से भी कम हो गई है। इसलिए ईंधन, चारा, फल, जड़ी-बूटी, पशु चराई, भेड़-बकरी पालन जैसे व्यवसाय, नदियों से मछली आदि का आसरा लेकर ही जीवनयापन संभव हो पाता है। चारों ओर से 70 प्रतिशत वन क्षेत्र से घिरे इन सीमांत किसानों को कोई कहे कि वे वनवासी की परिभाषा में नहीं आते हैं, तो उसकी नीयत पर शक होना स्वाभाविक है। वनों पर निर्भरता के इस आधार को कमजोर कर दें, तो बहुत से लोग तो कंगाली की स्थिति में पहुंच जाएंगे। इन्हीं लोगों के साथ हुए ऐतिहासिक अन्याय की बात  वनाधिकार कानून 2006 अपनी प्रस्तावना में ही करता है और उन्हें राहत देने के लिए तीन तरह की सुविधा प्रदान करता है। पहला, 2005 से पहले जिस भूमि पर एक सीमा के भीतर खेती करता हो, उसे खेती के लिए उस भूमि पर अधिकार। दूसरा, जिस वनक्षेत्र में बर्तनदारी के लिए विभिन्न वन उत्पादों का प्रयोग करता हो, उनके प्रयोग के अधिकार कानूनी रूप से बर्तनदारों को देना। तीसरा, बर्तनदारी वनों में अपनी जरूरत के वन उत्पादों को बचाए रखने के लिए प्रबंधन व्यवस्था में भूमिका प्रदान करता है। इस कानून को लागू करने की प्रक्रिया थोड़ी पेचीदा और लंबी है, जिसमें स्थानीय ग्राम सभाओं को केंद्रीय भूमिका दी गई है।

इसलिए उनके प्रशिक्षण का बड़ा महत्त्व है। यह कार्य तो सरकारी व्यवस्था को ही करना था, किंतु इस प्रशिक्षण कार्य में ही हीला बहाना शुरू हो गया। जहां लोगों ने कुछ अधिकारों के दावे विधिपूर्वक दायर करने की हिम्मत दिखाई, वहां उन पर अनावश्यक आपत्तियां लगा कर दावों को खारिज करने का कार्य किया गया, ताकि लोग थक कर चुप बैठ जाएं। हिमाचल में तो यही कह  दिया गया कि यहां कोई वनों में नहीं रहता है, इसलिए कोई भी एक्ट के दायरे में ही नहीं आता। फिर 2008 में केंद्र सरकार के आदिवासी मंत्रालय ने नौ जून के पत्र में स्पष्टीकरण जारी किया कि किसी का वन में रहना पात्रता का प्रमाण नहीं है, बल्कि पात्र का वन संसाधनों पर आजीविका के लिए निर्भर होना आवश्यक शर्त है। इसके बाद भी कोशिशें जारी हैं कि किसी तरह इस कानून को लागू होने से रोका जाए। ताजा कोशिश उच्चतम न्यायालय में इस कानून की संवैधानिकता को ही चुनौती देकर की गई है।

फिलहाल तो सरकार ने हस्तक्षेप करके अपना पक्ष रखकर न्यायालय में बात रखी कि एफआरए के खारिज दावों के दावेदारों की बेदखली रोकी जाए, क्योंकि कुछ दावे ठीक जांच के बाद खारिज नहीं हुए हैं। यानी जबरदस्ती खारिज किए गए हैं। उच्चतम न्यायालय ने 22 जुलाई तक अपने निर्णय पर रोक लगा दी है। अब उसके बाद क्या होगा कोई नहीं जानता। संरक्षण के अधिकारों को कोई खारिज नहीं कर सकता। इसलिए उम्मीद की जानी चाहिए कि माननीय न्यायालय और राजनीतिक दल इस बात का संज्ञान लें कि वनवासी ही वनों के असली संरक्षक हैं।


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