विवेक चूड़ामणि

By: Mar 23rd, 2019 12:05 am

गतांक से आगे…

आस्था हो तो क्या नहीं होता। अगले दिन गांववासी यह देखकर चकित रह गए कि गांव से दूर बहने वाली अलवाय नदी शंकर के घर के पास बह रही थी। एकदिन कुछ ज्योतिषी अतिथिरूप में शंकर के गृहस्थान पर पधारे।  माता विशिष्टा ने अपने पुत्र की कुंडली उन्हें दिखाई। कुंडली का शास्त्रीय विवेचन करने के बाद सभी ने एक मत से कहा कि बालक के जन्म लग्न में यद्यपि अवतार योग है, किंतु इसकी आयु अल्प है। आठवें, सोलहवें या फिर बत्तीसवें वर्ष में इसे मृत्युयोग है। उन्होंने यह भी बताया कि आठवें वर्ष की मृत्यु तो तप से आठ वर्ष आगे बढ़ भी सकती है, लेकिन 16वें वर्ष का मृत्युयोग तो दैव इच्छा से ही समाप्त हो सकता है। इस भविष्यवाणी ने शंकर को संन्यास जीवन की ओर प्र्रेरित कर दिया। वे जानते थे कि ज्ञान के बिना संसार चक्र से मुक्ति संभव नहीं है और इसके लिए सद्गुरु का शिष्यत्व आवश्यक है। उधर मां को पुत्र की इस बेचैनी ने और भी ज्यादा अशांत और खिन्न कर दिया। पुत्र के जाने का विचार आते ही उसे अपना जीवन अंधकार में घिरा नजर आता है। मैं तुम्हें संन्यास की आज्ञा नहीं दूंगी, मां ने अपने पुत्र से यह स्पष्ट कह दिया। शंकर की विद्वत्ता की महक केरल के महाराजा राजशेखर के दरबार में पहुंची। वे शास्त्र प्रेमी थे। उन्होंने आचार्य शंकर को राज दरबार में लाने के लिए अपने मंत्री को भेजा, लेकिन शंकर ने यह कह कर राजदरबार में उपस्थिति होने से इनकार कर दिया कि न तो उनके मन में मान-सम्मान या धन की वासना है और न ही शास्त्र मर्यादा उन्हें ऐसा करने की स्वीकृति देती है। मंत्री ने लौटकर राजा को सारा वृत्तांत कह सुनाया। राजा ने स्थिति को समझा और वे स्वयं ही आचार्य की सेवा में उपस्थित हो गए। महाराज ने बालशंकर से अपनी जिज्ञासाओं को शांत किया। उन्होंने जब आचार्य को उपहार देना चाहे, तो आचार्य ने कहा कि उनमें क्योंकि ऐसी कोई लालसा नहीं है, इसलिए समस्त धन इत्यादि को उनके बीच बांट दिया जाए जिन्हें इनकी आवश्यकता है। विद्वत्ता के साथ त्याग के इस सम्मिश्रण से लोगों के बीच आचार्य की प्रतिष्ठा और बढ़ गई। महाराज ने बालशंकर की आज्ञा का पालन कर वैसा ही किया। एक दिन शंकर अलवाय नदी में स्नान के लिए गए। जैसे ही वे जल में स्नान हेतु उतरे,तभी एक मगर उनका पैर पकड़कर गहराई की ओर खींचने लगा। मां अपने पुत्र की सहायता के लिए पुकार कर रही थी और बेटा संन्यास दो, संन्यास दो मां! यह आग्रह कर रहा था। शंकर के बचने की आशा न देख मां विशिष्टा ने कहा, ठीक है पुत्र मैं तुझे संन्यास ग्रहण की आज्ञा देती हूं। इसके बाद वे मूर्छित हो गई और आश्चर्य के मगर शंकर को छोड़ कर जल में ही लुप्त हो गया। मां की जब आंखें खुली, तो अपने पुत्र को जीवित देखकर वह भूल गई कि अनजाने में ही उसने पुत्र को संन्यास लेने की स्वीकृति दे दी है। माता और पुत्र के वार्तालाप को सुनका कालड़ी के निवासियों का हृदय द्रवित हो गया। मां अपने अकेले होने की दुहाई दे रही थी, तो पुत्र अपने जीवन के परम कर्त्तव्य को करने और परमलक्ष्य को पाने के लिए उत्साहित था। आचार्य शंकर ने अपना सर्वस्व लोगों के बीच वितरित किया और अपनी माता का उत्तरदायित्व भी उन्हें सौंप दिया। अपनी माता के समक्ष उन्होनें तीन प्रतिज्ञाएं की। अंतिम समय में मैं अपनी मां के समीप उपस्थित होऊंगा, उस समय मां को ईश्वर के दर्शन कराऊंगा तथा अपने हाथों से मां के पार्थिव शरीर का अंतिम संस्कार करूंगा।  इसके बाद मां ने अपने आंसुओं को मानो पी लिया। उन्होंने अपने दिल के टुकड़े को संन्यास ग्रहण करने की अनुमति दे दी ।


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