विवेक चूड़ामणि

By: Mar 30th, 2019 12:05 am

गतांक से आगे…

गुरुगृह में शंकर ने सुना हुआ था कि महर्षि व्यास आज भी गोबिंदपाद  के रूप में नर्मदा किनारे किसी गुफा में ध्यानस्थ हैं। इसीलिए गृहत्याग के बाद शंकर ने नर्मदा का रूख कर लिया, अपने गृहग्राम से उत्तर की दिशा की ओर। दो माह लगातार चलने के बाद नर्मदा किनारे स्थित ओंकारनाथ में जब शंकर पहुंचे, तो लोगों से ज्ञात हुआ कि कोई महान योगी समीप की गुफा में वर्षों से समाधिस्थ हैं। एक बुद्ध संन्यासी ने शंकर को समझाया कि उनके जैसे कई जिज्ञासु वर्षों से उस योगी का शिष्य बनने की प्रतीक्षा कर रहे हैं, लेकिन ऐसा तभी संभव है, जब वे अपनी समाधि से उठें। शंकर ने गुफा में प्रवेश किया। क्षीणकाय, लेकिन प्रकाशपुंज सरीखे उस यतीश्वर को ध्यानमुद्रा में बैठा देखकर शंकर भावविह्वल हो उठे। उन्होंने छंदबद्ध स्तोत्र द्वारा उनकी स्तुति की। भाव और शब्दों के मिश्रण से उठी अलौकिक तरंगों ने गुफा के कण-कण को झंकृत कर दिया। स्तुति ने यतीराज को समाधि से जगा दिया।  गुरु और शिष्य दोनों ने एक-दूसरे को पहचान लिया था। शिष्य को ही गुरु की खोज नहीं होती है, गुरु भी शिष्य की प्रतीक्षा करता है, क्योंकि दोनों एक-दूसरे के बिना अधूरे हैं। गोबिंदपाद ने प्रथम वर्ष में शंकर को हठयोग, दूसरे वर्ष में राजयोग और तीसरे वर्ष में ज्ञानयोग की दीक्षा दी। इन तीनों साधनाओं का उचित संतुलन ही साधक को पूर्ण सिद्ध बनाता है। शंकर अब पूर्ण हो गए थे। तभी वर्षा ऋतु का आगमन हुआ। गोबिंदपाद अपनी गुफा में समाधिस्थ थे। लगातार वर्षों के उपरांत नर्मदा ने अपने तटों को लांघना शुरू किया था। जल उस गुफा में भी तेजी से जाने लगा, जिसमें गोबिंदपाद समाधिस्थ बैठे थे। सभी शिष्य चिंतित थे। तभी शंकर एक मिट्टी का कुंभ ले आए। उन्होंने उसे गुफा के द्वार पर रख दिया। बाढ़ का जल उस घड़े में प्रविष्ट होने लगा। ऐसा मालूम होता था मानो महर्षि कपिल समुद्र का जल पी रहे हों। कुंभ ने बाढ़ के वेग को कुंठित कर दिया था। बाढ़ समाप्त होने के बाद जब शिष्यों से गोबिंदपाद को शंकर द्वारा किए गए चमत्कार का पता चला, तो उन्हें विश्वास हो गया कि वे जिसकी प्रतीक्षा कर रहे थे वह उन्हें मिल गया है। शंकर को ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखने का निर्देश देते हुए गुरुदेव ने आदेश दिया कि इस कार्य को संपन्न करने के लिए वे काशी जाएं। वहां भगवान विश्वनाथ द्वारा उन्हें मार्गदर्शन प्राप्त होगा। इसके बाद गोबिंदपाद ने विशिष्ट योग क्रियाओं द्वारा अपने पार्थिव शरीर का परित्याग कर दिया। गुरु आज्ञा का स्मरण कर आचार्य शंकर ने अपने अन्य गुरुभाइयों के साथ शिवनगरी काशी की ओर प्रस्थान किया। वह नगरी प्राचीनकाल से भक्तों और विद्वानों की प्रिय रही है। कौन सी ऐसी दार्शनिक धारा होगी, जिससे संबंधित विद्वान यहां न हों। इस तरह भाग्य लेखन के साथ ही इन विद्वानों के बीच उपनिषदों में कहे गए अद्वैतमत का प्रचार प्रसार भी संभव हो सकेगा, यह सोचकर आचार्य शंकर बाबा विश्वनाथ की नगरी में निवास करने लगे। एक दिन सनंदन नाम का एक कुमार आचार्य शंकर के पास आया। उसकी आंतरिक जिज्ञासा और मुखमंडल के चमकते तेज से आचार्य को ज्ञात हो गया कि वह कोई अतिविशिष्ट प्रतिभा से युक्त ब्राह्मण कुमार है। सनंदन के आग्रह पर आचार्य ने उसे संन्यास में दीक्षित कर दिया। वह सनंदन ही बाद में पदमपादाचार्य के नाम से  आध्यात्मिक जगत में प्रसिद्ध हुआ। सनंदन को बाल्य अवस्था में यह ज्ञात हुआ था कि भगवान नृसिंह सभी मनोकामनाओं को पूर्ण करते हैं। उनका दर्शन करने के लिए वह बल नामक पर्वत पर भगवान नृसिंह की उपासना करने लगा।


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