स्वच्छता में बड़ी बाधा प्लास्टिक

By: Mar 7th, 2019 12:06 am

कुलभूषण उपमन्यु

हिमालयन नीति अभियान के अध्यक्ष

किसी भी देश के स्वास्थ्य और प्रगति के लिए स्वच्छता की भूमिका को सभी समझते हैं। वर्तमान सरकार ने भी इस आवश्यकता को समझ कर इसे विशेष स्थान देकर स्वच्छता अभियान की शुरुआत की। कह सकते हैं कि यह अभियान एक जन आंदोलन के रूप में प्रतिष्ठित होता जा रहा है। बहुत से कस्बों, शहरों में कचरा इकट्ठा करने की व्यवस्थाएं पहले से ही चली आ रही हैं, अब तो कई गांव भी कचरा इकट्ठा करने की व्यवस्थाएं खड़ी कर रहे हैं। पुराने समय में स्वच्छता की बड़ी चुनौती खुले में शौच की व्यवस्था थी। जब आबादी कम थी, तो इससे इतना नुकसान भी नहीं होता था। जब से आबादी का विस्फोट हुआ है, चुनौतियां भी बढ़ती जा रही हैं, किंतु दुनियाभर में कचरे की समस्या से निपटने में सबसे बड़ी बाधा प्लास्टिक के आविष्कार के बाद खड़ी हुई है। खुले में शौच की समस्या को बड़ी हद तक शौचालय निर्माण को बड़े पैमाने पर प्रोत्साहन देकर नियंत्रित किया जा रहा है, जिसमें सफलता भी मिल रही है। नदियों में छोड़े जा रहे औद्योगिक अपशिष्ट और शहरी मल जल के संशोधन के संयंत्र लगा कर समस्या का उपचार किया जा रहा है, किंतु प्लास्टिक कचरा एक सबसे बड़ी चुनौती बन कर सामने आ रहा है, जो सभी तरह के संशोधन कार्यों को भी कठिनतर बना रहा है। बहुत से प्लास्टिक 500 से 1000 वर्ष तक सड़ते नहीं हैं। प्लास्टिक कचरा तो ऐसा समस्यादायी कचरा है, जिसे न तो जला सकते हैं, क्योंकि सामान्य तरीके से खुले में जलाने से यह जहरीली गैसें छोड़ता है, जो स्वास्थ्य के लिए बहुत ही घातक साबित होती हैं। कुछ तरह के प्लास्टिक तो जलते ही नहीं हैं। उनके लिए उच्च तापमान पर विशेष संयंत्रों में जलाने की जरूरत पडती है। प्लास्टिक के पुनः चक्रीकरण के प्रयास भी एक सीमा तक ही कामयाब होते हैं। सड़क पक्का करने के समय कोलतार में मिलाने, ईंट बनाने, सीमेंट कारखनों में ईंधन के साथ मिला कर जलाने, छोटे-छोटे बिजली पैदा करने के संयंत्रों में ईंधन के रूप में जलाने जैसे कई विकल्प सामने आ रहे हैं, किंतु इन पर समन्वित प्रयास के अभाव में सारे स्वच्छता अभियान को पलीता इस प्लास्टिक कचरे के कारण लग रहा है। आए दिन कभी प्लास्टिक की नदी और कभी प्लास्टिक के नालों की तस्वीरें हमारी असमर्थता को व्यक्त करती रहती हैं। शहरों, कस्बों में भी डंपिंग स्थल कचरे के पहाड़ बनते जा रहे हैं। दिल्ली-मुंबई से लेकर देहरादून, शिमला, धर्मशाला, चंबा, पालमपुर और छोटे-छोटे अनगिनत कस्बों की यही दास्तां है। खुले में कचरा जलता रहता है। नदी-नाले प्लास्टिक से पटे पड़े हैं। अब तो गांव भी इस समस्या के शिकार हो गए हैं। यह स्थिति स्वच्छता अभियान जैसे नेक नीयत से चलाए जा रहे कार्यक्रमों के लिए भी हौसला पस्त करने का कारक बन सकती है। इसलिए जरूरी है कि बड़े पैमाने पर प्लास्टिक कचरे से निपटने की रणनीति को इस अभियान का केंद्र बिंदु माना जाए। सबसे पहला काम नीतिगत स्तर पर यह किया जाना चाहिए कि अवांछित प्लास्टिक का उत्पादन स्तर पर ही निषेध लागू हो। एक बार प्रयोग करके फेंकने वाला प्लास्टिक बहुत कम उत्पादित किया जाए। हिमाचल की तरह पूरे देश में ही पतले प्लास्टिक लिफाफों पर रोक होनी चाहिए। आजकल अधिकांश दैनिक जरूरत की वस्तुएं प्लास्टिक की पैकिंग में आने का प्रचलन बढ़ता ही जा रहा है। इसके लिए वैकल्पिक पैकिंग सामग्री की खोज की जानी चाहिए। कुछ हद तक बायो-प्लास्टिक भी मददगार साबित हो सकता है। गांवों में जहां कचरे की उतनी मात्रा पैदा नहीं होती, जिसे किसी तरह उपचारित किया जा सके, ऐसी स्थिति में पंचायतों का समूह बनाकर उपचार के यूनिट लगाने चाहिए। पालमपुर की आइमा पंचायत ने इस दिशा में अच्छा काम किया है। इस तरह के मॉडल को आगे बढ़ाने की संभावना को देखा जाना चाहिए। जैविक कचरे से खाद बनाने का कार्य तो सफल है। प्लास्टिक कचरे से निपटने के प्रयास कितने सफल हैं, यह भी देखा जाना चाहिए और इस प्रक्रिया को अन्य पंचायतों के समूह बनाकर लागू करने की दिशा में काम होना चाहिए। हिमाचल में बाहर से आने वाली सब्जी आजकल प्रतिबंधित किस्म के प्लास्टिक बैग्स में आ रही है। खुलेआम इस तरह के उल्लंघन की इजाजत नहीं दी जानी चाहिए। कबाड़ी नेटवर्क को मजबूत बनाना और उसे प्रोत्साहित करना चाहिए, ताकि ज्यादा से ज्यादा प्लास्टिक पुनः चक्रीकरण के लिए जा सके। मेडिकल दवाइयों की पैकिंग में और अन्य उपकरणों में प्रयोग होने वाला प्लास्टिक कबाड़ी भी नहीं उठाते हैं। यहां तक कि अस्पतालों के प्लास्टिक कचरे के निपटान की सुविधा भी सब जगह उपयुक्त स्तर पर नहीं है। यदि अस्पतालों के कचरे के निपटान की व्यवस्था ठीक हो, तो स्थानीय स्तर पर मेडिकल प्लास्टिक कचरे को भी अस्पतालों के कचरे के साथ संशोधित करने की व्यवस्थाएं बनाई जा सकती हैं। गांव में पतले प्लास्टिक कचरे को जलाने के लिए अधिक कुशल प्रज्वलन गैसीफायर संयंत्रों का प्रयोग किया जा सकता है। हालांकि यह भी पूरी तरह निरापद तो नहीं होगा, किंतु जिस तरह आजकल खुले में ही प्लास्टिक जलाया जा रहा है, उससे तो स्थिति कुछ बेहतर ही होगी। जब तक कोई और अच्छा विकल्प नहीं मिल जाता, तब तक यह आपद धर्म के रूप में अपनाया जा सकता है। इसके लिए एक विशेष फोर्स का गठन करके काम सुगम हो सकता है, क्योंकि उनको प्रशिक्षित करके काम लिया जा सकता है और जब एक ही काम उनके हवाले होगा, तो वे अपनी रोजी की सुरक्षा के लिए भी कुछ परिणाम देने के लिए बाध्य होंगे। इसके अलावा बैटरियों और ड्राई सेल के साथ-साथ इलेक्ट्रॉनिक कचरे की ओर भी विशेष ध्यान देने की जरूरत है। बहुत से लोग तो इसके हानिकारक होने के बारे में जानते ही नहीं हैं। कचरे से बिजली का विकल्प भी अपनाना ही पड़ेगा, क्योंकि कई तरह का प्लास्टिक तमाम दूसरे उपाय करने के बाद बच ही जाएगा, उसको बिजली बनाने के ईंधन के रूप में प्रयोग किया जा सकता है। अतः असली मसला प्लास्टिक से निजात पाने का है और इसके लिए जो कुछ भी किया जा सकता है, वह किया जाना चाहिए।


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