सत्य का ज्ञान
ओशो
ज्ञान एक ऐसा शब्द है, जिसके भेद एक दूसरे से अलग है। एक ज्ञान है केवल जानना, जानकारी, बौद्धिक समझ। दूसरा ज्ञान है, अनुभूति, प्रज्ञा, जीवंत प्रतीति। एक मृत तथ्यों का संग्रह है, एक जीवित सत्य का बोध है। दोनों में बहुत अंतर है। भूमि और आकाश का, अंधकार और प्रकाश का। वस्तुतः बौद्धिक ज्ञान कोई ज्ञान नहीं है। वह ज्ञान का भ्रम है। क्या नेत्रहीन व्यक्ति को प्रकाश का कोई ज्ञान हो सकता है। बौद्धिक ज्ञान वैसा ही ज्ञान है। ऐसे ज्ञान का भ्रम अज्ञान को ढक लेता है। वह आवरण मात्र है। उसके शब्दजाल और विचारों के धुएं में अज्ञान विस्मृत हो जाता है। यह अज्ञान से भी घातक है, क्योंकि अज्ञान दिखता हो, तो उससे ऊपर उठने की आकांक्षा पैदा होती है, पर वह न दिखे तो उससे ऊपर मुक्त होना संभव ही नहीं रह जाता है। तथाकथित ज्ञानी अज्ञान में ही नष्ट हो जाते हैं। सत्य ज्ञान बाहर से नहीं आता है और जो बाहर से आए, जानना कि वह ज्ञान नहीं है, मात्र जानकारी ही है। ऐसे ज्ञान के भ्रम में गिरने से सावधानी रखनी आवश्यक है। जो भी बाहर से आता है, वह स्वयं पर और पर्दा बन जाता है। ज्ञान भीतर से जागता है। वह आता नहीं, जागता है और उसके लिए पर्दे बनाने नहीं तोड़ने होते हैं। ज्ञान को सीखना नहीं होता है, उसे उघाड़ना होता है। सीखा हुआ ज्ञान जानकारी है, उघड़ा हुआ ज्ञान अनुभूति है। जिस ज्ञान को सीखा जाता है, उसके आगमन से ही आचरण सहज उसके अनुकूल हो जाता है। सत्य ज्ञान के विपरीत जीवन का होना एक असंभावना है। वैसा आज तक धरा पर कभी नहीं हुआ है। एक कथा स्मरण आती है। एक घने वन के बीहड़ पथ पर दो मुनि थे। शरीर की दृष्टि से वे पिता पुत्र थे। पुत्र आगे था, पिता पीछे। मार्ग था एकदम निर्जन और भयानक। अचानक सिंह का गर्जन हुआ। पिता ने पुत्र से कहा, तुम पीछे आ जाओ, खतरा है। पुत्र हंसने लगा, आगे चलता था, आगे चलता रहा। पिता ने दोबारा कहा, सिंह सामने आ गया था, मृत्यु द्वार पर खड़ी थी। पुत्र बोला, मैं शरीर नहीं हूं, तो खतरा कहां है। आप भी तो यही कहते हैं न, पिता ने भागते हुए चिल्ला कर कहा, पागल सिंह की राह छोड़ दे, पर पुत्र हंसता ही रहा और बढ़ता ही रहा। सिंह का हमला भी हो गया। वह गिर पड़ा था, पर उसे दिख रहा था कि जो गिरा है, वह मैं नहीं हूं। शरीर वह नहीं था, इसलिए उसकी कोई मृत्यु भी नहीं थी। जो पिता कहता था, वह उसे दिख भी रहा था। वह अंतर महान है। पिता दुखी था और दूर खड़े उसकी आंखों में आंसू थे और पुत्र स्वयं मात्र दृष्टा ही रह गया था। वह जीवन दृष्टा था, तो मृत्यु में भी दृष्टा था। उसे न दुख था, न पीड़ा। वह अविचल और निर्विकार था, क्योंकि जो भी हो रहा था, वह उसके बाहर हो रहा था। वह स्वयं कहीं भी उसमें सम्मिलित नहीं था। इसलिए कहता हूं ज्ञान और ज्ञान में भेद है। दुख पर ध्यान दोगो, तो हमेशा दुखी रहोगे। दरअसल तुम जिस पर ध्यान देते हो वह चीज सक्रिय हो जाती है। ध्यान सबसे बड़ी कुंजी है। दुख को त्यागो। जीवन में सारे दुखों का कारण हम स्वयं ही बनते हैं। अगर समय रहते मनुष्य जाग जाए, तो उसे जीवन में हर तरह का ज्ञान मिल जाए। बाप अपने बेटे को यही समझाने की कोशिश करता रहा कि आगे मत जाओ, क्योंकि उस रास्ते पर खतरा मंडरा रहा था, लेकिन उसकी दृष्टि में वह शरीर था ही नहीं।
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