आत्म पुराण

By: May 11th, 2019 12:05 am

यह अज्ञान रूप तम से परे है। इसलिए यही स्वयं ज्योति रूप है। हे शिष्य! भूत, भविष्य, वर्तमान रूप जितना भी यह जगत है, यह संपूर्ण परमात्मा देव में ही स्थित है, इसलिए ब्रह्मवेत्ता पुरुष इस परमात्मा देव को ही संसार रूपी चक्र की नाभि कहते हैं। यह परमात्मा देव ही अग्नि, वायु, सूर्य, चंद्रमा, मोक्ष, सूक्ष्म, भूत, विराट रूप है और इस परमात्मा से ही निमेष, घड़ी, मुहूर्त, प्रहर, दिन, रात्रि पक्ष, मास, ऋतु, सम्वत्सर आदि काल उत्पन्न होता है। इस प्रकार परमात्मा देव ने ही सब जगत को उत्पन्न करके आकाश आदि पंच भूतों से और त्रिलोकी रूप गौर से नाना प्रकार से भोग रूप दूध को दुहा। वह भोग रूप दूध ही हम जीवों को सुख प्रतीत होता है। ऐसे चैतन्य रूप शुद्ध परमात्मा देव के लिए हमारा बारंबार नमस्कार है। अब उस परमात्मा देव को अद्वितीय रूपता के स्पष्ट करने के लिए उसकी सर्व जगत कारणता का निरूपण किया जाता है। हे शिष्य पुण्य पाप कर्मों के अनुसार सब पदार्थों को प्राप्त कराने वाला जो जगत का ईश्वर है, वही अद्वितीय ब्रह्म रूप है। सप्त लोकों में जो सात प्रकार के शरीर हैं और उनमें जो सात प्रकार के प्राण हैं, वे सब परमात्मा देव से ही उत्पन्न होेते हैं, फिर उसी परमात्मा देव से ही भौम, जाठर, सूर्य, चंद्रमा, विद्युत, बाडव, चक्षु, ये सात प्रकार के अग्नि उत्पन्न होते हैं। इनमें से जो अग्नि काष्ठ में रहती है। वह भौम है। उदर के भीतर जो अग्नि है, वह जाठर है। समुद्र में पाई जाने वाली अग्नि वाडव कही जाती है। उसी परमात्मा से सात प्रकार की समिधाय उत्पन्न होती है। स्वर्ग, मेघ, भूलोक, पुरुष, योषित रूप पंच अग्नियों के लिए आदित्य, वायु, सम्वत्सर, वाक्, उपस्थ ही पांच समिधाएं मानी गई हैं, फिर परमात्मा से ही भूः, भुवः, स्वः, महः, जनः, तपः और सत्य, ये सात लोक उत्पन्न होते हैं, उसी परमात्मा देव से काली, कराली, मनीजा, सुलोहिता, धम्रवर्णा, स्फुलिंगिनी और विश्व रूपी या अग्नि की सात जिह्वाएं उत्पन्न होती हैं। उसी से भूः आदि लोकों में विचरण करने वाले तथा सब जीवों के बाह्य प्राण रूप मरुतगण उत्पन्न होते हैं। उसी परमात्मा देव से सप्त समुद्र और हिमालय आदि पर्वत तथा समस्त नदियां होती हैं। उस रस रूप परमात्मा देव से ही जौ, चावल आदि औषधियां (अन्न) होते हैं और सब शरीरधारी जीवों को प्राप्त होते हैं। उस परमात्मा देव को ही बुद्धिमान पुरुष धृतादि द्रव्य और यज्ञ रूप में वर्णन करते हैं। वही परमात्मा देव इंद्र आदि समस्त देवताओं द्वारा पूज्य है। ऐसा परमात्मा देव हम अधिकारी जनों को शुभ बुद्धि प्रदान करे। हे शिष्य! जब यह अधिकारी पुरुष उस परमात्मा देव की इस प्रकार स्तुति करता है, तब ही वह उस अधिकारी को अपना वास्तविक रूप दिखाता है। ऐसे परमात्मा की प्राप्ति इन जीवों को अग्निहोत्र आदि द्वारा कभी नहीं हो सकती। अनेक पुत्र, पौत्रादि रूप प्रजा द्वारा भी उस परमात्मा की प्राप्ति नहीं होती। सुवर्ण आदि धन द्वारा भी नहीं होती। किंतु उन सब पदार्थों को त्यागने से ही परमात्मा देव की प्राप्ति होती है। इस बात को श्रुति में भी कहा गया है-‘न कर्मणा न प्रजया न धनेन त्यागने के अमृतत्व मान शु’ अथवा पुत्र, पौत्रादिक प्रजा अथवा सुवर्णादि धन द्वारा ब्रह्म भाव-मोक्ष को प्राप्त नहीं हुए। किंतु कर्मकांड, प्रजा, धन आदि को त्याग कर ही मोक्ष को प्राप्त हुए थे।


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