आत्म पुराण

By: May 25th, 2019 12:05 am

परमात्मादेव किसी काल अथवा देश में अन्यथा भाव को प्राप्त नहीं होता, वरन सदा सर्वदा एक रस रहता है, इसलिए उसे ‘शाश्वत’ कहा जाता है। यह परमात्मा देव ब्रह्मा आदि के भी जानने योग्य है, इस कारण इन्हें ‘म्हाज्ञेय’ भी कहा जाता है। यही सब भूतों प्राणियों की परागति है, इस कारण इनका एक नाम ‘परायण’ भी है। परमात्मादेव अग्नि की जड़ ज्योति और बुद्धि की चेतन ज्योति से भी अत्यंत उत्कृष्ट हैं, इससे ‘परम ज्योति’ भी कहे जाते हैं। हे शिष्य! ध्याता-ध्यान-ध्येय आदि से लेकर यह संपूर्ण जगत नारायण रूप ही है। जितना भी जगत देखने और सुनने में आता है, उनके बाहर, भीतर यह नारायण ही स्थित है। कैसा है वह नारायण देव, आनंद, स्वरूप है, उत्पत्ति-नाश से रहित है, स्वप्रकाश रूप है तथा समस्त जगत को प्रकाशित करने वाला है। हे शिष्य! इस लोक में जिस पुरुष का मन धैर्य युक्त है, वही धर्म का साधन करके उस नारायण को प्राप्त कर सकता है। इस प्रकार मन लगाकर अंतःकरण से साधना करने से ही मोक्ष मार्ग को सिद्धि होती है। हे शिष्य! इस लोक में जितने भी वैदिक और लौकिक कर्म हैं, वे संपूर्ण इस मन के ही अधीन हैं। मन के बिना कोई कर्म सिद्ध नहीं हो सकता। इस कारण श्रुति ने मन का दश धर्म के अंगों के अतिरिक्त एकादशवां साधन बतलाया है। यह मानस-साधन ही समस्त साधनों का मूल है। हे शिष्य! अभी तक ऐसे धैर्य युक्त मन के प्रभाव से ही अनेक मुनि, अनेक देवता तथा अनेक मनुष्य श्रेष्ठता को प्राप्त हो सके हैं। हे शिष्य! अब संन्यास रूप द्वादशवें साधन की सर्व साधनों से उत्कृष्ठता का वर्णन करते हैं। यह संन्यास दो प्रकार का होता है, एक तो लिंग संन्यास और दूसरा अलिंग संन्यास। इनमें दंड आदि चिन्ह धारण करके जो संन्यास लिया जाता है, वह लिंग संन्यास है और जो चिन्ह, रहित होता है, वह अलिंग है। लिंग संन्यास का अधिकार तो केवल ब्राह्मण को ही है और अलिंग संन्यास क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और स्त्री भी धारण कर सकती है। लिंग संन्यासी चार प्रकार के होते हैं, कुटीचक, बहूदक, हंस, परमहंस। इनमें  कुटीचक वह ब्राह्मण होता है जो पुत्र, घर तथा धन से युक्त है, पर जिसकी स्त्री नहीं होती। वह वृद्धावस्था वाला और व्याधिग्रस्त होता है और भिक्षा भोजन करने में असमर्थ होता है। ऐसा ब्राह्मण अपने घर में ही कुटी बनाकर उसमें अकेला रहकर धर्म साधना करता है और अपने पत्रों से ही अन्न-वस्त्र  आदि लेता है। बहूदक संन्यासी वह होता है, जिसकी स्त्री का देहांत हो गया है और फिर स्त्री करने की जिसकी इच्छा नहीं है अथवा जिसकी वृद्ध हो चुकी है और पुत्रादिक के प्रति जिसको मोह नहीं होता। वह बहूदक संन्यास को ग्रहण करता है और सदैव पंचमात्राओं को धारण करके पृथ्वी पर विचरता है। वह पंचमात्रा यह हैं दंड, कमंडल, भिक्षा की झोली, भोजन करने का पात्र और जल को शोधन करने का वस्त्र। ये बहूदक संन्यासी सब धर्म नियमों का श्रद्धापूर्वक पालन करते हैं। हंस संन्यासी वे होते हैं, जो विषय सुखों से परम वैराग्य रखते हुए भी कर्मों में थोड़ी सी श्रद्धा रखते हैं। वे सामवेद के अनुसार शिखा न रखकर यज्ञोपवीत धारण करते और एक दंड को धारण करते हैं।


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