परहेज खुद की तलाश का

By: May 20th, 2019 12:03 am

ढूंढने की सभी कोशिशों में खुद की जेब को आश्वस्त किया जा रहा है कि तुम्हें कुछ नहीं होगा। तुम्हारी तलाशी के सभी रास्ते बंद हैं। उनकी हर हरकत पर नजर है कि कहीं कुछ मिल जाए तो पौ फटने से पहले उन्हें धर लिया जाए। मकसद की इस आंख-मिचौली से सब कुछ मचल-मचल गया है। जो दिखता है, वह होता नहीं। जो होता है, वह दिखने से परहेज कर जाता है। नुक्स निकालने के इस आलम में नुक्तों को पूरी व्याकरण बना दिए जाने के प्रयास हैं। मानो अब इतिहास के असली टीकाकार आए हैं जो हो चुके को अपनी नजर से देखते हैं और उसे ही नजीर समझते हैं। आग्रहों की कढ़ाई में मिथकों के पकौड़े तलने को विमर्श बताने की जिद्द। मिथ्या के भंवर में डूब जाने को सद्गति मान लिए जाने को दृढ़।

पाखंड के खंड-खंड को प्रसाद बनाने की कोशिश में लोकहित का प्रासाद टूट जाने के कगार पर। मानो हम वर्तमान के सत्ता रूपी तौलिए से विगत की सारी धूल उतार देंगे। आत्मसाधना अब अहमन्यता की पर्याय हो गई। आत्मगौरव अब मिथिहास का प्राक्कथन। मानो हम जी लिए को फिर से धरती पर उतार लाने के लिए पगला गए हैं। किस्सों के पैगंबर होने में अतीत को कांधों पर लाद लेना ही श्रम की एकमात्र सार्थकता-सी। भूखे को राम भजन करने की नसीहत और कर्मों के खेल में धकेल देने की फजीहत-सी। आभासीय प्रस्तुतियों को जिंदगी का सार बताने की असलियत-सी। डगर-डगर सत्ता का स्वांग और अगर-मगर करने को तर्क की भांग बताने का जोर-शोर। आइए, इन वीरों की दशा बदलें। मानवता को फिर से इसके मुकाम पर पहुंचाएं। इसकी परिधि में सत्ता के सत्य को लाएं।    


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