वन अधिनियम का प्रस्तावित संशोधन

By: May 14th, 2019 12:06 am

कुलभूषण उपमन्यु

अध्यक्ष, हिमालय नीति अभियान

 

जल संरक्षण और पारिस्थितिकीय संतुलन में वनों की भूमिका को प्राथमिकता देना, वनवासी और वन निर्भर समुदायों की आजीविका की रक्षा करना भी आज की वानिकी के लक्ष्य होने चाहिएं। नए वन अधिनियम को वन अधिकार अधिनियम 2006 से तालमेल बिठाने की समझ से बनाना पड़ेगा…

भारतीय वन अधिनियम 1927 में ब्रिटिश सरकार द्वारा बनाया गया कानून है। आजादी के 72 साल बाद तक भी हम अपने वन प्रबंधन को उसी कानून के आधार पर चला रहे हैं। हालांकि 90 के दशक में भी इस कानून के स्थान पर नया कानून लाने के प्रयास किए गए थे, किंतु वन संसाधन पर दावेदारों के हितों में आपसी टकराव इतने अधिक हैं कि उनमें आपसी समन्वय बिठाना कोई आसान काम नहीं। अतः तत्कालीन सरकार ने यह सोचा होगा कि एक नई सिरदर्द क्यों मोल ली जाए और मामला वहीं पड़ा रहा। 1927 के बाद देश की नदियों में बहुत जल बह चुका है। इसलिए एक नए कानून की जरूरत तो सभी समझते हैं, किंतु हर दावेदार अपने हितों के मुताबिक नया वन अधिनियम चाहता है। 1927 में ब्रिटिश सरकार ने ब्रिटिश हितों की पूर्ति के लिए वन अधिनियम बनाया था, इस बात पर किसी को कोई शक नहीं होना चाहिए। ज्यादा से ज्यादा वन क्षेत्रों को वन विभाग के कब्जे में लाकर ब्रिटिश औद्योगीकरण का हित साधना ही उसका मुख्य लक्ष्य था। इसीलिए पहला वन अधिकारी, जो भारत के मालाबार जंगलों के प्रबंध के नाम पर भारत में भेजा गया, वह कोई वानिकी का जानकार नहीं था, बल्कि एक पुलिस अफसर था। तब से ही वन विभाग एक पुलिस प्रशासन की तर्ज पर काम करने वाला विभाग है और उसी कार्य प्रणाली को मजबूत करने के लिए 1927 का वन अधिनियम आधारभूत कानून का काम करता आ रहा है। एक बड़ा मुद्दा यह भी है कि वन संसाधनों के दावेदार आज की परिस्थितियों के आधार पर कौन हों, यह बात भी सुलझाई नहीं गई है।

ब्रिटिश राज में तो मुख्य दावेदार वन विभाग, उद्योग, खनन आदि क्षेत्र ही थे, जिनके हितसाधन के लिए वन संसाधनों को स्थानीय उपयोगकर्ताओं के हाथ से बाहर निकालने के लिए पुलिस की तर्ज पर वन विभाग का गठन किया गया था। इसके लिए वनों के बंदोबस्त की प्रक्रिया अपनाई गई, जिसके तहत स्थानीय बरतनदारों की सुनवाई करके एक सेटलमेंट अफसर उनके अधिकारों की सीमा निर्धारित कर देता था। जहां स्थानीय जनता ने कुछ विरोध किया, वहां के लिए कुछ छूट दे दी। जहां लोग चुप रहे, वहां अपनी समझ से जो सेटलमेंट अफसर ने कर दिया, वह सही हो गया। वनों के मामले के दो पहलू हैं। एक तो वनों की विविध उपज है, दूसरी वन भूमि है। ब्रिटिश वन विभाग ने वनों पर कब्जा करके पहले तो वन उपज का लाभ लेने के लिए योजना बनाई, जिसमें अधिक से अधिक दोहन और वन कटान पर जोर दिया गया, किंतु बाद में जब समझ आया कि अत्यधिक वन कटान से वन विनाश की दर बहुत ज्यादा है, यदि इसके साथ वन रोपण का कार्य नहीं किया गया, तो संसाधन नष्ट होने का खतरा पैदा हो जाएगा। अतः वन रोपण कार्य आरंभ करने के लिए जर्मन वानिकी वैज्ञानिकों का सहयोग लिया गया, क्योंकि ब्रिटेन को वन विज्ञान की उतनी जानकारी तब तक नहीं थी। जर्मन वैज्ञानिकों का क्योंकि कोई निहित स्वार्थ नहीं था, इस कारण उन्होंने वानिकी का अच्छा वैज्ञानिक आधार तैयार करने में सहयोग किया, किंतु वानिकी नीति और प्रशासन तो ब्रिटिश सरकार तथा वन विभाग को ही चलाना था। उन्होंने प्राकृतिक विविधता से परिपूर्ण वनों को एकल प्रजाति के इमारती लकड़ी के वनों में बदलने का क्रम शुरू कर दिया। वन भूमि के मालिक तो वे बन ही चुके थे, इसलिए वन भूमि का उपयोग बदलने के लिए भी वे शक्ति संपन्न थे, जिसका उपयोग उन्होंने आवश्यकता अनुसार किया। इसका परिणाम यह हुआ कि स्थानीय लोग, जो वनों के स्वाभाविक उपयोगकर्ता और संरक्षक थे, वे वनों से भावनात्मक रूप से दूर होते गए और वनों के चोर बना दिए गए। उस समय की समझ के अनुसार वन सरकार के लिए केवल आय का साधन मात्र थे, किंतु वनवासी और वन निर्भर समुदायों के लिए जीवनयापन का आधार थे। इसलिए सरकार के निर्णय तो सरकारी आय बढ़ाने की दृष्टि से ही किए गए। इसलिए वनवासी और हिमालयी वन निर्भर समुदायों ने ब्रिटिश वन विभाग का लंबे समय तक विरोध किया, जिसके परिणामस्वरूप गढ़वाल क्षेत्र में वन पंचायतों का गठन करके ब्रिटिश सरकार ने लोगों को कुछ राहत देकर विरोध शांत करने का प्रयास किया और वनवासी समुदायों को लघु वन उपजों पर कुछ अधिकार दिए। आजादी के बाद यह व्यवस्था बदलनी चाहिए थी, किंतु नहीं बदली। इस व्यवस्था को बदलने के जो भी प्रयास हो रहे हैं, उनमें वन दावेदारों में मुख्य भूमिका तो वन विभाग और औद्योगिक वर्ग की ही दिखाई देती है, जबकि एक प्रजातांत्रिक देश में मुख्य दावेदारी तो वनों पर आजीविका के लिए निर्भर समुदायों की होनी चाहिए, ताकि वनों का प्रबंध ऐसा हो, जिससे उनकी रोजी-रोटी पर प्रतिकूल प्रभाव न पड़े। दूसरी बड़ी दावेदारी देश का पारिस्थितिकीय संतुलन बनाकर रखने वाले इदारों की होनी चाहिए, जो पारिस्थितिकीय संतुलन को बनाए रखकर जलवायु परिवर्तन, जैव विविधता संरक्षण पर होने वाले खतरों से देश को बचा सकें।

तीसरी दावेदारी उद्योग और अन्य विकास के वाहकों की होनी चाहिए। वन विभाग इन तीनों मुख्य दावेदारों के लिए उपयुक्त वन प्रबंधन व्यवस्था खड़ी करने में सहयोगी विशेषज्ञ की भूमिका में होना चाहिए, किंतु वन विभाग, वन संसाधनों के मुख्य दावेदारों को शामिल किए बिना ही अपनी ब्रिटिश उपनिवेशवादी समझ से अकेले ही कुछ अपनी विभागीय शक्तियां बढ़ाने और औद्योगिक हित रक्षण के लिए भारतीय वन अधिनियम में कुछ बदलाव लाने की कोशिशें कर रहा है।  इससे न तो वन संरक्षण कार्य को प्रभावी बनाने के रास्ते निकलेंगे और न ही देश की आज की वनों के बारे में बनी वैज्ञानिक समझ के आधार पर उभरी नई जरूरतों की पूर्ति हो सकेगी।

जल संरक्षण और पारिस्थितिकीय संतुलन में वनों की भूमिका को प्राथमिकता देना, वनवासी और वन निर्भर समुदायों की आजीविका की रक्षा करना भी आज की वानिकी के लक्ष्य होने चाहिएं। नए वन अधिनियम को वन अधिकार अधिनियम 2006 से तालमेल बिठाने की समझ से बनाना पड़ेगा, ताकि देश का एक बहुत बड़ा वर्ग, जो वन संसाधनों पर अपनी आजीविका के लिए पूर्णतया या आंशिक रूप से निर्भर है और इसी कारण वनों का स्वाभाविक संरक्षक है, उसका सशक्तिकरण हो। उसके रोजगार की समस्या हल हो तथा मध्य भारत में उनके अंदर माओवादियों की घुसपैठ का वैचारिक अधिष्ठान भी समाप्त हो। इससे वन संरक्षण की एक नई संस्कृति पनपेगी, जिसकी जड़ व्यवस्थागत भय में नहीं, बल्कि प्रजातांत्रिक जन चेतना में गड़ी होगी।


Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also,  Download our Android App