समकालीन साहित्य से दूर होता पाठक
क्या आज का साहित्य ऐसा है जिसे पढ़ने में पाठक रुचि नहीं लेता है? आज की स्थिति को देखते हुए लगता तो ऐसा ही है। साहित्य के घटते पाठकों के आंकड़ों को देखें तो यह बात सही नजर आती है। आज का साहित्य ऐसा है जिसमें पाठक रुचि नहीं लेता है। विशेषकर युवा आकांक्षा के अनुरूप साहित्य का सृजन नहीं हो पा रहा है। इसीलिए वह साहित्य से दूर होता जा रहा है। एक समय था जब देवकी नंदन खत्री की कहानियों ने लोगों को हिंदी सिखा डाली। उनकी कहानियों का पाठक वर्ग ऐसा उभरा कि जो हिंदी नहीं भी जानते थे, वे भी हिंदी सीखने के लिए प्रेरित हुए और हिंदी सीखने के बाद खत्री जी की कहानियों को पढ़ने में उन्होंने रुचि दिखाई। अब सवाल यह है कि आज के साहित्य में ऐसी ताकत क्यों नहीं है? क्या हम मुंशी प्रेम चंद के साहित्य की प्रशंसा में गीत गाकर ही साहित्य का सही अवलोकन कर लेंगे? साहित्य से पाठकों के दूर होने के कारण खोजें तो हमें कई कारण सहज ही नजर आएंगे। इनमें पहला कारण है कि साहित्यकारों के कुछ प्रिय विषय हैं जिन्हें बार-बार लिखकर उन्हें सार्वभौमिक सत्य की तरह प्रस्तुत किया जा रहा है। सार्वभौमिक सत्य वह होते हैं जो हर काल में, हर स्थान पर खरे उतर सकते हों। एक ही बात को बार-बार कहा जाए तो वह सार्वभौमिक सत्य लग सकती है, हो नहीं सकती। कुछ विषय ऐसे हैं जिन पर लिख-लिख कर वे न थके हों, पर कुछ पाठक पढ़-पढ़ कर ऊब चुके हैं, जैसे पूर्व में सब कुछ अच्छा है, पश्चिम सब बुरा।
कुछ बातों पर लिख-लिख कर साहित्यकारों ने अपनी बातों को सार्वभौमिक सत्य बना देने का पूरा प्रयास किया है। हर सभ्यता का मूल्यांकन हम नहीं कर सकते हैं। सभ्यताओं में मिश्रण भी होना स्वाभाविक है, कोई पूछे कि क्या देवदासी प्रथा, वेश्यावृत्ति, दहेज प्रथा, महिलाओं पर अत्याचार व उनका शोषण पश्चिम की देन है! पश्चिम से हमने विज्ञान और तकनीक ली है, वहां से थोड़ा स्वच्छ रहने का भी ज्ञान ले लेते? सड़क पर थूकना, दीवार से सटकर पुरुषों का पेशाब करना, पालतू कुत्तों के लिए सार्वजनिक स्थानों को शौचालय बना देना तो कम से कम पश्चिम की देन नहीं है। जब तक हम अपने मुंह मियामिट्ठू बनना और कमियों को स्वीकारना नहीं सीखेंगे, अतीत में जीते रहेंगे, सामाजिक स्तर पर कोई सुधार नहीं कर सकेंगे। इस तरह हर बुराई के लिए पश्चिम को दोष देना ठीक नहीं है। हमें अपने भीतर झांककर देखना होगा। साहित्य में नवीनता, सृजनशीलता, नवाचार, रोचकता आदि की हमें सख्त जरूरत है, तभी पाठक साहित्य में रुचि ले पाएगा अन्यथा हम प्रेम चंद के साहित्य का अवलोकन मात्र कर साहित्य-बोध का भ्रम पाल लेंगे।
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