अलग ही महत्त्व होता है निर्जला एकादशी का

By: Jun 19th, 2019 12:02 am

यह त्योहार ज्येष्ठ महीने की शुक्ला एकादशी को मनाया जाता है, जिसमें एकादशी के सूर्यास्त तक अन्न या जल भी ग्रहण नहीं किया जाता जो गर्मी के दिनों में बड़ी-कड़ी तपस्या है। यह व्रत ऋषि व्यास ने भीम को बताया था, क्योंकि वह अपने भाइयों और मां की भांति हर एकादशी को व्रत नहीं कर सकता था। निर्जला एकादशी के समय कई स्थानों पर मेले भी  लगते हैं…

गतांक से आगे …

निर्जला एकादशी : यह त्योहार ज्येष्ठ महीने की शुक्ला एकादशी को मनाया जाता है, जिसमें एकादशी के सूर्यास्त तक अन्न या जल भी ग्रहण नहीं किया जाता जो गर्मी के दिनों में बड़ी-कड़ी तपस्या है। यह व्रत ऋषि व्यास ने भीम को बताया था, क्योंकि वह अपने भाइयों और मां की भांति हर एकादशी को व्रत नहीं कर सकता था। निर्जला एकादशी के समय कई स्थानों पर मेले भी लगते हैं। इसके अतिरिक्त चंदनषष्ठी, इसमें भी व्रत रखे जाते हैं, करवा-चौथ जिसमें भी स्त्रियां अपनी पति की भलाई हेतु व्रत रखती हैं और पति को करवा यानी घी-शक्कर और अखरोट आदि फल खिलाती हैं। यह पंचभिषमी पूर्णिमा आदि अन्य उत्सव हैं। किन्नौर और लाहुल-स्पीति में मनाए जाने वाले अन्य त्योहार हैं-लोसर (नववर्ष), ख्वांगरी, नमगान, छेया एंव गिजा।

भुंडा, शांद, भोज : भुंडा में निरमंड (कुल्लू) का भुंडा अति प्रसिद्ध है यह नरमेघ यज्ञ की तरह नरबलि का उत्सव है। सरकार ने अब इस उत्सव में आदमी का शामिल किया जाना बंद कर दिया है और आदमी के स्थान पर बकरा बिठाया जाता है, परंतु 20वीं सदी के आरंभ तक भुंडा में आदमी की बलि दी जाती थी। भुंडा की तिथि आने से तीन महीने पहले ‘वेदा’ जाति  के जिस भी व्यक्ति को इस कार्य के लिए चुना जाता है, वह परिवार के सदस्यों सहित गांव देवता के मंदिर में बुला लिया जाता है और उनका खान-पान मंदिर के खजाने से किया जाता है। उत्सव के लिए इलाके के बाकी लोगों से भी अनाज एवं घन इकट्ठे किए जाते हैं। परिवार के लोग और वह व्यक्ति बग्गड़ घास इकट्ठा करते हैं और चुना गया व्यक्ति 100 या 150 गज रस्सा अपने हाथ में बांटता है, जो मंदिर में संभाल कर रखा जाता है। इस रस्से के ऊपर कोई व्यक्ति नहीं जा सकता और न ही इसके नजदीक जूते ले जाए जा सकते हैं। यदि किसी प्रकार रस्सा अपवित्र हो जाए तो अपवित्र करने वाला बकरे की बलि देता है। उत्सव वाले दिन रस्सा एक अति दुर्गम स्थान पर पहाड़ी ऊंची चोटी से नीचे की ओर बांध दिया जाता है। फिर चुने गए वेदा जाति के व्यक्ति को नहला-धुलाकर, उसकी देवता के रूप में पूजा करके जलसे के रूप में बाजों-गाजों के साथ एक लकड़ी की पीढ़ी में बिठा दिया जाता है। जो रस्से से बांध दी जाती है। इसको एक अन्य रस्से से पकड़कर रखा जाता है। ठीक समय आने पर पुजारी के इशारे पर उस रस्सी को जिससे पीढ़ी पकड़ी गई हो, काट दिया जाता है। संबंधित व्यक्ति पीढ़ी में बैठा हुआ बग्गड़ के रस्से के साथ लुढ़कता चला जाता है। जहां से पीढ़ी छोड़ी जाती है, वहां पुजारी और कुछ अन्य व्यक्ति होते हैं।

 


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