आत्मघाती है बुजुर्गों की अनदेखी

By: Jun 27th, 2019 12:06 am

बचन सिंह घटवाल

लेखक, कांगड़ा से हैं

 

मैं तो विचारों संग अत्याचारों की लड़ाई अपने बुजुर्गों पर मढ़ने वाले उन बेटों पर सवालिया निशान लगाने की हिम्मत कर रहा हूं कि परिस्थितियां जब उन मां-बाप की भी आपके पालन-पोषण के समय प्रतिकूल रही होंगी, तब भी तो उन्होंने बेटे का हाथ नहीं छोड़ा, बल्कि मां-बाप खुद भूखे सो जाते रहे होंगे, परंतु बेटों को आंच तक आने न दी होगी। फिर क्यों वही मां-बाप आपके बचपन की स्थिति समरूप सहारे की वही इच्छा पाले हुए हों तो हम अपना फर्ज निभाने की जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ते हुए नजर आते हैं। वास्तव में ऐसा दोगलापन हमें स्वार्थी बनाता जा रहा है…

बुजुर्ग जीवन की अनथक कहानी के सूत्रधार होते हैं, जो समय अंतराल व परिस्थितियों की लंबी दौड़ के धावक बनकर जीवन के अंतिम क्षणों तक संघर्षरत रहते हैं। जीवन संघर्ष की अद्भुत दास्तां समेटे हुए हमारे बुजुर्ग समय का एहसास दिलाते हुए कई पड़ावों से होकर गुजरे होते हैं। उनके चेहरे पर झुरियां, उड़े हुए सफेद बाल, शुष्क शरीर, संग बैसाखियों के सहारे के लिए पकड़ कर चलना उनके वयोवृद्ध जीवन को गतिमय करने का स्वरूप, जीवन में हिम्मत के संग आगे बढ़ने का संदेश दे जाता है। यह जीवन का एक अद्भुत खंड भूतकाल की विस्मृतियों का भंडार होता है, जिससे गूढ़ ज्ञान, तजुर्बों व जीवन रहस्यों का खजाना छिपा होता है, जो हमारे सुनहरे कल को संवारने में अपनी सशक्त भूमिका अदा करने के बाद इस पड़ाव तक पहुंचे हैं। अकसर हम व्यक्तियों को यह कहते हुए सुनते हैं कि बुढ़ापा तो एक दिन सभी को आना ही है। जीवन के इस पड़ाव के बारे में जानते हुए भी हम बुजुर्गों की अवहेलना करते हुए परिवारों के भांति-भांति के किस्से  व विचार अकसर सुनते हैं। इसमें बुजुर्गों के प्रति अनादर का पनपता भाव जरूर समाज में संयमित और सुसंस्कृत पीढ़ी को कचोटता होगा। बेशक यही बुजुर्ग, जिन्होंने घर को सशक्त बनाने में अपने बच्चों को जीवन की राह में गिरते-पड़ते हर स्थिति में संभाला और जब समय ने करवट बदली, तो हमने सहारा देने के लिए उनके हाथ झटक दिए। अपने बच्चों का वृद्धावस्था में जब मां-बाप सहारा ढूंढते हैं, तो आंखों की मद्धम पड़ रही रोशनी के चलते हाथ से सहारे वाली लाठी फिसल सी क्यों जाती है और हमारे बुजुर्ग उनकी इस गुस्ताखी को गुमसुम निहारते रह जाते हैं।

जमाने का मंजर सब जगह परिवर्तनशीलता के ढर्रे पर टिका नजर आता है, परंतु नवजीवन को अंगुली पकड़ कर गिरने से पहले सहारा दे देने वाले मां-बाप के हाथ बुढ़ापे में सहारा पाने से पहले झटक क्यों देते हैं। अपनी हकीकत को छिपाता व्यक्ति कई बार परिस्थितियों का बहाना बनाकर अपने हालात का रोना रोते हुए उन्हें तन्हा जिंदगी की तरफ धकेल देते हैं। परिस्थितियां कुछ भी हों, ऐसा सभी तो नहीं करते, परंतु वे परिवार जो बुजुर्गों के जीवन के साथ लुका-छिपी का खेल खेलते हुए मानवता को शर्मशार करते हुए नजर आते हैं, उन्हें बुजुर्गों के प्रति सकारात्मक सोच का दायरा अवश्य बढ़ाना चाहिए। इसमें संदेह नहीं है कि जमाना कमजोर को दबाता है, उससे छीनता है और मिटा देता है। क्या आज मानव इतना गिर गया है कि बुढ़ापे में मां-बाप को घर से बेघर करने का प्रयत्न करे और सहारा पाने वाले हाथ टकटकी लगाए हुए बचपन में चलना सिखाने वाले अपने नन्हे बेटे का यौवनावस्था में क्रूर रूप देखकर विचलित हो जाएं। मैं तो विचारों संग अत्याचारों की लड़ाई अपने बुजुर्गों पर मढ़ने वाले उन बेटों पर सवालिया निशान लगाने की हिम्मत कर रहा हूं कि परिस्थितियां जब उन मां-बाप की भी आपके पालन-पोषण के समय प्रतिकूल रही होंगी, तब भी तो उन्होंने बेटे का हाथ नहीं छोड़ा, बल्कि मां-बाप खुद भूखे सो जाते रहे होंगे, परंतु बेटों को आंच तक आने न दी होगी। फिर क्यों वही मां-बाप आपके बचपन की स्थिति समरूप सहारे की वही इच्छा पाले हुए हों तो हम अपना फर्ज निभाने की जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ते हुए नजर आते हैं। वास्तव में ऐसा दोगलापन हमें स्वार्थी बनाता जा रहा है। समय की गति संग व्यक्ति का जीवन बुढ़ापे की तरफ अग्रसर क्षीण होता जा रहा है और उमरदराज बुजुर्ग कई तरह की परेशानियों, व्याधियों व जीवन की कशमकश से उलझते हुए अपनी संतान से आशातीत नजरों से सहारे की आकांक्षा जरूर रखते हैं। जहां हम उनकी क्षीणता को कमजोरी समझने का भ्रम पाल लेते हैं, वहीं बुजुर्ग जीवन के कई पड़ावों के तजुर्बों से फलीभूत होते हैं। घर के नाजुक मामलों को सुलझाने का हुनर उनके पास होता है। हर क्षेत्र के तजुर्बों का भंडार हमारे बुजुर्गों में उन्हें हमसे बेहतर बनाता है। आज एकल परिवारों का लगातार बढ़ना, रिश्तों और मर्यादाओं की हिलती-डुलती बुनियादों की वजह बुजुर्गों की अवहेलना व अनदेखी ही है।

बुजुर्गों के सहारे का संवल सिर्फ युवा पीढ़ी ही है न कि बुजुर्गों को वृद्धाश्रम में जीवन संघर्ष में अपने की तड़प में उन्हें तड़पता छोड़ कर मुंह मोड़ लेना। सहारे की लालसा जिस तरह व्यक्ति को मित्र, पत्नी व बच्चों के रूप में लालायित करती है, उसमें हमारे बुजुर्ग हमारे मजबूत सखा व अपनेपन की परिपाटी याद दिलाते हुए घने पेड़ की सुखद छाया के रूप में होते हैं। उनसे पीछा छुड़ाने की बेवजह कहानियों का रुख पलटकर सान्निध्य का आनंद व प्यार, जीवन को नवीन दिशा की तरफ अग्रसर करता है। उनकी रोकाटोकी किसी अनहोनी और बुरी संगत की तरफ बढ़ते कदमों को रोकती है। अतः उनके इस व्यवहार को जीवन की दिशा व दशा बदलने का प्रारूप समझना चाहिए। सरकार समय की आहट संग वृद्धों की पेंशन को संबल के रूप में सहारा तो जरूर दे रही है, परंतु बुजुर्गों की सुरक्षा व पारिवारिक परिवेश में जीवनयापन का दायित्व उन्हें कानून के रूप में दिलाकर उनके बुढ़ापे को उज्ज्वल व सुखमय बनाने का प्रयास जरूर कर सकती है।

वृद्धों की समस्याओं को तरजीह देने की व्यवस्था को कारगार बनाने के प्रयत्न सहारा ढूंढ रहे हाथों को जरूर मजबूत करने का प्रयत्न कर सकता हैं। आज समय की पुकार है कि हमारे वृद्ध, बुजुर्ग आशातीत दृष्टि से अपने लिए सुखमय बुढ़ापे की आशा पाले जीवन के एहसास को मुट्ठी में बंद कर लने की कशमकश में है। ऐसे में उनकी आकांक्षाओं को फलीभूत करना नई पीढ़ी की एक सशक्त पहल होनी चाहिए।


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