आत्म पुराण

By: Jun 1st, 2019 12:05 am

अब परमहंस वे हैं, जो इस लोक और स्वर्ग के सुखों की इच्छा सर्वथा त्याग चुके हैं। वे केवल अपने हृदय देश में स्थित आनंदस्वरूप आत्मा को प्राप्त करने की इच्छा रखते हैं। वे आत्मसाक्षात्कार के लिए नित्य वेदांतशास्त्र का अध्ययन करते हैं। हे शिष्य! अब संन्यास आश्रम की सब धर्मों की अपेक्षा अधिक उत्कृष्टता का वर्णन करते हैं। संसार में जितने भी जीव हैं उनमें से जिनमें प्राणों का श्वास-प्रश्वास स्पष्ट नहीं हैं ऐसे वृक्षादिक की अपेक्षा स्पष्ट श्वास-प्रश्वास वाले कीटादिक श्रेष्ठ हैं। उन कीटादिक से वे सर्प अधिक श्रेष्ठ हैं, जिनमें कुछ बुद्धि भी हैं। उन सर्प आदिक से चार पैरों वाले अश्व आदि श्रेष्ठ हैं। उनसे भी चार पैरों की गौ श्रेष्ठ है। उस चार पाद वाली गौ से दो पैर वाले जीव श्रेष्ठ हैं। उनसे शूद्र मनुष्य श्रेष्ठ हैं। शूद्रों से वैश्य, वैश्यों से क्षत्रिय और क्षत्रियों से ब्राह्मण श्रेष्ठ हैं। इस लोक में जैसे भूदेव ब्राह्मण श्रेष्ठ हैं वैसे ही अग्नि आदिक देवता भी श्रेष्ठ हैं। फिर जातिमात्र के ब्राह्मणों से वेद के अर्थ को सामान्य रूप से समझने वाले ब्राह्मण श्रेष्ठ हैं। उन सामान्य वेदांत को समझने वाले ब्राह्मण संशय विपर्यय से रहित वेद के अर्थ को जानने वाला ब्राह्मण श्रेष्ठ है। ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास आश्रमों में से ब्रह्मचर्य से गृहस्थ श्रेष्ठ है। गृहस्थ से वानप्रस्थ और वानप्रस्थ से सन्यास श्रेष्ठ है। चारों प्रकार के संन्यासियों में भी परमहंस श्रेष्ठ है, जिनको भगवती श्रुति ने ब्रह्मविद बह्मनिष्ठ के नाम से कथन किया है। हे शिष्य! इस आनंदस्वरूप आत्मा को स्थूल-सूक्ष्म कारण शरीर से पृथक जानने के लिए ही संन्यास आश्रम का विधान किया है, पर जो पुरुष संन्यास आश्रम को धारण करके भी उस आत्मा का विचार नहीं करता, परंतु मोहवश होकर कर्मकांड में ही फंसा रहता है, वह संन्यास से पतित होता है। हे शिष्य! यही बात वार्तिक ग्रंथ के कर्ता श्री सुरेश्वराचार्य ने भी

कही है।

त्वं पदार्थ विवेकाय संन्यास सर्व कर्मणाम्।

श्रुत्या विधीयते यस्मात तत्यामी पतियोभवेत।।

अर्थात- श्रुति ने त्वं पदार्थ आत्मा के जानने के वास्ते ही सब कर्मों के संन्यास का विधान किया है। इसलिए जो पुरुष संन्यास ग्रहण करके उस आत्म विचार को नहीं करता वह पतित होता है।हे शिष्य! ऐसे आनंदस्वरूप परमात्मादेव को जब यह अधिकारी पुरुष अपना आत्मा जानकर साक्षात्कार करता है, तभी यह जीवित रहते ही अविद्या आदि समस्त क्लेशों से रहित हो जाता है। फिर इस शरीर के पश्चात दूसरी बार मृत्यु को प्राप्त नहीं होता। इस तरह की गति संन्यास के प्रभाव से ही प्राप्त होती है। हे शिष्य! यह आत्मा सत चित आनंद रूप है, इसीलिए श्रुति में इसे ब्रह्म कहा गया है ‘जावाल’ आदि उपनिषदों में बताई विधि के अनुसार संन्यास ग्रहण करके और हंस आदि उपनिषदों में जो योग मार्ग बतलाया है, तदनुसार योगाभ्यास करके तथा ब्रह्मवेत्ता गुरु के उपदेश से आत्मा को ब्रह्मरूप में चिंतन करके यह अधिकरी पुरुष ब्रह्मभाव को प्राप्त हो जाता है। दशम अध्याय में यजुर्वेद के ‘तैत्तिरीय उपनिषद और नारायण उपनिषद का भावार्थ बतलाया गया था। अब इस एकादश अध्याय में जावाल उपनिषद , गर्भ उपनिषद , अमृतनाद उपनिषद , हंस उपनिषद , क्षुरिका उपनिषद , आरुणेय उपनिषद , ब्रह्म उपनिषद, परमहंस उपनिष्द,  महत उपनिषद आत्म प्रबोण उपनिषद कैवल्य उपनिषद इन ग्यारह उपनिषदों का अर्थ निरूपण किया जाता है।


Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also,  Download our Android App