एक साथ चुनाव से दूरी
‘एक देश, एक चुनाव’ के मुद्दे पर बहुदलीय बैठक करीब चार घंटे चली। नई लोकसभा के तीसरे दिन ही प्रधानमंत्री मोदी ने उस बैठक में एक-एक सांसद वाली पार्टी को भी न्योता दिया था। कुल 21 दलों ने विमर्श में हिस्सा लिया। एक नई बहस, एक नए राष्ट्रीय मुद्दे पर शुरू हुई है। हालांकि करीब 25 साल पहले भाजपा के शीर्षस्थ नेता लालकृष्ण आडवाणी ने इस विमर्श का सूत्रपात किया था, लेकिन आज यह ज्वलंत मुद्दा बन चुका है, क्योंकि चुनाव बेहद महंगे होते जा रहे हैं। भारत जैसा संघीय और विविधता वाला देश औसतन चुनावी मुद्रा में ही रहता है। आर्थिक बोझ के अलावा, सुरक्षा बलों की बढ़ती तैनाती और शिक्षक आदि सरकारी कर्मचारियों की चुनाव ड्यूटी उन्हें अपने बुनियादी दायित्वों से दूर रखती है। चुनाव के कारण आचार संहिता लगती है और उससे नीतिगत, प्रशासनिक फैसलों पर गतिरोध लगा रहता है। अंततः देश का आम नागरिक ही प्रभावित होता है। ‘एक साथ चुनाव’ की परंपरा भारत में रही है। तब तक भाजपा का जन्म भी नहीं हुआ था। देश में कांग्रेस का ही वर्चस्व था। संविधान लागू होने के बाद 1952, ’57, ’62 और ’67 में लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ ही कराए जाते थे। दरअसल हम इस निष्कर्ष पर एकदम नहीं पहुंचना चाहते कि केंद्र और सभी 29 राज्यों, संघशासित क्षेत्रों में चुनाव एक साथ ही कराए जाएं। मुद्दा राष्ट्रीय विमर्श का है। उसकी शुरुआत हुई है, तो सभी दलों को अपना विचार रखने के लिए उसमें शिरकत करनी चाहिए। यदि किसी ने ऐसी बैठक का विरोध और बहिष्कार किया है, तो वह इस विमर्श का ‘दुश्मन’ करार दिया जाना चाहिए। वे दल अपने राष्ट्रीय दायित्व से भाग रहे हैं। सवाल पूछना चाहिए कि कांग्रेस के राहुल गांधी, तृणमूल कांग्रेस की ममता बनर्जी, बसपा की मायावती, सपा के अखिलेश यादव, तेलुगू देशम पार्टी के चंद्रबाबू नायडू, द्रमुक के स्टालिन और ‘आप’ के अरविंद केजरीवाल ने बैठक का बहिष्कार क्यों किया? बेशक तेलंगाना राष्ट्र समिति के अध्यक्ष एवं तेलंगाना के मुख्यमंत्री चंद्रशेखर राव भी नहीं आए, लेकिन उन्होंने अपना प्रतिनिधि भेजा। एनसीपी और बीजद भी विपक्ष में हैं, लेकिन उनके अध्यक्ष शरद पवार और नवीन पटनायक बैठक का हिस्सा बने। ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने तो ‘एक साथ चुनाव’ का समर्थन भी किया। हालिया चुनाव में 6500 करोड़ रुपए खर्च होने का अनुमान है। यह ज्यादा भी हो सकता है। एक और अध्ययन सामने आया है कि 29 राज्यों और दो संघशासित क्षेत्रों की 4033 विधानसभा सीटों पर चुनाव के लिए औसतन 40,033 करोड़ रुपए खर्च होते हैं। लोकसभा की 543 सीटों पर चुनाव के लिए औसतन 38,018 करोड़ रुपए खर्च करने पड़ते हैं। 2019 के चुनाव में करीब 20 लाख सुरक्षा बल जवानों को ड्यूटी पर तैनात रहना पड़ा। अनुमान यह भी है कि चुनाव खर्च में 1998 की तुलना में 6-7 गुना बढ़ोतरी हुई है। यदि ये तमाम जानकारियां विपक्ष ‘श्वेत पत्र’ के जरिए प्राप्त करना चाहता है, तो बैठक में इस पक्ष को रखा जाना चाहिए था। बहिष्कार विपक्ष की कोई सकारात्मक राजनीति नहीं है। बेशक इतने खर्च को ‘एक साथ चुनाव’ का मानदंड न माना जाए, लेकिन इसे एक महत्त्वपूर्ण संविधान संशोधन और बड़े चुनाव सुधार के तौर पर ग्रहण किया जा सकता है। अभी से यह कुतर्क नहीं पचता कि ‘एक साथ चुनाव’ से भाजपा को फायदा होगा। संघीय ढांचे पर असर पड़ेगा और क्षेत्रीय दलों का सूपड़ा साफ हो सकता है, क्योंकि ‘एक साथ चुनाव’ किसी नेता की लहर और राष्ट्रीय मुद्दों से प्रभावित हो सकते हैं। विमर्श के दौरान इन आशंकाओं को भी संबोधित किया जा सकता है। विश्व में स्वीडन, इंडोनेशिया, साउथ अफ्रीका, जर्मनी, स्पेन, हंगरी, पोलैंड, बेल्जियम, स्लोवेनिया और अल्बानिया आदि देशों में ‘एक साथ चुनाव’ की प्रक्रिया ही लागू है। ये पिछड़े और अलोकतांत्रिक राष्ट्र नहीं हैं। दिलचस्प यह रहा कि इस मुद्दे की शुरुआती बहस में ही कांग्रेस बंटी हुई दिखाई दी। मुंबई कांग्रेस अध्यक्ष मिलिंद देवड़ा ने ‘एक साथ चुनाव’ का समर्थन किया है। देश के राष्ट्रपति रहे और कांग्रेस का बौद्धिक चेहरा प्रणब मुखर्जी भी ‘एक साथ चुनाव’ के पक्षधर थे। बेशक इस नई व्यवस्था में भी कुछ छिद्र हो सकते हैं। यह अव्यावहारिक भी साबित हो सकती है। इसका क्रियान्वयन सवालिया हो सकता है, लेकिन उन बिंदुओं पर बहस की जानी चाहिए। सरकार ने जो समिति गठित करने की बात कही है, कमोबेश उसके मंच पर अपने संशय पेश किए जाने चाहिए। बहिष्कार तो बंजर होता है, यदि उसके बावजूद कोई मुद्दा लागू हो जाता है, तो फिर क्या करेंगे?
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