चेतना के साथ

By: Jun 8th, 2019 12:05 am

बाबा हरदेव

अब मन चेतना के बिना नहीं हो सकता, लेकिन चेतना मन के बिना हो सकती है जैसे लहर सागर के बिना नहीं हो सकती, मगर सागर लहर के बिना हो सकता है। मन मनुष्य की चेतना रूपी रस्सी पर बंधी एक ग्रंथि की भांति है। मानो जड़ माया और चेतना जीव में आपस में गांठ पड़ गई है। अब अगरचे ऐसी ग्रंथि का कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है कोरा रूप, कोरी आकृति है। गांठ वस्तुगत नहीं है केवल रूपगत है, क्योंकि रस्सी पर गांठ बांधने पर कुछ परिवर्तन नहीं होता, इसके स्वभाव में कोई अंतर नहीं होता मानो इसका गुण धर्म नहीं बदलता, फिर भी ये गांठ बाधा डाल सकती है, क्योंकि जब से सूक्ष्म गांठ भरी है तब से रस्सी कुछ उलझ सी गई है रस्सी में एक उलझाव-सा खड़ा हो गया है जो सुलझाया जा सकता है। जैसा कि ऊपर वर्णन किया गया है चेतना जब विक्षुब्ध होती है तो मन केवल रूप की शक्ल में निर्मित होता है, जैसे रात को एक सपना बनता है इसका कोई अस्तित्व नहीं होता, इसका सिर्फ रूप ही होता है। इसी प्रकार हम फिल्म देखते हैं, अगरचे परदे पर कोई असल में दिखाई नहीं पड़ता, मगर रूप है वहां कोई अस्तित्व नहीं है जरा भी। अस्तित्व केवल भासता है और मजे की बात यह है कि बुद्धिमान भी रूमाल से अपनी आंख पोछता हुआ देखा जा सकता है। इसी प्रकार बुद्धिमान आदमी भी हंसता हुआ देखा जा सकता है और साथ-साथ मनुष्य भली-भांति जनता भी है कि परदे पर कुछ भी नहीं है फिर भी रूप और आकृति धोखा दे जाती है और इस तरह से जन्मों-जन्मों से हम बैठे हैं इस सिनेमा गृह में जिसका नाम ‘मन’ है।अतः मन न तो सत्य है और न ही असत्य है मन तो आभास है। इसे मिथ्या कहा जा सकता है और मिथ्या का अर्थ होता है जो सत्य जैसे भासे लेकिन सत्य हो न, जो है तो नहीं, लेकिन इसकी प्रतीति हो सकती है। अब जिस अर्थ में शरीर का अस्तित्व है उस अर्थ में मन का अस्तित्व नहीं है। अतः मगर मन का सम्यक (ठीक से) निरीक्षण किया जाए, सम्यक दर्शन किया जाए तो मन तिरोहित होने लगता है और यही आभास का लक्षण है कि जिसको ठीक से देखने से तिरोहित होने लगे तो समझो कि वो आभास था। उदाहरण के तौर पर ‘मन’ एक इंद्रधनुष की तरह है। इंद्रधनुष आकाश और पृथ्वी को जोड़ता हुआ मालूम देता है, लेकिन अगर हम इंद्रधनुष के करीब जाते हैं तो कुछ भी नहीं होता और अगर इस इंद्रधनुष के करीब जाते हैं तो कुछ भी नहीं होता और अगर इस इंद्रधनुष को पकड़ने की चेष्टा करते हैं तो केवल गीलापन ही हाथ लगता है, क्योंकि  वास्तविकता में इंद्रधनुष कुछ भी नहीं है। सिर्फ आभास है। इसी प्रकार मन शरीर और आत्मा को जोड़ता हुआ प्रतीत होता है और जो व्यक्ति इस प्रतीति में डूब जाता है इसे देहाभिमान पैदा होता है। मानो मनुष्य अपने आपको देह ही समझने लग जाता है ऐसी अस्मिता जगती है। मगर जिस मनुष्य की ये अस्मिता पूर्ण सद्गुरु की कृपा द्वारा टूट जाती है, मानो जिसका ये भाव ही टूट जाता है कि ये देह है तो फिर इसका मन बचता ही नहीं, फिर मन तिरोहित हो जाता है। मो दीए से संबंध तोड़ते ही मनुष्य ज्योति के साथ एक हो जाता है। अब कुछ लोग मन को ठहराव देने की बात करते हैं, मन को मार देने की बात करते हैं। ऐसे लोग ये बात बिलकुल भील ही जाते हैं कि संकल्प-विकल्प रहेंगे। इसका अंत होना स्वाभाविक नहीं है। इसी प्रकार कुछ लोग मन को शुद्ध करने की भी सलाह देते हैं।


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