नौ दिन में चले अढ़ाई कोस

By: Jun 24th, 2019 12:02 am

सुरेश सेठ

साहित्यकार

हमें पता ही नहीं चला और देश इतनी तरक्की कर गया। आजकल मंचों से भाषण दागने वाले एक-दूसरे से अधिक फेंकूराम हो गए हैं। जनसेवा का अर्थ भाषण सेवा हो गया है।  ज्यों-ज्यों उनके भाषणों की धार तीखी होती है, उन्हें लगता है देश बाहुबलि हो गया। कितनी तरक्की कर ली, इतने दिनों में हमने। करोड़पति अरबपति हो गए, दुनिया में सबसे तेज गति के साथ। उनकी बहुमंजिली इमारतों में एक मंजिल और उठ गई। लोगों को पीने के लिए पानी नहीं मिलता। उन्होंने छत पर तरणताल ही बना लिए। शायद उन तरणतालों की बढ़ती गिनती बताती है कि आम लोगों के टैंकरों में पानी क्यों कम रह जाता है। जल स्तर नाराज होकर धरती के और भी निचले स्तर पर चला गया। सड़कों पर पशु और आदमी प्यास से हांफ रहे हैं। अभी कौन हांफा? आदमी या जानवर, कुछ पता नहीं चलता। सड़कछाप प्राणी सब एक से लगते हैं। एक भूतपूर्व मंत्री ने भी फरमाया था कि इनके साथ हवाई जहाज में उड़ने की नौबत आ जाए, तो लगता है जैसे मवेशियों के बाड़े में बैठ-उड़ रहे हैं। इससे बेहतर उनका नाजुक पामेरियन है। गोद में उसे लेकर उतरो, तो सारा बदन उसके परफ्यूम से गहगहा उठता है। देश में अमीरों का आंकड़ा बढ़ने के कारण बहुत बड़ी और आयातित गाडि़यां सड़कों पर दौड़ने लगी हैं। इसके मुकाबले फ्टीचर साइकलों की बढ़ती संख्या भी दूसरे राज्यों से उखड़ कर आए प्रवासी मजदूरों और काम पर निकली बाइकों के कर-कमलों की शोभा बनने लगीं। शोभा इसलिए कहा, क्योंकि इन पर किसी न किसी सत्तारूढ़ नेता की तस्वीर की कृपा बनी रहती है। परंतु बाई को यह साइकिल केवल कृपा रूप में ही नहीं मिली। कोई न कोई सत्ता का दलाल उन्हें अपनी जेब गर्म करने के बाद ही भेंट करता है। साथ ही ले जाता है युग परिवर्तन के लिए उनकी वोट और पीढ़ी दर पीढ़ी इसे लेने का वादा। अब काम वाली बाई बड़ी श्रद्धा के साथ कृपालु नेता को वोट डालने जाती है और फिर बड़े धीरज के साथ अपने लिए अच्छे दिन आने का इंतजार करती है।  लेकिन जैसे अभी तक उनके शून्य जन-धन खाते में काले धन के मसीहाओं की बेनकाब हुई राशि के पंद्रह लाख नहीं आए, वैसे ही कभी न आने वाले कल की तरह पांच बरस बाद भी आने वाले अच्छे दिन नहीं आएंगे। कल कभी आता नहीं, जो आता है वह आज ही होता है। फुटपाथ की फ्टीचर जिंदगी सा आज, जहां सरकारी खातों में भुखमरी से मरने वाले लोग अपच का शिकार बता कर निपटा दिए जाते हैं, लेकिन फिर भी भुखमरी के विश्व सूचकांक में हमारा देश कुछ पायदान और नीचे सरक गया है। हम ऐसे सूचकांक बनाने वाले देशों को पूंजीपति देशों का पिट्ठू कहते हैं और अपने जैसे पिछड़े देशों का साझा मंच बनाने की घोषणा करते हैं। तभी व्यापार करने की सुविधा के सूचकांक में हमारा दर्जा ऊपर हो जाने की सूचना मिलती है। जब स्थापना का घी सीधी अंगुली से ही निकल रहा, तो भला अंगुली टेढ़ी करने की क्या जरूरत। हम विकास का घी निकालने में असफल हो गई टेढ़ी अंगुलियों को छिपा कर हालत बेहतर हो जाने की घोषणा करते हैं। भाषणबाजों के जुमले हवा में लहराते हैं और मुस्करा कर नेता हमें समझाते हैं कि लो इस बार तो हमने तुम्हें किसान केंद्रित और निर्धन पक्षधर बजट दे ही दिया, लेकिन हमने सड़कों पर किसानों के झुंड धरना-प्रदर्शन करते देखे। हमें लगा शायद यह किसान केंद्रित बजट का यशोगान करने का कोई नया तरीका है, लेकिन भारी कर्ज की गठरी पीठ पर लादे किसानों ने हमें बताया कि उनका धंधा लाभप्रद बनाने की बात केवल शब्दों की बाजीगरी थी। कहां है बेरोजगारी, समय के मसीहाओं ने हमारे साथ आंख-मिचौली खेलते हुए पूछा। हमने तो सभी बेकारों को स्वरोजगार का रास्ता दिखा दिया। और कुछ नहीं, तो इससे पकौड़े बेचने का धंधा शुरू कर सकते हैं। प्रसन्नता के अतिरेक में हमने कल्पना की कि इस देश में अब कोई बेकार नहीं रहा। सब पकौड़े तल कर उनकी बिक्री से अपना पेट पाल रहे हैं। हम घूमते हुए आगे निकले। एक मैदान में डिग्रीधारी पढ़े-लिखे लोगों की भीड़ लगी थी। हमने उनके पास जाकर पूछा- आज पकौड़े बेचने नहीं गए? आजकल पूरा देश इसी काम में लगा है। ‘नहीं, वह अपनी डिग्रियां लहराते हुए बोले- ‘हम सफेद कालर नौकरी करेंगे। चपरासी भर्ती हो रही है, हम सब पढ़े-लिखे डिग्रीधारी उसे पाने का सपना लेकर यहां आए हैं।’


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