भूत से डरें नहीं, वह तो बस भूत है

By: Jun 29th, 2019 12:02 am

इन तथ्यों को समझते हुए अपनी मनोभूमि को परिष्कृत एवं उत्कृष्ट बनाने की आवश्यकता है। भूत जो सचमुच भी होते हैं, वे मात्र अपने अतीत की अनुगूंज होते हैं। अपनी वासना-तृष्णा एवं आकांक्षा की आग से वे स्वयं ही जल रहे होते हैं। वे वस्तुतः अतीत की भूलों का फल भुगत रहे होते हैं और उनसे मुक्त होने के लिए छटपटा रहे होते हैं…

-गतांक से आगे…

यह व्यक्तित्व में विशिष्ट ऊर्जा का आकस्मिक उदय होना कहा जा सकता है। वही अपने समीपवर्ती क्षेत्र को प्रभावित करती है। इससे दर्शकों को लगता है, यहां कोई प्रेतात्मा विद्यमान है और अपने अस्तित्व का परिचय देने के लिए उलट-पुलट कर रही है। इन तथ्यों को समझते हुए अपनी मनोभूमि को परिष्कृत एवं उत्कृष्ट बनाने की आवश्यकता है। भूत जो सचमुच भी होते हैं, वे मात्र अपने अतीत की अनुगूंज होते हैं। अपनी वासना-तृष्णा एवं आकांक्षा की आग से वे स्वयं ही जल रहे होते हैं। वे वस्तुतः अतीत की भूलों का फल भुगत रहे होते हैं और उनसे मुक्त होने के लिए छटपटा रहे होते हैं। अभ्यास, कुतूहल या संस्कारवश वे अपनी गतिविधियों का प्रदर्शन करने को उद्यत होते भी हैं, तो उसमें डरने जैसी क्या बात है? वे तो दया के पात्र होते हैं और मुक्ति की कामना करते रहते हैं। जो अपने वर्तमान में जी रहा है, ऐसे मनुष्य को किसी के ‘भूत’ से डरना शोभा नहीं देता। वे बस ‘भूत’ ही तो हैं। अतृप्त आकांक्षाओं का उद्वेग मरने के बाद भी प्राणी को चैन नहीं लेने देता और वह सूक्ष्म शरीरधारी होते हुए भी यह प्रयत्न करता है कि अपने असंतोष को दूर करने के लिए कोई उपाय, साधन एवं मार्ग प्राप्त करे। सांसारिक कृत्य या उपयोग शरीर द्वारा ही हो सकते हैं। मृत्यु के उपरांत शरीर रहता नहीं। ऐसी दशा में उस अतृप्त प्राणी की उद्विग्नता उसे कोई शरीर गढ़ने की प्रेरणा करती है। अपने साथ लिपटे हुए सूक्ष्म-साधनों से ही वह अपनी कुछ आकृति गढ़ पाता है, जो पूर्व जन्म के शरीर से मिलती-जुलती किंतु अनगढ़ होती है। अनगढ़ इसलिए कि भौतिक पदार्थों का अभीष्ट अनुदान प्राप्त कर लेना, मात्र उसकी अपनी इच्छा पर ही निर्भर नहीं रहता। उसके लिए प्रकृति का सहयोग और ईश्वरीय विधि-व्यवस्था का समर्थन भी चाहिए। तीनों तथ्य मिलने पर ही परिपूर्ण शरीर मिलता है। किंतु मृतक को एकाकी प्रयत्नों तक ही सीमित रहना पड़ता है, अस्तु वह एक अपनी छोटी सामर्थ्य के अनुसार अनगढ़ शरीर ही रच सकता है। वह इतना ही बन पाता है कि बहुत प्रयत्न करने पर थोड़े समय के लिए दृश्य बन सके और कुछ हरकतें कर सकें अन्यथा अदृश्य स्थिति में ही अपना निर्वाह करता रहे। भूत अपनी इच्छा पूर्ति के लिए किसी दूसरे के शरीर को भी माध्यम बना सकते हैं। उसके शरीर से अपनी वासनाओं की पूर्ति कर सकते हैं अथवा जो स्वयं करना चाहते थे, वह दूसरों के शरीर से करा सकते हैं। कुछ कहने या सुनने की इच्छा हो तो वह भी अपने वशवर्ती व्यक्ति द्वारा किसी कदर पूरी करते देखे गए हैं।

                                      -क्रमशः

(यह अंश आचार्य श्री राम शर्मा

द्वारा रचित किताब ‘भूत कैसे होते हैं,

क्या करते हैं’ से लिए गए हैं)


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