भ्रमग्रस्त समाज में प्रकृति संरक्षण

By: Jun 10th, 2019 12:06 am

कुलभूषण उपमन्यु

अध्यक्ष, हिमालय नीति अभियान

बढ़ती आबादी और बढ़ती अनावश्यक भूख ने हालात बिगाड़ दिए हैं। सबसे जरूरी जीवन साधन प्राणवायु का प्रकृति जितना संशोधन कर सकती है,  उससे ज्यादा धुआं हम आकाश में विभिन्न गतिविधियों से छोड़ रहे हैं। फिर एक-दूसरे पर दोषारोपण करके अपने आप को बचाने की झूठी तसल्ली देते रहते हैं…

विश्व समाज आज तमाम वैज्ञानिक जानकारियों के बावजूद ऐसी भ्रमग्रस्त स्थिति में फंस गया है कि प्रकृति संरक्षण और पारिस्थितिकीय संतुलन के मामले में क्या करें, क्या न करें, करना तो है पर जनमानस को साथ कैसे ले चलें, इत्यादि दुविधाओं के कारण ठीक और गलत, करणीय और अकरणीय के बीच की रेखा धुंधली पड़ जाती है। कुछ लोग जानते हुए भी गलत निर्णय लेने के लिए वोटबैंक के दबाव में काम करने लगते हैं, तो कुछ विकास दर को बनाए रखने या बढ़ाने के लिए गलत निर्णय लेने लगते हैं। इसके लिए सबके पास अपने-अपने स्पष्टीकरण हैं। तर्क तो हमेशा ही दो धारी तलवार होता है, जिसको हर तेज दिमाग आदमी अपने हित में प्रयोग करने में सक्षम हो सकता है। जैसे कि तेज वकील एक झूठे मुकदमे को भी जीतने की क्षमता रखता है, इसलिए उसे मोटी फीस भी मिल जाती है और शौहरत भी। वह मुकदमा तो जीत जाता है, किंतु यह तो लगभग सभी जान जाते हैं कि झूठ की जीत हुई है। अब गांधी जैसा वकील तो इस दुनिया में मिलना दुर्लभ ही है, जो यह पता लगने पर कि मेरे मुवक्किल का पक्ष झूठा है और वह पैसे के तमाम लालच को छोड़ कर उस मुकदमे को लड़ने से यह कह कर इनकार कर दे कि मैं झूठे पक्ष की पैरवी नहीं कर सकता।  गांधी ने उस समय यह कहा था जब तक पर्यावरण विज्ञान का नाम तक पैदा नहीं हुआ था कि ‘प्रकृति के पास सबकी जरूरतें पूरा करने के लिए पर्याप्त साधन हैं, किंतु कुछ लोगों के लालच और अय्याशी के लिए कुछ भी नहीं है।’ आज हम कह सकते हैं कि पर्यावरण विज्ञान की समझ को कम से कम शब्दों में कहने के लिए इससे अच्छा कथन मिलना कठिन है। गांधी के पास यह समझ किसी वैज्ञानिक अध्ययन के कारण नहीं आई थी, बल्कि इस समझ का आधार खांटी भारतीय परंपरा, सनातन परंपरा की बारीक समझ में था।

भारतीय सनातन परंपरा में इस समझ का विकास हजारों वर्षों के अनुभव से पैदा हुआ था। अनुभव के विश्लेषण से उपजा ज्ञान ही विज्ञान का भी आधार होता है। इसलिए यह ज्ञान आज के वैज्ञानिक संदर्भों में भी सही साबित हो रहा है। इसी परंपरा ने हमें सिखाया है कि प्रकृति जड़ नहीं है, बल्कि जीवंत है। इसके कण-कण में आत्मा का निवास है। जब से मनुष्य के हाथ में ऊर्जा और मशीन की शक्ति आ गई है, तब से वह प्रकृति के संसाधनों का अनंत उपभोग करने की सामर्थ्य वाला बन गया है। अनंत उपभोग से अनंत संपत्ति पैदा करना बड़प्पन की निशानी हो गई है। इस कारण प्रकृति की स्वाभाविक विकास और पुनः अपनी क्षतिपूर्ति करते हुए सतत बने रहने की ताकत कम होती जा रही है। बढ़ती आबादी और बढ़ती अनावश्यक भूख ने हालात बिगाड़ दिए हैं। सबसे जरूरी जीवन साधन प्राणवायु का प्रकृति जितना संशोधन कर सकती है,  उससे ज्यादा धुआं हम आकाश में विभिन्न गतिविधियों से छोड़ रहे हैं। फिर एक-दूसरे पर दोषारोपण करके अपने आप को बचाने की झूठी तसल्ली देते रहते हैं। प्राणवायु तो राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय सीमाओं को नहीं जानती। आज इसी वनस्पति संपदा पर खतरा मंडरा रहा है। हजारों हेक्टेयर जमीन और जंगल खनन, बड़े बांधों, बड़ी सड़कों, आबादी के विस्तार की भेंट चढ़ रहे हैं। कुछ मजबूरियां भी हैं, फिर भी आखिर कोई सीमा तो बांधनी ही होगी, वरना हवा, पानी, और भोजन के बिना जीवन ही असंभव हो जाएगा, तो फिर विकास किसके लिए? आज की मौज-मस्ती के लिए भविष्य की पीढि़यों के जीवन को खतरे में डाल रहे हैं। उनके लिए मोटा बैंक बैलेंस तो छोड़ कर जाना चाहते हैं, किंतु सांस लेने योग्य शुद्ध वायु उनके लिए कैसे बचे, इसकी चिंता नहीं है। जितना बड़ा विकसित देश और आदमी, उतना ही ज्यादा प्रकृति विध्वंस। यह जो विरोधाभास हमारे जीवन में दृढ़ हो गए हैं, इनसे बाहर तो निकलना ही पड़ेगा। विकास विरोधी कहे जाने का खतरा उठा कर भी यह सच किसी को तो कहना ही पड़ेगा। असल में यह विकास विरोध है भी नहीं, बल्कि  विकास और प्रकृति संरक्षण के बीच उचित संतुलन साधने की बात है। इस बात को सभी को समझना चाहिए। सादगी तो जरूरी जीवन मूल्य रहेगा ही, ताकि कम से कम संसाधनों की जरूरत रहे, किंतु आज की सादगी सौ वर्ष पहले जैसी नहीं हो सकती। आज हमें विज्ञान के बल पर विकल्पों की खोज पर विशेष ध्यान देना होगा। आज सबसे ज्यादा समस्या ऊर्जा उत्पादन, पैकेजिंग, खनन, बड़े उद्योग पैदा कर रहे हैं। इनके बिना गुजारा भी नहीं है और इनके साथ जीवन चलाना भी संभव नहीं है, तो रास्ता यही है कि ऐसे विकल्प खोजे जाएं, जो प्रकृति को न्यूनतम हानि पहुंचाएं। जैसे ताप विद्युत की जगह सौर ऊर्जा, निजी वाहनों की भीड़ घटाने के लिए बढि़या सार्वजनिक परिवहन, नदियों और भू-जल में कोई भी प्रदूषक तत्त्व न जाए, इस बात का ध्यान रखना। वन रोपण पर जोर देना और फल, चारा, ईंधन, खाद, रेशा और दवाई देने वाले पेड़ लगाना, जो बिना काटे हर साल फसल के रूप में आमदनी देते रहें। इससे पेड़ खड़ा रह कर हवा, पानी, मिट्टी संरक्षण का कार्य करता रहेगा और समुदायों को आय के साधन भी देता रहेगा।

वन संरक्षण में आम आदमी को जोड़ने का यह सही तरीका हो सकता है। भारत वर्ष में वन क्षेत्र की निम्नतम सीमा क्षेत्र 33 फीसदी मानी गई है। उसका पालन होना चाहिए, किंतु बड़ी परियोजनाओं के लिए तो वन भूमि का आबंटन आसानी से हो जाता है और भूमिहीन आदिवासी या अन्य परंपरागत वनवासियों के लिए वन भूमि की कमी का बहाना बनाया जाता है। वन विभाग वनों के मालिक जैसा व्यवहार करता है और लोगों को जोड़ने की दिशा में कोई प्रयास नहीं करता, जिससे वनों के संरक्षण में लोगों की भागीदारी कम होती जा रही है। शहरी आबादी, उद्योग और कृषि में जल संसाधनों पर कब्जे की होड़ हो रही है, जिससे पेयजल संकट गंभीर होता जा रहा है। उद्योग पानी की मांग के साथ शेष बचे शुद्ध जल को प्रदूषित करने का भी काम करते हैं और पानी को दोहरा नुकसान पहुंचाते हैं। उद्योग भले ही विकास का इंजन हो, किंतु पानी को नष्ट करने की इजाजत का हकदार कदापि नहीं हो सकता। बड़ी जल परियोजनाओं के अनुभव के बाद हमें स्थानीय स्तर के विकेंद्रित समाधानों की ओर ध्यान देना होगा। नदियों में बहने वाला ठोस कचरा जल प्रदूषण का बड़ा कारण बन गया है। कचरे को निपटाने के प्रयास स्वच्छता अभियान में जोर पकड़ रहे हैं, किंतु समस्या यह है कि कचरे को इकट्ठा करके निपटाया कैसे जाए।

यहां-वहां डंपिंग स्थलों पर कचरा डाल देने के बाद उसमें आग लगाने से वायु प्रदूषण और जमीन में रिसाव से भू-जल तथा मिट्टी प्रदूषण होता है। अतः कचरे से बिजली बनाने के उन्नत तरीके, जिनमें वायु प्रदूषण का खतरा नहीं रहता है, अपनाया जाना चाहिए। यह एक गलत बहाना है कि विकास के लिए पर्यावरण का नुकसान तो झेलना ही पड़ेगा। हमें पर्यावरण मित्र विकास के मॉडल की गंभीरता से खोज करनी होगी और हिमालय जैसे संवेदनशील प्राकृतिक स्थलों के लिए तो विशेष सावधानी बरतनी चाहिए। सरकार ने हिमालय में विकास के लिए एक अथारिटी का गठन किया है। उसको पर्वतीय विकास की सावधानियों को लागू करने, खोजने में अग्रसर होना चाहिए। हिमालय भारत के पारिस्थितिकीय संरक्षण की रीढ़ है, यह बात जितनी जल्दी समझ लें, उतना ही अच्छा।


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