मिठाई की जगह दोस्तों को किताबें भेंट करें

By: Jun 2nd, 2019 12:04 am

राजेंद्र राजन

साहित्य का रिश्ता अभिरुचि से है। साहित्य में दिलचस्पी नहीं तो आप उसे जबरन क्यों पढ़ें? भारतेंदु ने जब खड़ी बोली यानी आज की हिंदी में साहित्य की रचना आरंभ की तो वह चमत्कार से कम नहीं था। उसके पूर्व साहित्य लोकभाषाओं यानी ब्रज, अवधी, मैथिली या भोजपुरी में उपलब्ध था। इस चमत्कार ने ‘चंद्रकांता संतति’ जैसे कालजयी उपन्यास की रचना की। यह करोड़ों पाठकों तक पहुंचा। रेलवे प्लेटफार्म पर पुस्तकों से सजे स्टाल्स से लोग नॉवल्स खरीदते और लंबी यात्राओं को आनंदमयी बना लेते। गुलशन नंदा स्कूल आफ लिटरेचर ने भी यही काम किया। सौ साल पहले प्रेमचंद खूब पढ़े जाते थे। भारतीय समाज का ग्राम्य परिवेश उनके उपन्यासों, कहानियों में जीवंतता के साथ धड़कता था। वे पात्र आज भी हमारे आसपास मौजूद हैं। लेकिन अब रेल में यात्रा करते वक्त लैपटॉप और मोबाइल खुलते हैं। पुस्तकें गायब हो चुकी हैं। सूचना व संचार क्रांति के अपने खतरे हैं। अपना बाजार है।

वह हमारी नैसर्गिकता को लील चुका है। मगर साहित्य को पढ़े जाने का विलाप बेमानी है। हिंदी साहित्य में तो पाठकों की बेसब्री से प्रतीक्षा है, पर बांग्ला, मलयालम, मराठी में लेखक पाठकों की आंख के तारे हैं। 2004 में कोलकाता विश्व पुस्तक मेले में 19 करोड़ की किताबें बिकी थीं जो कल्पना से परे व अविश्वसनीय लगता है। सार्थक, मर्मस्पर्शी और पाठक को भीतर तक झकझोर देने वाले साहित्य की मांग बरकरार है। ठीक ऐसे ही जैसे सत्यजीत रे और श्याम बेनेगल की फिल्मों का बाजार कभी मरा नहीं। पर आज श्रीलाल शुक्ल जैसा ‘राग दरबारी’ उपन्यास भी तो नहीं लिखा जा रहा। दोस्त बताते हैं कि वे पुस्तक मेलों से हजारों रुपए फूंक कर पुस्तकें घर लाते हैं, लेकिन कुछ पंक्तियां पढ़ने के बाद ही ऊबने लगते हैं।

हमारे प्राइवेट स्कूल अंग्रेजी सिखाने के लिए मरे जा रहे हैं, लेकिन वहां भी अंग्रेजी साहित्य दूर-दूर तक गायब है। कालेजों और विश्वविद्यालयों में पढ़ाने वाले अध्यापकों को ट्यूशन पढ़ाकर ‘धन’ बटोरने से फुरसत नहीं है। अगर सिलेबस की किताबें भी ठीक से पढ़ा दें तो गनीमत। पुस्तकालय खंडहरों में तबदील हो चुके हैं। अगर हम सच्चे पुस्तक प्रेमी हैं तो दोस्तों के घर मिठाई के डिब्बे ले जाने की बजाय किताबों के पैकेट ले जाएं। एक अच्छी पुस्तक रातों-रात हमारा जीवन बदल  सकती है।


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