विवेक चूड़ामणि
गतांक से आगे…
अतो विमुक्त्यै प्रसतेत विद्वान संन्यस्तबाह्यार्थसुखस्पृहः सन्।
संतं महांतं समुपेत्य देशिकं तेनोपदिष्टार्थसमाहितात्मा।।
इसलिए विद्वान संपूर्ण विषय भोगों की इच्छा त्यागकर संतशिरोमणि गुरुदेव की शरण में जाकर उनके उपदिष्ट विषय में समाहित होकर मुक्ति के लिए प्रयास करे।
उद्धरेदात्मनात्मानं मग्नं संसारवारिधौ।
योगारूढत्वमासाद्य सम्यग्दर्शननिष्ठया।।
और निरंतर सत्य वस्तु आत्मा दर्शन में स्थित होता हुआ योगारूढ़ होकर संसार सागर में डूबे हुए अपने आत्मा का आप ही उद्धार करे। (विदित हो कि शास्त्र, गुरु और ईश्वर की कृपा की अनुभूति उसी को होती है, जो स्वयं पर कृपा करता है)।
संन्यस्य सर्वकर्माणि भवबंधविमुक्त्ये।
यत्यतां पंडितैधीरैरात्माभ्यास उपस्थितैः।।
आत्माभ्यास में तत्पर हुए धीर विद्वानों को चाहिए कि वे संपूर्ण कर्मों को त्यागकर भव-बंधन की निवृत्ति के लिए प्रयत्न करें।
चित्तस्य शुद्धये कर्म न तू वस्तुपलब्धये।
वस्तुसिद्धिर्विचारेण न किंचित कर्मकोटिभिः।।
कर्म चित्त की शुद्धि के लिए है ही, वस्तुपलब्धि अर्थात विषय भोगों को प्राप्त करने के लिए नहीं। वस्तु सिद्धि तो विचार से होती है, करोड़ों कर्मों से भी कुछ नहीं हो सकता( यहां इस बात को स्पष्ट समझ लेना चाहिए कि मुक्ति का साधन आदिशंकराचार्य ने तत्त्वज्ञान को बताया है, कर्म को नहीं, कर्म तो बंधन का कारण है)।
सम्यग्विचारतः सिद्ध रज्जुतत्त्वावधारणा।
भ्रांत्योदितमहासर्पभयदुः खविनाशिनी।।
भलीभांति विचार से सिद्ध हुआ रज्जुतत्त्व का निश्चय( अर्थात यह रस्सी है, सर्प नहीं)ही भ्रम(सर्प है) से उत्पन्न हुए महान दुःख को नष्ट करने वाला होता है।
अर्थस्य निश्चयो दृष्टो विचारेण हितो हितोक्तितः।
न स्नानेन न दानेन प्राणायामशतेन वा।।
कल्याणप्रद उक्तियों( आगम सम्मत युक्तियों से ही ) द्वारा विचार करने से ही वस्तु का निश्चय होता देखा जाता है, स्नान, दान अथवा सैकड़ों प्राणायामों से नहीं।
कौन है अधिकारीह?
अधिकारिणमाशास्ते फलसिद्धिर्विशेषतः।
उपाया देशकालाद्याः संत्यस्मिन्सहकारिणः।।
विशेषतः अधिकारी को ही फल सिद्धि होती है, हो देश काल आदि उपाय भी उसमें सहायक अवश्य होते हैं।
अतो विचारः कर्त्तव्यो जिज्ञासोरात्मवस्तुनः।
समासाद्य दयासिंधु गुरुं ब्रह्मविदुत्तमम्।।
अतः ब्रह्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ दयासागर गुरुदेव की शरण में जाकर (अपने अहंकार का त्याग कर) जिज्ञासु को आत्मतत्त्व का विचार करना चाहिए।
मेधावी पुरुषो विद्वानूहापोहिविचक्षणः।
अधिकार्यात्मविद्यायामुक्तलक्षणलक्षितः।
जो बुद्धिमान हो, विद्वान हो और तर्क-विर्तक में कुशल हो(जो आत्मविश्लेषण एवं आसपास के प्रति जागरूक हो) ऐसे लक्षणों वाला पुरुष ही आत्मविद्या का अधिकारी होता है।
विवेकिनो विरक्तस्य शमादिगुणशालिनः।
मुमुक्षोरेव हि ब्रह्मजिज्ञासायोग्यता मत।।
जो सद्सद्विवेकी, वैराग्यवान, शम दमादि षट् संपत्तियुक्त और मुमुक्ष हो, वही वास्तव में ब्रह्मजिज्ञासा का अधिकारी होता है, उसे ही आत्मविद्या का अधिकारी समझना चाहिए।
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