स्वास्थ्य व्यवस्था को सुधारें

By: Jun 26th, 2019 12:06 am

डा. वरिंदर भाटिया

पूर्व कालेज प्रिंसीपल

 

उचित पोषाहार, समय पर भोजन और शुद्ध पानी नहीं मिलने के कारण बच्चे कुपोषित हो रहे हैं। कुपोषण के मामले में बिहार के आंकड़े दिल दहला देने वाले हैं। 2018 में जारी एनएफएचएस की रिपोर्ट के अनुसार बिहार में 50 फीसदी बच्चों को कुपोषण के परिणामस्वरूप बौनेपन का शिकार बताया गया है। रिपोर्ट के अनुसार बिहार राज्य में कुल 45.3 फीसदी बच्चे कुपोषित हैं। बिहार के 38 में से 23 जिलों में कुपोषण की स्थिति बेहद गंभीर है। इस रिपोर्ट के अनुसार पूरे देश में 80,00,000 बच्चे कुपोषित हैं, जिनमें से 20,00,000 बच्चे अकेले बिहार के हैं…

देश के नौनिहालों का बुरा स्वास्थ्य सुर्खियों में है। बाल मृत्यु के आंकड़े बता रहे हैं कि हमारी व्यवस्था बच्चों के स्वास्थ्य के प्रति उदासीन है। बिहार में दिमागी बुखार से होने वाली मौतों ने हम सब को हतप्रभ कर दिया था। बात यहीं पर खत्म नहीं हुई है, मिसाल के तौर पर मध्य प्रदेश में हजारों करोड़ खर्च होने के बाद भी कुपोषण हर 1000 में से 47 बच्चों को लील लेता है। यह राज्य नवजात बच्चों की कुपोषण के कारण मौत के मामले में पहली पायदान पर है, वह भी तब जब 2016 से 2018 तक कुपोषण मिटाने के नाम पर करीब 19 हजार करोड़ रुपए खर्च करने का दावा किया गया। उत्तर प्रदेश में पांच वर्ष तक के बच्चों में लगातार बढ़ रहे कुपोषण ने खतरे की घंटी बजा दी है। आंकड़ों के मुताबिक उत्तर प्रदेश में 50 लाख से ज्यादा बच्चे कुपोषण का शिकार हो चुके हैं। कुछ रिपोर्टों के अनुसार महाराष्ट्र में जहां एक तरफ बच्चे भुखमरी का शिकार हैं, वहीं दूसरी तरफ बच्चों के लिए सरकार की तरफ से भेजा जा रहा भोजन मुर्गियां खा रही हैं।

उचित पोषाहार, समय पर भोजन और शुद्ध पानी नहीं मिलने के कारण बच्चे कुपोषित हो रहे हैं। कुपोषण के मामले में बिहार के आंकड़े दिल दहला देने वाले हैं। 2018 में जारी एनएफएचएस की रिपोर्ट के अनुसार बिहार में 50 फीसदी बच्चों को कुपोषण के परिणामस्वरूप बौनेपन का शिकार बताया गया है। रिपोर्ट के अनुसार बिहार राज्य में कुल 45.3 फीसदी बच्चे कुपोषित हैं। बिहार के 38 में से 23 जिलों में कुपोषण की स्थिति बेहद गंभीर है। इस रिपोर्ट के अनुसार पूरे देश में 80,00,000 बच्चे कुपोषित हैं, जिनमें से 20,00,000 बच्चे अकेले बिहार के हैं। बिहार में यूनिसेफ के मिशन मानव विकास की सर्वे रिपोर्ट के अनुसार 15 से 49 वर्ष तक की 50 फीसदी महिलाओं में खून की कमी के कारण एनीमिया पाया गया है। सरकार की तमाम योजनाओं जैसे खाद्य सुरक्षा की गारंटी कानून, आंगनबाड़ी केंद्र पर संपूर्ण पोषाहार की व्यवस्था के बावजूद कुपोषण की हालत गंभीर है। देश के काफी राज्यों में बाल स्वास्थ्य की स्थितियां ठीक नहीं हैं। कुपोषण और मुनासिब स्वास्थ्य सुविधाओं का अभाव इसका मुख्य कारण है। भारत की जनसंख्या का 40 प्रतिशत 14 साल से कम के बच्चों का है। उसमें हर सौ बच्चो में से लगभग 12 बच्चे असल में पांच साल से कम उम्र के हैं। बीमारी और मौत छोटी उम्र के साथ ज्यादा हावी रहते हैं। 100 जीवित पैदा हुए बच्चों में से पांच की मृत्यु अपनी उम्र का एक साल पूरा करने से पहले ही हो जाती है। बच्चों की यह मृत्यु दर विकसित देशों की मृत्यु दर से काफी ज्यादा है। विकसित देशों में यह दर एक प्रतिशत से भी कम है। भारतीय बच्चों की लंबाई और वजन के पैटर्न और उनकी बीमारियों को देखें, तो हमें पता चलता है कि उनका स्वास्थ्य भी अच्छा नहीं है। करीब 40 प्रतिशत भारतीय बच्चों की वृद्धि ठीक नहीं हुई होती और वे कुपोषित होते हैं। भारत में बच्चों के खराब स्वास्थ्य और मौतों का कारण रहन-सहन के खस्ताहाल ही हैं। भारत के अधिकांश समुदायों में लड़कियों के लिए जन्म से ही और भी ज्यादा मुश्किल परिस्थितियां हैं। गर्भ में लड़की का पता चलते ही उसे गर्भपात कर निकाल देना और लड़की को जन्म के तुरंत बाद खत्म कर देना या बाहर कूडे़दान में फेंक देने की भी यहां काफी समस्या है। कुपोषण, बीमारी, देखभाल का अभाव और मौतें भी बच्चियों के मामले में ज्यादा देखने को मिलती हैं। इसी कारण से भारत में लिंग अनुपात यानी पुरुषों के मुकाबले महिलाओं या लड़कों के मुकाबले लड़कियों की संख्या कम है। बच्चों में बड़े स्तर पर बीमारियां होने के बावजूद यहां बच्चों के लिए स्वास्थ्य सेवाओं का अभाव है। ग्रामीण इलाकों के अधिकांश स्वास्थ्य कार्यकर्ता और निजी चिकित्साकर्मी बच्चों की स्वास्थ्य सेवाओं के लिए प्रशिक्षित नहीं हैं। खास बच्चों की देखभाल के लिए चलाए गए आंगनबाड़ी कार्यक्रम भी पूरक पोषण और टीकाकरण तक ही सीमित रहते हैं। इसके अलावा कई बच्चे घरों में ही पैदा होते हैं और नवजात शिशुओं की ठीक देखभाल भी नहीं होती है। भारत में 30 प्रतिशत बच्चों का जन्म के समय वजन कम होता है और उन्हें जिंदा रहने के लिए काफी संघर्ष करना पड़ता है। बाल स्वास्थ्य के प्रति ऐसी बेरुखी से ही कुपोषण खत्म नहीं हो रहा है। जब हम शिशु मृत्यु दर की बात करते हैं, तो बहुत जरूरी है कि किशोरी बालिकाओं, गर्भवती महिलाओं और बच्चों के मुद्दों को एक साथ देखा जाए। इन तीनों के मुद्दे को टुकड़े-टुकड़े में वर्गीकृत कर एकीकृत करना बहुत जरूरी है। हमारी प्लानिंग समुदाय केंद्रित नहीं है। सरकार मानकर चलती है कि लोग केवल पैसा मांगना चाहते हैं। जनमानस के स्वास्थ्य की बात की जाए, तो भारत में बीमारियों से मौत का आंकड़ा दिनोंदिन बढ़ रहा है। भारत में अब लगभग 62 प्रतिशत मौतें हार्ट डिसीज, कैंसर, डायबिटीज जैसी जीवनशैली से जुड़ी बीमारियों से हो रही हैं। कोई दो दशक पहले यह आंकड़ा 30.5 प्रतिशत था। मलेरिया, टीबी जैसे रोगों से मौतें आधी रह गई हैं। अभी कुपोषण के कारण देश में लगभग चार करोड़ बच्चे बौने हैं। भारत में लड़कियों की औसत लंबाई पांच सेमी और लड़कों की तीन सेमी बढ़ी। औसत हाइट बढ़ने की यह दर दुनिया में सबसे कम है।

वैसे भी आज 95 प्रतिशत बीमारियों का कारण सेहत के पंचतत्त्व- हवा, पानी, वन, भोजन और जीवनशैली की अनदेखी है। भारत में पिछले साल वायु प्रदूषण से 12 लाख लोगों की जीवनलीला खत्म हुई है। दि स्टेट ऑफ ग्लोबल एयर रिपोर्ट (2019) के मुताबिक इनमें से करीब 55 हजार मौतें दूषित हवा से होने वाली डायबिटीज के कारण हुईं। वायु में मिल रहे जहरीले कण शरीर में इंसुलिन पैदा करने की ताकत और रोगों से लड़ने की क्षमता को कम कर रहे हैं। इससे भूलने की बीमारी भी बढ़ रही है। पहले आमतौर पर यह बीमारी 65 वर्ष की आयु के बाद दस्तक देती थी, अब 45 वर्ष पर ही थाप सुनाई देती है। देश में 15 से 49 साल आयु वर्ग के 20 प्रतिशत लोग मोटापे के शिकार हैं। पिछले वर्षों में भारत में गलत खान-पान से बीमार होने के 10 करोड़ मामले सामने आए। इस कारण से हर साल 4.2 लाख मौतें हो रही हैं। तंबाकू, शराब और जंक फूड के साथ ही दूषित पानी से भी दिल की बीमारियां हो रही हैं। उद्योगों और खेती में केमिकल के निरंतर इस्तेमाल से भू-जल भी दूषित हो रहा है। देश के आधे जिलों में भू-जल में नाइट्रेट की मात्रा अधिक है। इस कारण से 23 करोड़ लोगों को पेट के कैंसर, स्नायु तंत्र, दिल की बीमारी का खतरा बढ़ गया है। भारत में लगभग 24 प्रतिशत लोग आर्सेनिक युक्त पानी पीने को मजबूर हैं। वैश्विक सर्वे कहते हैं पिछले चार दशक में दुनिया में करीब 500 महामारियां फैली हैं, जिनका सबसे बड़ा कारण जंगलों की कटाई है। मलेरिया, डेंगू, इबोला जैसी बीमारियां इसी कारण बढ़ी हैं।

भारत के ठंडे इलाकों में मलेरिया पैरासाइट सात से नौ माह तक अपनी विनाशलीला दिखाता है। अनुमान है 2030 तक यह पूरे साल बना रहेगा। ब्राजील में सिर्फ 4.3 प्रतिशत ज्यादा जंगल काटने से मलेरिया के मामले 50 प्रतिशत तक बढ़े हैं। भारत में भी पेड़ों की कटाई वृक्षारोपण से अधिक हो रही है। भारत में बीमारियों से होने वाली मौतों में करीब 62 प्रतिशत मौतें जीवनशैली रोग से हो रही हैं। हर चौथा व्यक्ति इसकी जद में है। इससे डिप्रेशन, डायबिटीज, ब्लड प्रेशर, मोटापा जैसी बीमारियां हो रही हैं। 6.5 प्रतिशत आबादी अवसाद में है। 22 से 25 साल आयु वर्ग की 65 प्रतिशत आबादी में अवसाद के लक्षण हैं। 10 में से एक महिला और सात में से एक पुरुष उच्च रक्तचाप से पीडि़त है। ऐसे हालात को देखते हुए महसूस किया जा रहा है कि देश में एक स्वास्थ्य क्रांति की जरूरत है, जिसमें सरकारें और स्वयंसेवी संगठन महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाएं।


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