किसकी बिसात पर नरसंहार

By: Jul 23rd, 2019 12:03 am

सोनभद्र नरसंहार के बाद सबसे पहले कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा ने पीडि़त परिवारों से मुलाकात की जिद की, करीब 27 घंटे धरने पर बैठी रहीं। अंततः प्रशासन पीडि़तों को गेस्ट हाउस में ही लेकर आया। प्रियंका उनसे गले मिल कर भावुक हुईं और पीडि़त परिवारों को आश्वस्त किया कि कांग्रेस उनकी लड़ाई लड़ेगी। उन्हें इनसाफ मिलेगा। प्रियंका के बाद मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को सोनभद्र जाना पड़ा और उन्होंने सौगातों की बौछार की। सरकार ने मुआवजे की राशि न केवल पांच लाख से बढ़ाकर 18.5 लाख रुपए की, बल्कि घायलों को भी 50 हजार के बजाय 2.5 लाख रुपए देने की घोषणा की। मुख्यमंत्री प्रवास के दौरान शुरुआती चेक भी बांटे गए। मुख्यमंत्री ने पीडि़तों को गांव में ही रहने की अपील की और न्याय का आश्वासन दिया। मुख्यमंत्री ने उम्भा गांव के प्रत्येक पीडि़त परिवार को आवास देने के साथ-साथ पुलिस चौकी, आंगनबाड़ी केंद्र, शौचालय, घरों में ईंधन गैस, राशन कार्ड और जूनियर हाई स्कूल आदि सुविधाएं मुहैया कराने की घोषणा भी की। इन तमाम गतिविधियों को सामान्य तौर पर ग्रहण नहीं किया जा सकता। ये ‘गिद्ध राजनीति’ का ही हिस्सा हैं। गिद्ध और लाशों का क्या संबंध होता है, सभी सहजता से जानते हैं। सोनभद्र कांड एक बर्बर नरसंहार था। 32 टे्रक्टरों पर करीब 300 हत्यारे गुंडों की भीड़ ही थी, जिसने मासूम और असहाय आदिवासी किसानों की लाशें बिछा दीं। लिहाजा यह भीड़ का नरसंहार भी था। यदि रिकॉर्ड खंगाला जाए, तो साफ हो जाएगा कि उस 90 बीघा जमीन पर देश की आजादी से पहले ही गोंड आदिवासी खेती करते रहे थे। बुनियादी तौर पर इस मामले में भी एक घोटाला, एक भ्रष्टाचार दफन है कि आखिर वह जमीन आदर्श सोसायटी के नाम कैसे की गई? नामांतरण सोसायटी के पक्ष में न होने के कारण एक आईएएस अधिकारी के परिजनों को कैसे बेची गई? उस अधिकारी ने सोनभद्र जिले के उम्भा गांव के प्रधान यज्ञदत्त को जमीन कैसे बेच दी? 1955 से 1989 तक के इन तमाम सवालों के गर्भ में कांग्रेस मौजूद रही है। कांग्रेस की मौजूदा महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा उस भ्रष्टाचार को खुरच कर बेनकाब करने जाना चाहती थीं या आदिवासियों की हत्याओं पर राजनीति करने…! आदिवासियों की पीढ़ी-दर-पीढ़ी उस जमीन पर खेती कर अपनी रोटी कमाती थी। उस आमदनी का भी नरसंहार किया गया है। इनसान का इनसान के जरिए नरसंहार…! ऐसे माहौल में कौन, किसके आंसू पोंछ सकता है? उस इलाके में कांग्रेस ‘शून्य’ है, बिलकुल साफ हो चुकी है। उत्तर प्रदेश की 80 लोकसभा सीटों में से मात्र रायबरेली की सीट पर ही सोनिया गांधी ने ‘जुगनू’ की तरह जीत हासिल की थी। विधानसभा में भी कांग्रेस के आधा दर्जन विधायक हैं। कांग्रेस का औसतन वोट आधार करीब 6.8 फीसदी ही बचा है। सवाल किया जा सकता है कि क्या प्रियंका गांधी कांग्रेस की ‘पुरानी जमीन’ को टटोलने की जद्दोजहद के मद्देनजर सोनभद्र जाना चाहती थीं? सोनभद्र प्रकरण ने गरीब किसान बनाम बड़े जमींदार और सामंतशाही की याद ताजा कर दी। स्पष्ट हो गया कि आज भी औसत किसान और आदिवासी ‘खाली हाथ’ हैं। बहरहाल उत्तर प्रदेश विधानसभा का सत्र जारी है। वहां सपा और कांग्रेस सदस्यों ने इस मुद्दे पर खूब शोर मचाया है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ सदन में अपना विस्तृत स्पष्टीकरण नहीं दे पाए, लेकिन त्वरित कार्रवाई के तौर पर उन्होंने मुख्य सचिव (राजस्व) की अध्यक्षता में जांच बिठा दी है, जो दस दिन में अपनी रपट सरकार को सौंपेगी। सपा और तृणमूल कांग्रेस के प्रतिनिधियों ने भी वहां जाने की नाकाम कोशिशें की हैं। चूंकि यह कोई सामान्य घटना नहीं, नरसंहार है, जो तूल पकड़ेगा और जिसका सियासी इस्तेमाल भी किया जाएगा। प्रियंका ने यही कोशिश की है। प्रियंका को जो सियासत करनी थी, उसके संकेत जरूर प्रसारित हुए हैं। देर रात तक वह धरने पर बैठी रहीं। कांग्रेस कार्यकर्ता भी जमा रहे और नारेबाजी करते रहे। सवाल यह है कि क्या कांग्रेस ऐसी कोशिशों के जरिए कुछ ‘राजनीतिक हासिल’ बटोर सकती है? मध्य प्रदेश, राजस्थान और पंजाब में भी बीते दिनों कुछ भूमि विवाद के मामले सामने आए, कुछ हत्याएं भी की गईं, लेकिन प्रियंका गांधी उन राज्यों के पीडि़तों के जख्म सहलाने नहीं गईं, क्योंकि वे कांग्रेस शासित राज्य हैं। राजनीति करना प्रियंका और कांग्रेस का भी अधिकार है, लेकिन सोनभद्र के शांत होने तक तो प्रतीक्षा की जा सकती थी। जांच रपट भी सामने आएगी। प्रियंका उसके बाद अपना राजनीतिक अभियान छेड़ सकती हैं। लाशों पर तो गिद्ध ही मंडराते हैं। कोई भी हो, इनसान ऐसे नरसंहार पर राजनीति क्यों करे?


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