कुमारहट्टी में कातिल कौन

By: Jul 16th, 2019 12:05 am

यह इमारत नहीं गिरी, दस्तूर और फितूर गिरा है। आकाश के छेद ने जमीन की दौलत भेद दी। कुमारहट्टी आज हमारे सामने श्मशान सरीखा एक खत बन गया, जहां पूरा परिवेश मुजरिम की तरह एक इमारत की ढहती विरासत के नीचे दबा कराह रहा है। हम इसे खबर की तरह समझें तो गिरते भवन के मलबे में कुछ लाशें गिन लेंगे, लेकिन यह अपराध यहीं खत्म नहीं होता और न यह अंतिम चेतावनी का सबब है। ऐसी कई अन्य इमारतें हर रोज खतरे की घंटियां बजाती हैं, लेकिन सुनने के लिए न व्यवस्था और न ही कायदे-कानून तैयार हैं। सोलन का ही जिक्र करें तो पिछले दशक की दास्तान में नवनिर्माण की आचार संहिता अपनी लापरवाही में कई आत्मघाती दुर्घटनाएं लिख चुकी है। बेशक परवाणू से शिमला के परिदृश्य के भीतर पर्यटन व शहरी विकास की गाथा में नई आर्थिकी सशक्त हुई, लेकिन इसकी कीमत कुछ मातम मनाकर अदा होने लगी है। कुमारहट्टी में एक परिवार की मेहनत ही मिट्टी नहीं हुई, बल्कि अभिशप्त हुई परिपाटी में चौदह लोगों की मौत का मातम भी सुना जा रहा है। ऐसे में गुनाह के निशान ढूंढेंगे, तो व्यवस्था का चेहरा बेनकाब होगा। दशकों पहले आया ग्राम एवं शहरी योजना कानून आज नाकाबिल और नाकामयाब विषय है, जबकि कमोबेश हर सरकार इसके जबड़े तोड़ने के लिए कारगर सिद्ध होना चाहती है। अभी भी प्रयास यह है कि शहरी विकास योजनाओं से दर्जनों गांव बाहर कर दिए जाएं। यह सब इसलिए होता है, ताकि कुमारहट्टी जैसी इमारतें जब सिर उठाती हैं, तो उनका मूल्यांकन न हो और न ही व्यवस्थित होने की परंपरा बने। अब वक्त आ गया है जब हिमाचल को गांव और शहर की अलग-अलग दीवारों के बजाय पूरे प्रदेश को नियोजित करने की व्यवस्था बनानी होगी। कानूनी छूट के कारण शहरी दायरे के बाहर ग्रामीण हलकों में अवैध तथा लापरवाह निर्माण, भविष्य की सबसे बड़ी चुनौती बन रहा है। भले ही एनजीटी ने कुछ हद तक हिमाचल के कान पकड़े हैं, लेकिन पहाड़ों को खोदने की सीमा व तरीका तय नहीं हो पाया है। नतीजतन परवाणू से शिमला के बीच की भौगोलिक परिस्थिति को नजरअंदाज करने का सामर्थ्य खूंखार होकर पिछले कई सालों से काले चिट्ठे लिख चुका है। इसके साथ सड़क विस्तार परियोजनाएं, सड़क निर्माण में गुणवत्ता तथा तकनीकी अभाव और प्राकृतिक जल निकास के रास्ते रोकता निर्माण हमें दुखद परिस्थितियों की ओर धकेल रहा है। यह केवल सोलन-शिमला की ही तस्वीर नहीं, बल्कि पूरे प्रदेश में प्राकृतिक जल निकासी पर अतिक्रमण करते निर्माण का अति विध्वंसकारी इरादा है, जो हर बरसात में मानव अस्तित्व को चुनौती दे रहा है। कुल्लू घाटी में ब्यास नदी से हुई छेड़छाड़, नयनादेवी मंदिर के पहाड़ को खोदती बुनियाद या हर शहर में व्यापार खोजती निगाह से हो रहा नवनिर्माण हो, चारों दिशाओं में पहाड़ की आबरू लुट रही है। सोलन शहर को अपार्टमेंट नगर बसाते-बसाते जो खरौंचे लगीं, उन्हें देखना होगा या वक्त रहते कुछ दीप जलाकर सोचना होगा कि हिमाचल का अपना निर्माण कोड क्या हो। रिटेंशन पालिसी के तहत हम किस हिमाचल का भविष्य बना रहे हैं या ऐसी कोताही में अपनी ही नींव के पत्थर हिला रहे हैं। जो भी हो कुमारहट्टी हादसे ने खून भरी इबारत लिखकर हमारे सामने कातिल होने के सबूत रख दिए हैं। कहीं तो कानून की तख्तियों को मिटाने की भूल हम कर रहे हैं। हो सकता है हम सुरक्षा के नाम पर मॉकड्रिल कर लें, लेकिन प्राकृतिक विनाश की सतह पर खडे़ वजूद को केवल तहरीर नहीं, कानून सम्मत होने की नसीहत चाहिए। बादलों का फटना, मौसम का रौद्र होना या भूकंपीय खतरों के बीच विकास के संतुलन को जिस तहजीब का इंतजार है, उसे कानूनों के तहत सुनिश्चित नहीं किया गया, तो कुमारहट्टी हादसे का भूत यूं ही बस्ती दर बस्ती मंडराता रहेगा।


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