ड्ढवास्तु देवता की पूजा कैसे करें

By: Jul 27th, 2019 12:05 am

वास्तु शब्द ‘वस निवासे’ धातु से निष्पन्न होता है, जिसे निवास के अर्थ में ग्रहण किया जाता है। जिस भूमि पर मनुष्यादि प्राणी निवास करते हैं, वास्तु कहा जाता है। इसके गृह, देवप्रसाद, ग्राम, नगर, पुर, दुर्ग आदि अनेक भेद हैं। वास्तु की शुभाशुभ-परीक्षा आवश्यक है। शुभ वास्तु में रहने से वहां के निवासियों को सुख-सौभाग्य एवं समृद्धि आदि की अभिवृभि होती है और अशुभ वास्तु में निवास करने से इसके विपरीत फल होता है…

-गतांक से आगे…

अतः इसमें लेशमात्र संशय को स्थान नहीं कि इस विश्व के सृष्टि-क्रम में माया प्रकृति की, जो कि स्त्री रूप है, सर्वत्र व्यापकता और प्रधानता है। उसका ईश्वर तक पर पूर्ण अधिकार है। ईश्वरी, प्रकृति या ऐश्वर्यशक्ति के ही कारण हम ईश्वर को ईश्वर कहते हैं। नाम भिन्न हैं, तत्त्व एक है। प्रकृति ईश्वर है और ईश्वर पराशक्ति प्रकृति है। ईश्वर की मातृ-भाव से उपासना करने से वे ही शक्ति रूप में शक्तिभावापन्न अपने भक्त के अनेक कष्टों का निवारण करते हुए उसे अपने में मिलाकर मुक्त कर देते हैं।

मायां तु प्रकृति विद्यान्मायिनं तु महेश्वरम।

तस्यावयवभूतैस्तु व्याप्तं सर्वमिदं जगत।।

चार मास बीतने पर रोगी मनुष्य रोग से मुक्त हो गया और उसके शरीर में बल तथा शक्ति आ गई। उसी समय उसका मनोरथ सफल हुआ।

वास्तुदेवता एवं वास्तुचक : पूजा-आराधना कैसे करें

वास्तु शब्द ‘वस निवासे’ धातु से निष्पन्न होता है, जिसे निवास के अर्थ में ग्रहण किया जाता है। जिस भूमि पर मनुष्यादि प्राणी निवास करते हैं, वास्तु कहा जाता है। इसके गृह, देवप्रसाद, ग्राम, नगर, पुर, दुर्ग आदि अनेक भेद हैं। वास्तु की शुभाशुभ-परीक्षा आवश्यक है। शुभ वास्तु में रहने से वहां के निवासियों को सुख-सौभाग्य एवं समृद्धि आदि की अभिवृभि होती है और अशुभ वास्तु में निवास करने से इसके विपरीत फल होता है। वास्तु शब्द की दूसरी व्युत्पत्ति-कथा वास्तुशास्त्रों तथा पुराणादि में इस प्रकार प्राप्त होती है :

वास्तु के प्रादुर्भाव के कथा-विषय में मत्स्यपुराण (अ. 251) में बताया गया है कि प्राचीन काल में अंधकासुर के वध के समय भगवान शंकर के ललाट से पृथ्वी पर जो स्वेदबिंदु गिरे, उनसे एक भयंकर आकृति वाला पुरुष प्रकट हुआ, जो विकराल मुख फैलाए था। उसने अंधकणों का रक्तपान किया, किंतु तब भी उसे तृप्ति नहीं हुई और वह भूख से व्याकुल होकर त्रिलोकी को भक्षण करने के लिए उद्यत हो गया। बाद में शंकर आदि देवताओं ने उसे पृथ्वी पर सुलाकर वास्तुदेवता के रूप में प्रतिष्ठित किया और उसके शरीर में सभी देवताओं ने वास किया, इसलिए वह वास्तु (वास्तुपुरुष या वास्तुदेवता) के नाम से प्रसिद्ध हो गया। देवताओं ने उसे गृहनिर्माणादि के, वैश्रवदेव बलि के तथा पूजन-यज्ञ यागादि के समय पूजित होने का वर देकर प्रसन्न किया।


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