ड्रेस कोड अनिवार्यता या मजबूरी

By: Jul 1st, 2019 12:03 am

प्रियंवदा

स्वतंत्र लेखिका

शिक्षा और शिक्षक कभी सम्मान से देखे जाते थे, परंतु कुछ समय से आधुनिकता के दौर में शिक्षक और शिक्षा दोनों के ही मायने बदल गए हैं। शिक्षा, जो समाज की धुरी है और शिक्षक, जिसे विभिन्न सम्म्मानित संज्ञाओं से अभिभूत किया जाता रहा है, वर्तमान समय में सबसे तिरस्कृत और अपमानित किए जा रहे हैं। समय के चक्र ने ऐसी कौन सी गति पकड़ ली कि ये दुर्दिन देखने को मिलने लगे। इस संदर्भ के लिए आइए एक नजर कुछ संजीदा घटनाक्रमों पर डालें। बात अगर शिक्षा की करते हैं, तो शिक्षा में गुणात्मकता लाने के लिए नए-नए प्रयोग किसी से छिपे नहीं हैं। कभी पास-फेल सिस्टम को बंद करके ग्रेड सिस्टम शुरू किया जाता है, तो कभी रूसा अस्तित्व में आता है। फिर रूसा में सुधार करने की कोशिशें रफ्तार पकड़ती हैं, लेकिन इस सारी प्रक्रिया में जो प्रयोग समूह है अर्थात बच्चे कहने के लिए तो उनके हित के लिए कार्य किए जा रहे हैं, पर सबसे ज्यादा मार भी वही झेल रहे हैं। मसलन छठी कक्षा से आठवीं कक्षा के छात्रों को आप फेल नहीं कर सकते। भले ही वह ई-ग्रेड में आए, लेकिन वह अगली कक्षा में बैठेगा। परिणामस्वरूप ऐसा छात्र उच्च कक्षा तक अध्यापक के लिए सिरदर्द बना रहता है। इसके साथ ही अगर अध्यापक उसे सही नहीं बना पाया, तो यह उस अध्यापक की असफलता है कि उसने उस बच्चे में सुधार क्यों नहीं किया। सरकारी स्कूलों में पढ़ा रहे अध्यापकों के बच्चे प्राइवेट संस्थानों में शिक्षा ग्रहण करते हैं। ऐसे कोई नियम-कानून नहीं, जिससे इस पर रोक लगाई जाए। कुकुरमुत्ते की तरह खुल रहे प्राइवेट संस्थान, जो विभाग और सरकार की देखरेख में फलफूल रहे हैं, उन पर नियंत्रण की आवश्यकता नहीं समझी जाती, क्योंकि यह तो सरकार की उदारीकरण की नीति का प्रमाण है। शिक्षकों की विभिन्न वैरायटी उपलब्ध है, वैरायटी कहना यहां तर्कसंगत लग रहा है। टैन्योर, एडऑक, स्वयं सेवक अध्यापक, कांट्रेक्ट, पीटीए, एसएमसी, पैरा, पैट, सीएंडवी, टीजीटी आर्ट्स, टीजीटी साइंस, पीजीटी, लैक्चरर आदि। इनमें से सरकार ने टैन्योर, एडऑक और स्वयं सेवक अध्यापक जैसी नीतियां बैकडोर एंट्री के तहत या अपने लोगों को फायदा पहुंचाने के लिए शुरू की थीं। समय के अनुसार इनके नाम बदले गए जैसे पीटीए, पैरा कांट्रेक्ट, एसएमसी आदि, लेकिन बंद नहीं किया गया। परिणामस्वरूप शिक्षक और शिक्षा का स्तर गिरा। वर्तमान समय में बीएड और टैट परीक्षा उत्तीर्ण करना अनिवार्य किया गया है। उसके बाद कमीशन उत्तीर्ण करके अध्यापक की नियुक्ति की जा रही है। ऐसे में जो पहले से बिना किसी परिश्रम से या बैकडोर एंट्री से अध्यापक बनाए गए हैं, इसमें उनका क्या दोष है, वे तो निरंतर प्रोमोशन के लाभ के अधिकारी हैं। नए नियुक्त अध्यापक की योग्यता यह है कि इतनी मेहनत के बाद भी उसे तीन साल के कांट्रेक्ट पर कार्य करना है। इससे बड़ा एक शिक्षक का अपमान और क्या हो सकता है? बात यहीं समाप्त नहीं हो जाती, अब तो बात यह है कि शिक्षकों के लिए ड्रेस कोड निर्धारित किए जाने की मांग चल रही है, क्योंकि शिक्षक अभद्र वस्त्र पहन कर आते हैं, छात्रों के साथ अभद्र व्यवहार करते पाए गए हैं। क्या ड्रेस कोड निर्धारित करने से इन सब गतिविधियों पर नियंत्रण किया जा सकेगा? जो व्यक्ति ऐसे कार्यों में लिप्त पाए गए हैं, वे चाहे शिक्षा विभाग से हैं या अन्य किसी विभाग से, उनके लिए उचित दंड का प्रावधान किया जाना चाहिए। वस्त्रों पर नियंत्रण करके मानसिकता बदली नहीं जा सकती। कोई भी अध्यापक अपनी गरिमा को ताक पर रख कर कार्य नहीं करता। वह छात्रों के समक्ष एक उदाहरण और आदर्श होता है, इसलिए उसका आपत्तिजनक कपड़े पहन कर जाने का तो प्रश्न ही पैदा नहीं होता, लेकिन जो इसके अपवाद हैं, सरकार और विभाग को उनकी ओर ध्यान देना चाहिए। साथ ही यह भी देखना चाहिए कि ऐसे लोगों की नियुक्ति शिक्षा विभाग में हो कैसे गई? यदि ऐसे अपवादों के कारण पूरे शिक्षक समाज को कटघरे में खड़ा कर दिया जाए, तो सरकार व विभाग को न्याय की पट्टिका हटा देनी चाहिए। पर, हां यदि ऐसे ड्रेस कोड सम्मान की दृष्टि से लगाए जाते, तो शायद इसे संपूर्ण शिक्षक समाज सहर्ष स्वीकार करता। इतिहास गवाह है कि शिक्षकों का अपमान करने वाला राष्ट्र विकास की सीढि़यां नहीं चढ़ सकता।


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