प्रेम और भाईचारे का उत्सव चंबा का मिंजर मेला 

By: Jul 27th, 2019 12:07 am

देवभूमि हिमाचल में देवी-देवताओं का वास कहा जाता है। यहां की संस्कृति और परंपराएं काफी अलग हैं। यूं तो प्रदेश भर में बहुत से मेले, त्योहार और उत्सव मनाए जाते हैं, लेकिन शिवभूमि चंबा का मिंजर मेला प्रदेश में ही नहीं, बल्कि पूरे देश भर में प्रसिद्ध है। चंबा शहर राजा साहिल वर्मन द्वारा उनकी बेटी राजकुमारी चंपावती के कहने पर रावी नदी के किनारे बसाया गया था। इसीलिए इस शहर का नाम चंबा रखा गया था। इस मेले को अंतरराष्ट्रीय मेले का दर्जा दिया गया है। यह मेला श्रावण मास के दूसरे रविवार को शुरू होकर सप्ताह भर चलता है। इस बार मिंजर मेला 28 जुलाई से शुरू होगा और 4 अगस्त तक चलेगा। चंबा जनपद में मनाया जाने वाला मिंजर मेला वास्तव  में कुंजड़ी-मल्हार के गायन का पर्व है। कुंजड़ी-मल्हार  शास्त्रीय संगीत पर आधारित चंबा का वह लोकगीत है, जो केवल बरसात के मौसम में मिंजर में ही गाया जाता है। स्थानीय लोग मक्की और धान की बालियों को मिंजर कहते हैं। इस मेले का आरंभ रघुवीर जी और लक्ष्मीनारायण भगवान को धान और मक्की से बनी मिंजर या मंजरी और लाल कपड़े पर गोटा जड़े मिंजर के साथ एक रुपया, नारियल और ऋतुफल भेंट देकर किया जाता है। इस मिंजर को एक सप्ताह बाद रावी नदी में प्रवाहित किया जाता है। मक्की की कौंपलों से प्रेरित चंबा के इस ऐतिहासिक उत्सव में मुस्लिम समुदाय के लोग कौंपलों की तर्ज पर रेशम के धागे और मोतियों से पिरोई गई मिंजर तैयार करते हैं, जिसे सर्वप्रथम लक्ष्मीनाथ मंदिर और रघुनाथ मंदिर में चढ़ाया जाता है और इसी परंपरा के साथ मिंजर महोत्सव की शुरुआत भी होती है। इस मेले की उत्पत्ति को लेकर कई लोक मान्यताएं प्रचलित हैं। एक मान्यता के अनुसार 10वीं शताब्दी में रावी नदी चंबा नगर में बहती थी और उसके दाएं छोर पर चंपावती मंदिर एवं बाएं छोर पर हरिराय मंदिर स्थित था। उस समय चंपावती मंदिर में एक संत रहते थे, जो हर सुबह नदी पार कर हरिराय मंदिर में पूजा -अर्चना किया करते थे। चंबा के राजा और नगरवासियों ने संत से हरिराय मंदिर के दर्शनार्थ कोई उपाय तलाशने का निवेदन किया। तब संत ने राजा और प्रजा को चंपावती मंदिर में एकत्रित होने के लिए कहा और बनारस के ब्राह्मणों की सहायता से एक यज्ञ का आयोजन किया जो सात दिन तक चला। ब्राह्मणों ने सात विभिन्न रंगों की एक रस्सी बनाई, जिसे मिंजर का नाम दिया गया। जब यज्ञ संपूर्ण हुआ, तो रावी नदी ने अपना पथ बदल लिया और हरिराय मंदिर के दर्शन संभव हुए। एक अन्य मान्यता के अनुसार जब चंबा के राजा साहिल वर्मन ने कांगड़ा के राजा को पराजित किया, तो नलोहरा पुल पर स्थानीय लोगों ने उन्हें गेहूं, मक्का और धान के मिंजर और ऋतुफल भेंट करके खुशियां मनाई थीं और यहीं से मिंजर मेले की शुरुआत हो गई। शाहजहां के शासनकाल के दौरान सूर्यवंशी राजा पृथ्वी सिंह रघुवीर जी को चंबा लाए थे। शाहजहां ने मिर्जा साफी बेग को रघुवीर जी के साथ राजदूत के रूप में भेजा था। मिर्जा साहब जरी गोटे के काम में माहिर थे। चंबा पहुंचने पर उन्होंने जरी की मिंजर बना कर रघुवीर जी, लक्ष्मीनारायण भगवान और राजा पृथ्वी सिंह को भेंट की थी। तब से मिंजर मेले का आगाज मिर्जा साहब के परिवार का वरिष्ठ सदस्य रघुवीर जी को मिंजर भेंट करके करता है। इससे सिद्ध होता है कि चंबा और संपूर्ण भारत धर्म निरपेक्ष था। सदियों पुरानी परंपरा के अनुसार आज भी मिर्जा परिवार के सदस्यों द्वारा मिंजर तैयार कर भगवान रघुवीर को अर्पित की जाती है, जिसके बाद ही विधिवत रूप से मिंजर मेले का आगाज होता है और मौजूदा समय में भी इस परिवार का वरिष्ठ सदस्य इस परंपरा को पूरी निष्ठा के साथ निभा रहा है। मिंजर मेले में पहले दिन भगवान रघुवीर जी की रथ यात्रा निकलती है और इसे रस्सियों से खींचकर चंबा के ऐतिहासिक चौगान मैदान तक लाया जाता है, जहां से मेले का आगाज होता है। भगवान रघुवीर जी के साथ आसपास के 200 से ज्यादा देवी-देवता भी वहां पहुंचते हैं। मिर्जा परिवार सबसे पहले मिंजर भेंट करता है। रियासत काल में राजा मिंजर मेले में ऋतुफल और मिठाई भेंट करता था लेकिन अब यह काम प्रशासन करता है। उस समय घर-घर में ऋतुगीत और कूंजड़ी-मल्हार गाए जाते थे। अब स्थानीय कलाकार मेले में इस परंपरा को निभाते हैं। मिंजर मेले की मुख्य शोभायात्रा राजमहल अखंड चंडी से चौगान से होते हुए रावी नदी के किनारे तक पहुंचती है। यहां मिंजर के साथ लाल कपड़े में नारियल लपेट कर एक रुपया और फल मिठाई नदी में प्रवाहित की जाती है। विभाजन के बाद पाकिस्तान गए लोग भी रावी नदी के किनारे मिंजर प्रवाहित करते हैं और कूंजड़ी-मल्हार गाते हैं। आजादी के बाद मिंजर विसर्जन के दौरान सिर्फ  रघुनाथ जी की पालकी ही मिंजर यात्रा के साथ चलती थी, लेकिन बाद में प्रशासन ने स्थानीय देवी-देवताओं को भी इस यात्रा में शामिल करने की इजाजत दे दी। ऐतिहासिक मिंजर मेला हिंदू-मुस्लिम एकता व भाईचारे का प्रतीक है। इतना समय बीत जाने और बदलाव आने के कारण भी इसकी बहुत सी परंपराएं अभी तक जिंदा हैं। मिंजर मेले में लोग खास तरह के वस्त्र पहन कर पहुंचते हैं। इस मेले में हाथ से बना सामान काफी बिकता है जैसे चंबा रूमाल, चंबा चप्पल जो कि चंबा की विशेषता है। इसके अलावा और भी वस्तुओं का व्यापार होता है।      

– प्रवीण कुमार सहगल, फरीदाबाद


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