प्रेम विवाह और परिवार का सम्मान

By: Jul 24th, 2019 12:06 am

कंचन शर्मा

लेखिका शिमला से हैं

 

मुझे नहीं लगता कि किसी भी परिवार, माता-पिता को अपनी बेटियों के प्रेम करने पर आपत्ति होती है, लेकिन वे इस आशंका से जरूर घबरा जाते हैं कि न जाने लड़का और उसका परिवार कैसा होगा। हालांकि ऐसा नहीं है कि अरेंज मैरेज में लड़कियां सदा सुखी रहती हैं। दहेज प्रथा, घरेलू हिंसा व मानसिक प्रताड़ना की इस देश की हर दूसरी लड़की शिकार है, यह एक अलग विषय है। यह भी सही है कि बहुत बार प्रेम में परिवार, पिता विलेन भी बने हैं, मगर अब समय बदला है। माता-पिता अपने बच्चों की पसंद को अपनाने लगे हैं, लेकिन फिर भी उन्हें बेटी के भविष्य को लेकर ठोक बजाकर देखने का सामाजिक हक है…

ऋग्वेद में ‘पिता’ शब्द संतति उत्पन्न करने की जगह शिशु के रक्षक के अर्थ में अधिक व्यवहारित हुआ है। अग्नि की तुलना पिता से की गई है। पिता अपने जीवन में दो बार मरता है। एक जब वह मरता है, तब और एक तब जब उसकी बेटी घर से भागकर शादी कर लेती है। उसके बाद वह तब तक मरता रहता है, जब तक वह अंततः मर नहीं जाता। कितने ही वर्ष वह नजर व गर्दन उठाकर समाज में चल नहीं पाता। उसकी कड़क आवाज भरभरा जाती है और अगर वह सामाजिक कार्यों में लिप्त हो, तो समाज, दुश्मनों व प्रतियोगियों के बीच हंसी का पात्र बन जाता है। घर में बड़ी लड़की कुंवारी हो, तो उस पर भी आफत। लोग कहने से नहीं चूकते कि अब तो उसकी शादी मुश्किल है, उसने कोई अपराध किया हो या फिर समाज यह भी लांछन लगाता है कि बड़ी की शादी नहीं हो रही थी, तो छोटी के पास घर से भागकर शादी करने के अलावा कोई चारा नहीं था। चीजें सामान्य हो भी जाएं, तो भी परिवार जिंदगी भर इस अपमान के दंश को भूल नहीं पाता।

कितनी ही लड़कियां इस चक्कर में लुट जाती हैं, सड़क पर आ जाती हैं, बर्बाद हो जाती हैं। इतना दुख व शर्म परिवार, लड़के के भागकर शादी करने में महसूस नहीं करता, जितना कि घर से भागी हुई लड़की के लिए करता है। भले ही मोटे तौर पर लड़का- लड़की के बीच यह व्यवहार पक्षपात लगता है, लेकिन इसके पीछे अनेक सामाजिक कारण हैं।  प्राचीन समय में हमारे समाज में स्त्रियों को स्वयं अपना वर चुनने की परंपरा थी, जो भरे दरबार में शान से हाथ में माला लिए अपना वर चुनती थीं। सामान्य परिवारों में भी कन्याओं को अपना वर चुनने की आजादी थी, मगर धीर-धीरे विदेशी आक्रमणकारियों, आतताइयों, लुटेरों ने जब भारत की खोज कर इसके वैभव को लूटना शुरू किया, तो साथ में इन बेरहमों ने आर्यावर्त की बेटियों की अस्मिता को भी लूटना शुरू कर दिया। देश की बेटियां लुटेरों के हरम में यौन दासियों की तरह घुट-घुटकर मरती रहीं। लुटेरों ने बेटियों व स्त्रियों की इज्जत से खेलना व उनके साथ बेरहमी से पेश आना जैसे अपना अधिकार मान लिया था। यहां तक ब्रिटीशर्ज ने भी यही किया। यह वह दौर था, जिसने देश के पिता व भाइयों को अपनी बहन-बेटियों को बचाने के लिए उन्हें घर के अंदर, पर्दे के पीछे खदेड़ना पड़ा और अपनी बहन-बेटियों की आबरू बचाना हर पिता, भाई के लिए उसके सम्मान का प्रश्न बन गया। आज भी वही स्थिति है संभवतः आज के आधुनिक युग में भी जस का  तस है, क्योंकि सम्मान की परिभाषा किसी भी युग में बदली नहीं है, चाहे हम कितना भी आधुनिक होने का डंका बजा लें। अगर ऐसा न होता, अनेक रानियां, महारानियां जौहर न करतीं, इतिहास साक्षी है। यकीनन आत्मसम्मान व परिवार के सम्मान का पलड़ा प्रेम से सदा भारी रहता है। मुझे नहीं लगता कि किसी भी परिवार, माता-पिता को अपनी बेटियों के प्रेम करने पर आपत्ति होती है, लेकिन वे इस आशंका से जरूर घबरा जाते हैं कि न जाने लड़का और उसका परिवार कैसा होगा। हालांकि ऐसा नहीं है कि अरेंज मैरेज में लड़कियां सदा सुखी रहती हैं। दहेज प्रथा, घरेलू हिंसा व मानसिक प्रताड़ना की इस देश की हर दूसरी लड़की शिकार है, यह एक अलग विषय है। यह भी सही है कि बहुत बार प्रेम में परिवार, पिता विलेन भी बने हैं, मगर अब समय बदला है। माता-पिता अपने बच्चों की पसंद को अपनाने लगे हैं, लेकिन फिर भी उन्हें बेटी के भविष्य को लेकर ठोक बजाकर देखने का सामाजिक हक है और जहां बच्चों को स्वयं पता है कि कहीं न कहीं उनकी पसंद उनके परिवार के मानकों पर खरी नहीं उतरती, तो वे भागकर शादी कर लेते हैं। लेकिन अपनी मर्जी करने के बाद उन्हें इस तरह पिता की पगड़ी नहीं उछालनी चाहिए। आज जिस तरह देश के हालात हैं, बलात्कार, एसिड अटैक, नशा, युवाओं द्वारा पैसे कमाने के शार्टकट, शादी के झांसे में लड़कियों को फंसाकर सामूहिक बलात्कार करवाना या फिर यौन पिपासा भर जाने पर उसे मां बनाकर दर-दर की ठोकरें खाने को छोड़ देना, रेड लाइट एरिया में बेच देना, यहां तक कि विदेशों में तस्करी कर उन्हें बेच देना, क्या नहीं हो रहा है लड़कियों के साथ।

ऐसे में माता-पिता लड़कियों को समझाएंगे नहीं, तो और क्या करेंगे। लड़की का पिता अगर रसूखदार, पैसे वाला व सामाजिक क्रियाकलापों से जुड़ा हो, तो अपनी बेटियों के प्रति उसका भय और भी ज्यादा बड़ा होता है, क्योंकि उसके कार्यक्षेत्र का कैनवास एक सामान्य पिता से बहुत बड़ा होता है। यह बात कोई भी घर से भागने वाला प्रेमी युगल तब समझता है, जब वह स्वयं लड़की का पिता बनता है, बल्कि वह अपनी बेटी के लिए और भी ज्यादा सख्त होता है, क्योंकि वह डरता है कि कहीं उसकी बेटी ने भी वही किया, तो समाज कहेगा कि वक्त लौटकर थप्पड़ जरूर मारता है।

हां, समाज में शादियों के नाम पर ऑनर किलिंग जैसी कुत्सित विचारधारा भी है, जिसका मैं समर्थन नहीं करती, न ही जाति को लेकर हुए विवादों का मैं समर्थन करती हूं, लेकिन हर बेटी को अपने परिवार की मान-मर्यादा, उसकी ऊंचाई, उसके मान-सम्मान व सामाजिक रुतबे का पूरा-पूरा एहसास होता है।  मुझे अफसोस होता है मीडिया की इस तरह की पत्रकारिता पर, जो इसी समाज का हिस्सा होते हुए भी इस समाज के नियम, कायदे, परिवार की मान-मर्यादा को दरकिनार करते हुए ऐसे प्रकरण को सुर्खियों पर लाते हैं। एक मजबूर पिता के रुदन पर पत्रकारिता की रोटियां सेंकने में लगे हैं। मैं समझती हूं कि वह मजबूर पिता बेटी की सुरक्षा के लिए मन ही मन दुआ करता होगा कि अगर उसे कहीं कुछ हुआ, तो इल्जाम उसी के सिर पर आएगा। सामाजिक कार्यकर्ता, एक लीडर, समाज में सुधार की आकांक्षा से समाज में दिन रात उठने-बैठने वाला पिता क्या कभी कह भी पाएगा ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’।


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