लक्ष्यों के जंगल में पौधारोपण

By: Jul 23rd, 2019 12:04 am

बरसात में टहलते आवरण ने खुद को ढांपने की कोशिश की और आंकड़ों की जड़ों ने जंगल में कुछ और पेड़ गाड़ दिए। यह दृश्य हर बार की तरह उम्मीदों से भरे सरकारी आंगन में आंकड़े लिख रहा है और हिमाचल पच्चीस लाख नए पौधों का गुलदस्ता इस बार भी जंगल को सौंप देगा। हर साल कमोबेश एक जैसी कसरतों में ‘बोए पेड़ बबूल के’ में ‘आम कहां से होए’ के यथार्थ में यथार्थवादी होने का पैमाना है। यह दीगर है वन महोत्सव का शृंगार करती नर्सरियां हमेशा जवान रहती हैं, लेकिन जंगल की नीयत पर शक होता है। उन पौधों पर भी संदेह जो अपनी उम्र के आंकड़े वन महोत्सव को नहीं सौंप पाते। सारा प्रदेश पौधारोपण की महफिल बन जाता है और जंगल में शोर मच जाता है जब वीआईपी कदम पहुंचते हैं, लेकिन कोई यह नहीं बताता कि जो पिछले साल रोपे उनमें कितने पेड़ बने। मात्र कुछ समय के अभियान से पौधारोपण की तहजीब कितनी सुधरती है इसका अंदाजा तो नहीं, लेकिन जंगल के जलने का दस्तूर लंबे समय तक आमादा रहता है। बेशक जंगल में पेड़ों की आबादी बढ़नी चाहिए, लेकिन नागरिकों के आसपास कौन से पेड़ खड़े रहें यह भी तो जिंदगी का पैमाना बने। जिन जंगलों ने मानव बस्ती को आतंकवादी बंदर दिए या जहां से भागे वन्य प्राणियों ने खेत उजाड़ दिए, क्या इस तथ्य पर पौधारोपण के फायदों की कोई नई फेहरिस्त तैयार हो रही है या यह सिलसिले यूं ही छाती ठोंकते रहेंगे। गांव से शहर होते हिमाचल ने पौधारोपण कितना किया या हर नींव ने कितने उखाड़ दिए पौधे, इसका जिक्र वन महोत्सव करे और हर पेड़ के बदले नया पेड़ जमीन पर धरे, तो प्रकृति नजदीक रहेगी। बावजूद इसके कि हर साल लाखों पेड़ सूचनाओं की तख्तियों पर दर्ज होते हैं, लेकिन बस्तियों के समीप इनका सन्नाटा है। प्रदेश की राजधानी के ही कुछ इलाकों में नंगी पहाडि़यां शिकायत करती हैं, पेड़ की जगह कंकरीट ने खुद को जंगल होने का सबूत बना लिया, तो पूरे प्रदेश की प्रगति से चस्पां प्रश्नों का उत्तर किस जंगल में ढूंढे। कम से कम चीड़ का जंगल तो अब जीवन का अभिप्राय नहीं रहा, इसलिए हर पौधारोपण से इसके विकल्प का समाधान पूछा जाएगा। जंगल में चीड़ ने जो बसाया, उसका हर्जाना न जाने कितने जीव-जंतुओं तथा औषधीय पौधों ने बर्बाद होकर चुकाया। वनौषधियों को फिर से संवारने का वन महोत्सव चाहिए या वह तमाम पौध जंगल में चाहिए जो कभी काफल बन मंडी के बाजार को अपने रंग से भर देती है या आयुर्वेद के संरक्षण की प्रतिज्ञा पूरी करती है। आश्चर्य यह कि वन विभाग की कोई ऐसी नीति या कार्यक्रम नहीं, जिसके तहत सामाजिक संरक्षण में पौधारोपण परवान चढ़े। आज भी हिमाचल में ऐसी कई हस्तियां हैं, जो अपने स्तर पर पौधारोपण के जरिए युग का संरक्षण कर रही या भारतीय मूल्य व परंपराओं की रक्षा में अग्रसर हैं। पीपल और बरगद के पेड़ों के अलावा कुछ प्रतिष्ठित हिमाचली नागरिकों ने चिनार से काफी और चंदन जैसे पौधे उगाकर हवाएं बदली हैं। पेड़ों के आदान-प्रदान में वन विभाग को जंगल से खेत और मानव बस्ती तक पौधे उगाने की प्रासंगिकता बढ़ानी होगी। वन विभाग केवल जंगल के औचित्य में सफल नहीं होगा, बल्कि इसे पारंपरिक जीवन के मूल्यों, पेड़ से निकली आस्था, आयुर्वेद के संरक्षण, जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों और प्रकृति के साथ मानव संतुलन के नए अध्यायों में विरासत जोड़नी है। किन्नौर की परंपराओं में चिलगोजे से निकली आर्थिकी को वन अनुसंधान की जरूरत है, ताकि खत्म होती पौधों की प्रजाति में कभी तो नया प्रसार हो। विडंबना यह है कि वन महोत्सव के लक्ष्यों में अनेक वन, औषधीय, वाणिज्यिक तथा पुष्प पेड़ों की प्रजातियां लुप्त हो गईं या कुछ समय में हो जाएंगी, लेकिन यह चिंता दिखाई नहीं देती। सियासी प्रभाव से आज भी जंगल की जमीन पर अतिक्रमण जारी है, तो शहरी आबादी में कटते पेड़ को विनाश के बजाय प्रगति का चिन्ह मान लिया। पुरानी सड़कों के किनारे आज भी फूल व फलदार पौधे पिछले सौ सालों से अस्तित्व का जिक्र करते हैं, लेकिन अब सड़क के किनारे कोई न कोई दुकान उगती है-पौधा नहीं।


Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also,  Download our Android App