विष्णु पुराण

By: Jul 27th, 2019 12:05 am

वैष्णवोऽशः परः सर्यों यौऽन्तज्यतेतिरसम्प्लवम्।

अमिधायक ऊंकारतस्य तत्प्रेरकः परः।

तेन सम्प्रेरित ययेतिरोङ्गारेनाथ दीप्तिमत्।

दहत्य शेषरक्षांसि मन्देहाख्यानिताम्ञ वै।

तस्मान्नोल्लंगनं कार्य सन्ध्योपासनाकर्मणिः।

स हंति सूर्य सध्नयातानोपास्ते कुरुते तु यः।

ततः प्रयाति भगवान्व्रह्मणैरभिक्षिः।

बालखिल्यादिभ्रश्चैव जगतः पालनोद्यतः।

काष्ठा निमेषा दश पञ्च चैवत्रिशच्च काष्ठा गणयेत्कला च।

त्रिशत्कलचैव मवेन्मुहुर्तस्तौस्त्रिशता रात्र्यह्ननी समेत।

हृसवृद्धो त्वहर्भोगौर्दिवसाना यथाक्रमस।

सन्ध्यामुहुर्तमात्रा व हृसवृद्धयोः समास्मतः।

रेखाप्रमुत्यथादित्ये त्रिमूहुर्तमते रवो।

प्रातः स्मृतस्ततः कालो भार्गश्चहन च पञ्चमः।

तस्मात्प्रातस्तानात्कालत्विमुहूर्तत्तु सङ्गवः।

मध्याह्नस्त्रिमुहूर्तस्तु तस्मात्कालात् सङ्गवात।

तस्मान्माध्याह्निकात्कालाद्पराह्णा इति स्मतः।

त्रय व मुहुर्तास्तु कालागः स्मृतो बुधैः।

अपराह्णे व्यतीत तु काला सायन्ह्ने एब च।

दशपञ्चमुहुर्ता वै मुहूर्तास्त्र एव च।

सूर्य भगवान विष्णु का अंश तथा विकार ही अंतर्ज्योति है। प्रणव उसका वाचक होने से वह उसे उन राक्षसों के विनाशार्थ अत्यंत प्रेरणा करता है। उसी प्रणव की प्ररेणा से वह ज्योति अत्यंत प्रदीप्त होकर उन मंदहा सभी राक्षसों का भस्म करने में समर्थ होती है। इसलिए संध्योपासन कर्म का सभी उल्लंघन करना अनुचित है। संध्योपासन करने वाला पुरुष सूर्यघाती माना गया है। फिर भगवान सूर्य वाल्याखिल्या ऋषियों से रक्षित होते हुए जगत के पालन में प्रवृत्त होेकर जाते हैं। पंद्रह निमेष की एक काष्ठ और तीस काष्ठ की एक कला होती है। तीस कलाओं का एक मुहूर्त और तीस मुहुर्तों की दिन-रात्रि होती है। दिनों का क्षय-वृद्धि क्रमशः प्रातः मध्याह्न आदि के अंगी के अथवा वृद्धि के कारण हैं, परंतु दिनों के घटने-बढ़ने पर संध्या सदा एक समान एक मुहुर्त की ही होती है। उदय होने के पश्चात सूर्य के तीन मुहूर्त गमन करने को प्रातः काल कहते हैं। यह पूरे दिन का पांचवां भाग होता है। प्रातः काल के व्यतीत होने पर तीन मुहूर्त के समय को सङ्गम कहा जाता है और सङ्गम के समाप्त होने पर तीन मुहूर्त तक का समय मध्याह्न होता है। मध्याह्न के पश्चात अपराह्न काल होता है, ज्ञानियों ने इसे भी तीन मुहूर्त का ही बताया है। जब अपराह्न बीत जाता है, तब सायाह्न उपस्थित होता है। इस प्रकार पंद्रह दिन का तथा तीन मुहूर्त दिनमान होता है।

दशपञ्चमुहर्त वै अहावैषुवत स्मृतम्।

वर्द्धते ह रसते चैवाप्ययने दक्षिणोत्तरे।।

अहस्तु ग्रसते रात्रि रात्रि रात्रिर्ग्रसति वासरम्।

शरद्वसन्तयोर्मध्ये विषुव तु विभाव्यते।।

तलमेषागते भानौ समरात्रिदिन तु

तत्। कर्कटावस्थिते भानौ

दक्षिणायन मुच्यते।।

वैषुवत दिन पंद्रह मुहूर्त का कहा है, परंतु उत्तरायण में उसकी वृद्धि और दक्षिणायन में हृस होता है। इस प्रकार उत्तरायण में दिन रात्रि को ग्रसने लगता है और दक्षिणायन में रात्रि, दिन को ग्रसने लगती है।


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