हयग्रीव अवतार कथा
हयग्रीव भगवान विष्णु के अवतार थे, जैसा कि नाम से स्पष्ट है उनका सिर घोड़े का था और शरीर मनुष्य का। वे बुद्धि के देवता माने जाते हैं। ऋषि बोले, हे सूत जी! आप के यह आश्चर्यजनक वचन सुन कर हम सब के मन में अत्यधिक संदेह हो रहा है। सब के स्वामी श्री जनार्धन माधव का सिर उनके शरीर से अलग हो गया और उस के बाद वे हयग्रीव कहलाए अश्व मुख वाले। आह ! इस से अधिक और आश्चर्यजनक क्या हो सकता है। जिनकी वेद भी प्रशंसा करते हैं, देवता भी जिस पर निर्भर हैं, जो सभी कारणों के भी कारण हैं, आदिदेव जगन्नाथ, हैं। हे परम बुद्धिमान! इस वृत्तांत का विस्तार से वर्णन कीजिए।सूत जी बोले, हे मुनियो, देवों के देव, परम शक्तिशाली, विष्णु के महान कृत्य को ध्यान से सुनें। एक समय की बात है। हयग्रीव नाम का एक परम पराक्रमी दैत्य हुआ। उसने सरस्वती नदी के तट पर जाकर भगवती महामाया की प्रसन्नता के लिए बड़ी कठोर तपस्या की। वह बहुत दिनों तक बिना कुछ खाए भगवती के मायाबीज एकाक्षर महामंत्र का जाप करता रहा। उसकी इंद्रियां उसके वश में हो चुकी थीं। सभी भोगों का उसने त्याग कर दिया था। उसकी कठिन तपस्या से प्रसन्न होकर भगवती ने उसे तामसी शक्ति के रूप में दर्शन दिया। भगवती महामाया ने उससे कहा, महाभाग! तुम्हारी तपस्या सफल हुई। मैं तुम पर परम प्रसन्न हूं। तुम्हारी जो भी इच्छा हो मैं उसे पूर्ण करने के लिए तैयार हूं। वत्स! वर मांगो। भगवती की दया और प्रेम से ओतप्रोत वाणी को सुनकर हयग्रीव की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा। उसके नेत्र आनंद के अश्रुओं से भर गए। उसने भगवती की स्तुति करते हुए कहा, हे कल्याणमयी देवी! आपको नमस्कार है। आप महामाया हैं। सृष्टि, स्थिति और संहार करना आपका स्वाभाविक गुण है। आपकी कृपा से कुछ भी असंभव नहीं है। यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं, तो मुझे अमर होने का वरदान देने की कृपा करें। देवी ने कहा, दैत्य राज! संसार में जिसका जन्म होता है, उसकी मृत्यु निश्चित है। प्रकृति के इस विधान से कोई नहीं बच सकता। किसी का सदा के लिए अमर होना असंभव है। अमर देवताओं को भी पुण्य समाप्त होने पर मृत्यु लोक में जाना पड़ता है। अतः तुम अमरत्व के अतिरिक्त कोई और वर मांगो। हयग्रीव बोला, अच्छा तो हयग्रीव के हाथों ही मेरी मृत्यु हो। दूसरा कोई मुझे न मार सके। मेरे मन की यही अभिलाषा है। आप उसे पूर्ण करने की कृपा करें। ऐसा ही होगा। यह कह कर भगवती अंतर्ध्यान हो गईं। हयग्रीव असीम आनंद का अनुभव करते हुए अपने घर चला गया। वह देवी के वर के प्रभाव से अजेय हो गया। त्रिलोकी में कोई भी ऐसा नहीं था, जो उस दुष्ट को मार सके। उसने ब्रह्मा जी से वेदों को छीन लिया और देवताओं तथा मुनियों को सताने लगा। यज्ञादि कर्म बंद हो गए और सृष्टि की व्यवस्था बिगड़ने लगी। ब्रह्मादि देवता भगवान विष्णु के पास गए, किंतु वे योगनिद्रा में निमग्र थे। उनके धनुष की डोरी चढ़ी हुई थी। ब्रह्मा जी ने उनको जगाने के लिए वम्री नामक एक कीड़ा उत्पन्न किया। ब्रह्मा जी की प्रेरणा से उसने धनुष की प्रत्यंचा काट दी। उस समय बड़ा भयंकर टंकार हुआ और भगवान विष्णु का मस्तक कटकर अदृश्य हो गया। सिर रहित भगवान के धड़ को देखकर देवताओं के दुख की सीमा न रही। सभी लोगों ने इस विचित्र घटना को देखकर भगवती की स्तुति की। भगवती प्रकट हुई। उन्होंने कहा, देवताओ चिंता मत करो। मेरी कृपा से तुम्हारा मंगल ही होगा। ब्रह्मा जी एक घोड़े का मस्तक काटकर भगवान के धड़ से जोड़ दें, इससे भगवान का हयग्रीव अवतार होगा। वे उसी रूप में दुष्ट हयग्रीव दैत्य का वध करेंगे। ऐसा कह कर भगवती अंतर्ध्यान हो गई। भगवती के कथनानुसार उसी क्षण ब्रह्मा जी ने एक घोड़े का मस्तक उतारकर भगवान के धड़ से जोड़ दिया। भगवती की कृपा प्रसाद से उसी क्षण भगवान विष्णु का हयग्रीव अवतार हो गया। फिर भगवान का हयग्रीव दैत्य से भयानक युद्ध हुआ। अंत में भगवान के हाथों हयग्रीव की मृत्यु हुई। हयग्रीव को मारकर भगवान ने वेदों को ब्रह्मा जी को पुनः समर्पित कर दिया और देवताओं तथा मुनियों के संकट का निवारण किया।
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