कविता: उधेड़बुन
फैली जड़ें, होते ही बड़े, वहां से उखड़े
निज माटी से बिछड़े, अंतर्मन रो पड़े
रोपी जहां जाए, पराई कहलाए
दे अपनी सेवाएं, सर्वस्व उन पर लुटाए
खोए क्या पाए, अपने हैं बेगाने
बेगाने हैं अपने, समझे क्या समझाए
स्वयं को, उधेड़बुन में, जीवन बिताए
ढूंढे हर पल, अपना धरातल, चिंतित व्याकुल
बौखलाई सी सोचे, कौन सा है कुल
वो है क्या, दो कुलों के मध्य, एक पुल
सिर एक कोने, पांव दूसरे, अधर में लटके
इधर से उधर, उधर से इधर, हृदय डोले
इस रस्साकशी में, तन मन छिले, माया ऐसे छले
जड़ें भूल, हौले-हौले, फूल जब खिलें
उगें, टहनी-टहनी, संबंध नए-नए
उससे जो जुड़े, पर उमड़े, एक टीस अक्सर
जिनसे बिछड़े, उनके लिए, पर किससे लड़ें
पीछे मुड़े, आगे बढ़े, इसी आवागमन में
कभी मंथन में, स्वयं को बिखराए
सहेजे अपने को, अपनों को, औरों को
जब तक न आए बुलावा, बिसराने को छलावा।
-प्रोमिला भारद्वाज, महाप्रबंधक, जिला उद्योग केंद्र,
बिलासपुर (हि. प्र.)-174001.
मोबाइल : 94180-04032
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