देवर्षि नारद

By: Aug 17th, 2019 12:12 am

 हमारे ऋषि-मुनि भागः 1

भगवान अपनी लीला जानते थे। उन्होंने नन्हें बालक की मनःस्थिति को सही दिशा देने के लिए आकाशवाणी द्वारा कह दिया, बस हो चुके दर्शन मेरे! ऐ दासीपुत्र! इस जन्म में तुम्हें मेरे स्वरूप के दर्शन पुनः संभव नहीं। यह शरीर त्याग कर जब नए शरीर में प्रवेश करोगे, तब मेरे पार्षद रूप में मुझे पा सकोगे। मिल गया दिशा-निर्देश। इसने बालक को निराश नहीं किया,बल्कि बालक के मन में एक आशा की किरण जाग उठी…

देवर्षि नारद को भगवान का मन कहा जाता है। यह सर्वमान्य है कि देवर्षि नारद हर युग में, हर काम में, हर लोक में , हर गांव में, हर समाज में तथा समाज में होने वाले प्रत्येक कार्य में विद्यमान रहते हैं। लोककल्याण हेतु वह सब जगह विचरते हैं। उनका काम है भगवान की भक्ति और उनकी महिमा का विस्तार करना। धर्म तथा परंपराओं में अटूट विश्वास रखने वाले भक्तजन मानते हैं कि नारदजी अप्रत्यक्ष रूप में विचरते हुए सब भक्तों को किसी न किसी प्रकार से सहायता कर उनके कार्यों को सिद्ध करते हैं। ऐसे भी उदाहरण मिलते हैं कि नारद मुनि ने अधिकारी तथा पात्र लोगों से प्रत्यक्ष रूप में मिलकर उनकी अभूतपूर्व सहायता की। स्मरण करें कि भक्त प्रह्लाद, भक्त धु्रव तथा अंबरीष आदि को दर्शन दिए। उपदेश दिए, रास्ता बताया। अंगुली पकड़कर उन्हें भक्तिमार्ग पर चलाया। यदि नारदजी रास्ता न दिखाते, तो श्रीमद्भागवत तथा वाल्मीकि रामायण की रचना न हो पाती। वाल्मीकि जी ऋषि बने हों या शुकदेव ने प्रभु को प्राप्त किया हो, देवर्षि नारद की ही अनुकंपा का परिमाण है। श्रीमद्भागवत में कहा गया है।

‘अहो! ये देवर्षि नारदजी तो धन्य हैं। वह वीणा बजाते हैं, हरिगुण गाते हैं। मस्ती में आकर दुःखों से भरे संसार को आनंद प्रदान करते हैं। पूर्वजन्म से दासीपुत्र अपनी माता के साथ संतों की सेवा करने व उनका संग पाने का अवसर मिला। अनचाहे, अनजाने में मिला सत्संग रंग लाया। चतुर्मास के समय यदि यह दासी पुत्र अपना पेट भरने के लिए संतो के जूठे पत्तल न चाटता, तो शायद भाग्योदय भी न होता। पाप नष्ट न होते। इसी दौरान भगवान से जुडे़ प्रसंग, उनकी कथा,उनकी स्तुति का ढंग, ये सब प्राप्त होते रहे और बालक नारद का अंतःकरण भी साफ, स्वच्छ व निर्मल होता गया। हृदय शुद्ध हुआ और इसके भीतर भक्ति का संचार भी होने लगा। इन संतों ने इस बालक द्वारा की गई सेवा के कारण जाते-जाते उसे भगवान की भक्ति का गुप्त दान देकर बालक को नारद पद पाने के लिए मानो पूर्णरूपेण तैयार ही कर दिया। छोटे बालक ने जब केवल पांच वर्ष की अवस्था प्राप्त की इनकी माता को विषधर ने काट लिया और वह मर गई। बालक का अंतःकरण शुद्ध था। बुद्धि भगवत्स्वरूप में स्थिर हो चुकी थी। मां के पास रहने वाला बंधन भी टूट चुका था। जा पहुंचा घने जंगल में। एक छायादार वृक्ष के नीचे आसन लगाकर भगवान का ध्यान करने लगा। प्रभु कृपा देखिए। इतनी कम आयु का बालक अपनीु वृत्तियां एकाग्र कर सकने में सफल भी हो गया। हृदय में भगवान प्रकट हो गए, भगवान आए, एक झलक दिखाई दी, फिर हो गए अदृश्य। बालक छटपटा उठा, वही स्वरूप पाने को आतुर हो उठा। लाख कोशिश करने पर भी वैसी स्थिति न मिल सकी।

भगवान अपनी लीला जानते थे। उन्होंने नन्हें बालक की मनःस्थिति को सही दिशा देने के लिए आकाशवाणी द्वारा कह दिया, बस हो चुके दर्शन मेरे! ऐ दासीपुत्र! इस जन्म में तुम्हें मेरे स्वरूप के दर्शन पुनः संभव नहीं। यह शरीर त्याग कर जब नए शरीर में प्रवेश करोगे, तब मेरे पार्षद रूप में मुझे पा सकोगे। मिल गया दिशा-निर्देश। इसने बालक को निराश नहीं किया, बल्कि बालक के मन में एक आशा की किरण जाग उठी। अब वह जंगल-जंगल भटककर मृत्यु की प्रतीक्षा करने लगा। मृत्यु हुई। कल्प के अंत में दिव्य विग्रह धारण किया। ब्रह्माजी के मानस पुत्र कहलाए। अखंड ब्रह्मचर्य धारण किया।

ब्रह्माजी से प्राप्त वीणा को बजाते, प्रभु गुण गाते। हर लोक में विचरने लगे। वह सर्वगुण संपन्न थे। सभी वेदों पुराणों तथा इतिहास को जानने वाले प्रखर बुद्धि के स्वामी नारद मुनि ने अनेक बार बृहस्पति जैसे विद्वानों के शंका समाधान में सहयोग दिया। मेधावी प्रभावशाली वक्ता तथा संगीत के महापंडित देवर्षि नारद अपने योगबल से समस्त लोकों का पता लगाने में सक्षम थे। ऐसा कोई गुण या विद्या नहीं, जिससे वह वंचित रहे हों। वह आनंद के सागर तथा सदाचार के आधार रहे।        – सुदर्शन भाटिया


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