नई शिक्षा नीति सर्व स्पर्षी सोच

By: Aug 8th, 2019 12:05 am

प्रो. वीरेंद्र कश्यप

पूर्व लोकसभा सांसद

इस नीति में इस बात का भी ध्यान रखा गया है कि शिक्षा का परिणाम मानव व्यक्तित्व में सर्वांगीण विकास के रूप में होने के लिए यह आवश्यक है कि शिक्षा-जानने के लिए सीखना, करने के लिए सीखना, साथ रहने के लिए सीखना तथा होने के लिए सीखना पर आधारित होनी चाहिए। शिक्षा को व्यापक रूप से समझना जरूरी है…

हाल ही में केंद्र में मोदी सरकार के पुनःगठन होने पर देश को नई शिक्षा नीति, जिस पर गत चार-पांच वर्षों से गहनतम विचार किया जा रहा था, को मानव संसाधन विकास मंत्री डा. रमेश पोखरियाल निशंक को डा. के. कस्तूरी रंगन, जिन्हें इस नई शिक्षा नीति की समिति का अध्यक्ष बनाया गया था, को सौंपने पर सौभाग्य प्राप्त हुआ। डा. कस्तूरी रंगन इसरो के पूर्व अध्यक्ष रहे हैं, जो एक प्रसिद्ध वैज्ञानिक व शिक्षाविद हैं। उनके नेतृत्व में देश के अन्य दस शिक्षाविद व विभिन्न प्रमुख लोगों ने कार्य किया। निस्संदेहद काफी माथापच्ची व जानकारियां प्राप्त करने के उपरांत तथा विभिन्न क्षेत्रों में कार्यरत व्यक्तियों, संस्थानों, संगठनों के साथ-साथ, विभिन्न शैक्षिक विचारधाराओं और विचारों, विभिन्न सांस्कृतिक व सामाजिक पृष्ठभूमि तथा देश के विभिन्न हिस्सों से चर्चा करके, 650 पृष्ठों, चार भागों व 23 विभिन्न विषयों के माध्यम से इसका मसौदा तैयार किया गया है। देश के प्रत्येक नागरिक के जीवन को स्पर्ष करने पर आधारित है और 21वीं सदी के शिक्षा के महत्त्वाकांक्षी लक्ष्यों को मद्देनजर रखते हुए देश की विकासात्मक आवश्यकताओं के अनुरूप, न्यायसंगत व निष्पक्ष समाज बनाने की दिशा में एक बेहतरीन प्रयास है। इसमें इस बात का भी ध्यान रखा गया है कि शिक्षा का परिणाम मानव व्यक्तित्व में सर्वांगीण विकास के रूप में होने के लिए यह आवश्यक है कि शिक्षा-जानने के लिए सीखना, करने के लिए सीखना, साथ रहने के लिए सीखना तथा होने के लिए सीखना पर आधारित होनी चाहिए। जब हम कहते हैं कि  शिक्षा का अधिकार सभी को है, तो शिक्षा को व्यापक रूप से समझना जरूरी है, विद्यार्थियों को संज्ञानात्मक कौशल के साथ-साथ सामाजिक और भावनात्मक कौशल भी होना जरूरी है, जिससे सांस्कृतिक जागरूकता और सहानुभूति, दृढ़ता और धैर्य, टीमवर्क नेतृत्व का विकास हो सके।

इसमें कोई संदेह नहीं है कि भारत की समग्र शिक्षा का एक लंबा और शानदार इतिहास रहा है और प्राचीन भारत में शिक्षा का उद्देश्य केवल ज्ञान प्राप्त करना ही नहीं था, बल्कि स्वयं को पूर्ण बोध और मुक्ति भी उद्देश्य था। हमारी शिक्षा प्राणाली ने चरक, सुश्रुत, आर्यभट्ट, भास्कराचार्य, चाणक्य, पतंजलि और पाणिनी जैसे कई महान विद्वान पैदा किए हैं, जिन्होंने विभिन्न क्षेत्रों में चाहे वह गणित हो या खगोल, विज्ञान और सर्जरी, इंजीनियरिंग हो या योग व शतरंज आदि अन्य विषयों में महत्त्वपूर्ण योगदान दिए हैं। राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2019 की सिफारिशों में खासकर ‘शिक्षा का अधिकार कानून’ के दायरे को व्यापक बनाना है। अभी जो शिक्षा नीति है, उसमें छह से 14 वर्ष की आयु के बच्चों को यह अनिवार्य है और निःशुल्क भी, परंतु इसमें आवश्यकता समझी गई कि पूर्व प्राथमिक शिक्षा यानी नर्सरी से 12वीं तक की पढ़ाई 5+3+3+4 के फार्मूले के तहत चार चरणों में बांटी जाए। इसलिए पूर्व प्राथमिक पाठशाला को विद्यालय कैंपस में ही स्थापित किया जाना चाहिए। राष्ट्रीय शिक्षा आयोग (नेशनल एजुकेशन कमीशन) गठित किए जाने का भी एक महत्त्वपूर्ण सुझाव है जिसके माध्यम से शिक्षा को समग्र रूप में पर्यावरण हितैषी व ज्ञानवान समाज बनाने के उद्देश्य के साथ बदलाव को सुगमता प्रदान की जा सके। आयोग के अध्यक्ष प्रधानमंत्री को बनाया गया है, जिसमें उपाध्यक्ष केंद्रीय शिक्षा मंत्री होेंगे तथा सदस्यों के तौर पर समाज में प्रमुख लोग, शिक्षाविद व अधिकारी होंगे। इसी तरह हर प्रदेश में भी प्रदेश स्तरीय शिक्षा आयोगों का गठन किए जाने की बात कही गई है। मंत्रालय को मानव संसाधन विकास से बदलकर शिक्षा मंत्रालय रखने को कहा गया है। शिक्षक-विद्यार्थी अनुपात को 1ः30 तक रखने का सुझाव दिया गया है और साथ ही साथ मिड-डे मील कार्यक्रम का विस्तार करने की बात कही गई है। पहली और दूसरी कक्षा में भाषा व गणित पर काम करने पर जोर, चौथी और पांचवीं के बच्चों के  साथ लेखन कौशल और भाषा सप्ताह, गणित सप्ताह, भाषा मेला व गणित मेला के आयोजन करने का भी सुझाव दिया गया है। पुस्तकालयों को जीवंत बनाना, आवासीय बालक-बालिकाओं के लिए नवोदय जैसी व्यवस्था करना, रेमेडियल शिक्षण को मुख्य धारा में शामिल करने का सुझाव दिया गया। इसी के साथ-साथ शिक्षकों के सहयोग के लिए तकनीक में इस्तेमाल पर प्रोत्साहन जैसे कम्प्यूटर, फोन, लैपटॉप आदि के प्रयोग, विषय वस्तु का बोझ कम किए जाने का सुझाव भी दिया गया है। मातृ भाषा का इस्तेमाल किया जाने के साथ-साथ बहु-भाषीकता को प्राथमिकता के साथ शामिल करने की बात कही गई है। एनईपी के उच्च गुणवत्ता वाले अनुसंधान पर फोकस रखा गया है और जो वर्तमान शिक्षा प्रणाली की सबसे बड़ी कमी विश्वविद्यालय स्तर पर अनुसंधान की योजना और कार्यान्वयन के लिए एक सही दिशा का अभाव था, उसे दूर करने के लिए राष्ट्रीय अनुसंधान संस्थान (नेशनल रीसर्च फाउंडेशन) स्थापित किए जाने का प्रस्ताव रखा गया है, जो कि वित्तपोषण के साथ-साथ परामर्श तंत्र के माध्यम से विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों में शोधक्षमता के विकास तथा निर्माण की आवश्यकता का ध्यान रखेगा।

अपनी सिफारिशों में अन्य बातों के साथ-साथ शिक्षक शिक्षा पर समिति ने गहरा दुख व्यक्त किया है कि शिक्षा के व्यावसायीकरण ने शिक्षा के क्षेत्र को साधारणतः और अनियंत्रित भ्रष्टाचार से घेर लिया है। सुप्रीम कोर्ट द्वारा बनाई गई जेएस वर्मा कमीशन (2012) का हवाला देते हुए कहा कि देश में केवल 10,000 से भी अधिक शिक्षक शिक्षा कार्यक्रम चलाने वाले संस्थान हैं, जो ठीक से शिक्षक शिक्षा पर प्रयास भी नहीं कर रहे हैं और सिर्फ पैसों के लिए डिग्रियां बेच रहे हैं। देश में एआईएसएचई (2015-16) के आंकड़ों के अनुसार भारत में 17,000 से ज्यादा महाविद्यालय हैं, जो एकल कार्यक्रम चलाते हैं और उनके 90 प्रतिशत शिक्षक प्रशिक्षण संस्थान हैं। इसलिए शिक्षक शिक्षा प्रणाली को बहुविषयक महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों से जोड़कर और चार वर्षीय स्नातक डिग्री को स्कूल शिक्षकों के लिए न्यूनतम योग्यता स्थापित कर यह सुनश्चित करके शिक्षकों को विषय शिक्षण शास्त्र और प्रैक्टिस में गुणवत्तापूर्ण प्रशिक्षण प्राप्त से ऐसे उद्देश्य के साथ समिति ने अपनी राय दी है। नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति की सोच में निवेश को प्रयाप्त रूप से बढ़ाने की है और वर्तमान वार्षिक दस प्रतिशत सरकारी खर्च को अगले दस वर्षों में बढ़ाकर 20 प्रतिशत करने की है। इसमें कोई संदेह नहीं रह जाता कि आने वाले वर्षों में इस नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति के कार्यान्वयन के वित्तपोषण में कोई समस्या आएगी, परंतु यह सब कुछ सरकार पर ही निर्भर करेगा। समिति द्वारा किए गए सभी प्रयास सराहनीय हैं।


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