फिराक गोरखपुरी की शायरी में बसी है भारत की पहचान

By: Aug 25th, 2019 12:06 am

जयंती पर विशेष

1962 की भारत-चीन लड़ाई के समय ‘सुखन की शम्मां जलाओ बहुत उदास है रात, नवाए मीर सुनाओ बहुत उदास है रात, कोई कहे ये खयालों और ख्वाबों से, दिलों से दूर न जाओ बहुत उदास है रात’ लिखने वाले फिराक गोरखपुरी का जन्म 28 अगस्त, 1896 ईस्वी को उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में हुआ था। वह भारत के प्रसिद्धि प्राप्त और उर्दू के माने हुए शायर थे। उन्हें उर्दू कविता को बोलियों से जोड़ कर उसमें नई लोच और रंगत पैदा करने का श्रेय दिया जाता है। फिराक गोरखपुरी ने अपने साहित्यिक जीवन का आरंभ गजल से किया था। फारसी, हिंदी, ब्रजभाषा और भारतीय संस्कृति की गहरी समझ होने के कारण उनकी शायरी में भारत की मूल पहचान रच-बस गई है। उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार, ज्ञानपीठ पुरस्कार और सोवियत लैंड नेहरू अवार्ड से भी सम्मानित किया गया था। वर्ष 1970 में उन्हें साहित्य अकादमी का सदस्य भी मनोनीत किया गया था।

उनका पूरा नाम रघुपति सहाय फिराक था, किंतु अपनी शायरी में वह अपना उपनाम फिराक लिखते थे। उनके पिता का नाम मुंशी गोरख प्रसाद था जो पेशे से वकील थे। मुंशी गोरख प्रसाद भले ही वकील थे, किंतु शायरी में भी उनका बहुत नाम था। इस प्रकार यह कह सकते हैं कि शायरी फिराक साहब को विरासत में मिली थी। फिराक गोरखपुरी ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में शिक्षा प्राप्त की थी। उन्होंने बीए में पूरे प्रदेश में चौथा स्थान प्राप्त किया था। इसके बाद वह डिप्टी कलेक्टर के पद पर नियुक्त हुए। उनका विवाह 29 जून 1914 को प्रसिद्ध जमींदार विंदेश्वरी प्रसाद की बेटी किशोरी देवी से हुआ। वह भी तब जब पत्नी के साथ एक छत के नीचे रहते हुए भी उनकी व्यक्तिगत जिंदगी एकाकी ही बीती। युवावस्था में हुआ उनका विवाह उनके लिए जीवन की सबसे कष्टप्रद घटना थी। फिराक का व्यक्तित्व बहुत जटिल था। वह मिलनसार थे, हाजिरजवाब थे और विटी थे। अपने बारे में तमाम उल्टी-सीधी बातें खुद करते थे। उनके यहां उनके द्वारा ही प्रचारित चुटकुले आत्मविज्ञापन प्रमुख हो गए। अपने दुःख को बढ़ा-चढ़ाकर बताते थे। स्वाभिमानी हमेशा रहे। पहनावे में अजीब लापरवाही झलकती थी। टोपी से बाहर झांकते हुए बिखरे बाल, शेरवानी के खुले बटन, ढीला-ढाला और कभी-कभी बेहद गंदा और मुसा हुआ पैजामा, लटकता हुआ इजारबंद, एक हाथ में सिगरेट और दूसरे में घड़ी, गहरी-गहरी और गोल-गोल, डस लेने वाली-सी आंखों में उनके व्यक्तित्व का फक्कड़पन खूब जाहिर होता था।

फिराक गोरखपुरी ने अपने साहित्यिक जीवन का आरंभ गजल से किया था। अपने साहित्यिक जीवन के आरंभिक समय में 6 दिसंबर 1926 को ब्रिटिश सरकार के राजनीतिक बंदी बनाए गए थे। उर्दू शायरी का बड़ा हिस्सा रूमानियत, रहस्य और शास्त्रीयता से बंधा रहा है, जिसमें लोकजीवन और प्रकृति के पक्ष बहुत कम उभर पाए हैं। फिराक जी ने परंपरागत भावबोध और शब्द-भंडार का उपयोग करते हुए उसे नई भाषा और नए विषयों से जोड़ा। उनके यहां सामाजिक दुख-दर्द व्यक्तिगत अनुभूति बनकर शायरी में ढला है। दैनिक जीवन के कड़वे सच और आने वाले कल के प्रति उम्मीद, दोनों को भारतीय संस्कृति और लोकभाषा के प्रतीकों से जोड़कर फिराक जी ने अपनी शायरी का अनूठा महल खड़ा किया। फिराक गोरखपुरी ने बड़ी मात्रा में रचनाएं की थीं। उनकी शायरी बड़ी उच्चकोटि की मानी जाती है। वे बड़े निर्भीक शायर थे। उनके कविता संग्रह ‘गुलेनग्मा’ पर 1960 में उन्हें साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिला और इसी रचना पर वह 1969 में भारत के एक और प्रतिष्ठित सम्मान ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किए गए थे। उन्होंने एक उपन्यास ‘साधु और कुटिया’ और कई कहानियां भी लिखी थीं। उर्दू, हिंदी और अंग्रेजी भाषा में उनकी दस गद्य कृतियां भी प्रकाशित हुई हैं। फिराक गोरखपुरी ने गजल, नज़्म और रुबाई तीनों विधाओं में काफी कहा है। रुबाई, नज़्म की ही एक विधा है, लेकिन आसानी के लिए इसे नज़्म से अलग कर लिया गया। उनके कलाम का सबसे बड़ा और अहम हिस्सा गजल है और यही फिराक की पहचान है। वह सौंदर्यबोध के शायर हैं और यह भाव गजल और रुबाई दोनों में बराबर व्यक्त हुआ है। फिराक साहब ने गजल और रुबाई को नया लहजा और नई आवाज अदा की। इस आवाज में अतीत की गूंज भी है, वर्तमान की बेचैनी भी। फारसी, हिंदी, ब्रजभाषा और हिंदू धर्म की संस्कृति की गहरी जानकारी की वजह से उनकी शायरी में हिंदुस्तान की मिट्टी रच-बस गई है। यह तथ्य भी विचार करने योग्य है कि उनकी शायरी में आशिक और महबूब परंपरा से बिल्कुल अलग अपना स्वतंत्र संसार बसाए हुए हैं। फिराक गोरखपुरी का कहना था कि ‘रूप’ की रुबाइयों में निस्संदेह ही एक भारतीय हिंदू स्त्री का चेहरा है, चाहे रुबाइयां उर्दू में ही क्यों न लिखी गई हों। ‘रूप’ की भूमिका में वे लिखते हैं, ‘मुस्लिम कल्चर बहुत ऊंची चीज है और पवित्र चीज है, मगर उसमें प्रकृति, बाल जीवन, नारीत्व का वह चित्रण या घरेलू जीवन की वह बूदृबास नहीं मिलती, वे जादू भरे भेद नहीं मिलते, जो हिंदू कल्चर में मिलते हैं। कल्चर की यही धारणा हिंदू घरानों के बर्तनों में, यहां तक कि मिट्टी के बर्तनों में, दीपकों में, खिलौनों में, यहां तक कि चूल्हे-चक्की में, छोटी-छोटी रस्मों में और हिंदू की सांस में इसी की ध्वनियां, हिंदू लोकगीतों को अत्यंत मानवीय संगीत और स्वार्गिक संगीत बना देती है।’ फिराक साहब एक सौंदर्यप्रिय व्यक्ति थे। बदसूरती उन्हें किसी सूरत में बर्दाश्त नहीं थी। शायद यही कारण था जिसने उनके पारिवारिक जीवन को तहस-नहस कर दिया था। फिराक के एक वक्तव्य के अनुसार, उनका एक ऐसी बदसूरती से पाला पड़ा जिसने उनके खून में जहर घोल दिया। शायद यही वजह है कि फिराक ने जिस बीवी को ठुकरा दिया था, उसकी तलाश ‘रूप’ की रुबाइयों में करते रहे। अपने अंतिम दिनों में जब शारीरिक अस्वस्थता निरंतर उन्हें घेर रही थी, वह काफी अकेले हो गए थे। अपने अकेलेपन को उन्होंने कुछ इस तरह बयां कियाः अब अक्सर चुप-चुप से रहे हैं, यूं ही कभूं लब खोले हैं, पहले फिराक को देखा होता, अब तो बहुत कम बोले हैं। 3 मार्च 1982 को फिराक गोरखपुरी का देहांत हो गया। वह उर्दू नक्षत्र का वो जगमगाता सितारा हैं जिसकी रौशनी आज भी शायरी को एक नया मुकाम दे रही है। इस अलमस्त शायर की शायरी की गूंज हमारे दिलों में हमेशा जिंदा रहेगी। बकौल फिराक ‘ऐ मौत आके खामोश कर गई तू, सदियों दिलों के अंदर हम गूंजते रहेंगे।’

 


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