मसरूर का बहुआयामी विकास जरूरी

By: Aug 22nd, 2019 12:07 am

कुलभूषण उपमन्यु

अध्यक्ष, हिमालय नीति अभियान

 

मसरूर मंदिर समूह है जिसे एक ही चट्टान से हथौड़े से काट कर बनाया गया है। यह भारत के केवल चार रॉक कट मंदिर समूहों में से एक है और उत्तरी भारत का एक मात्र ऐसा मंदिर समूह है। प्रसिद्ध पुरातत्वज्ञ श्री खान मसरूर मंदिर समूह में मुंबई के समीप एलिफेंटा गुफाओं, अंग्कोरवाट (कम्बोडिया) और महाबलीपुरम (तमिलनाडु) के साथ समानताएं पाते हंै। इसकी बनावट में गुप्त शैली का प्रभाव दिखता है, इसलिए वे इसे 8वीं शताब्दी या इससे कुछ पहले का निर्माण मानते हैं…

मसरूर हिमाचल प्रदेश के महत्त्वपूर्ण पर्यटन स्थलों में से एक है। यह जिला कांगड़ा में धर्मशाला से 47 किलोमीटर और कांगड़ा से 32 किलोमीटर पर गगल-नगरोटा सूरियां मार्ग पर अवस्थित है। लंज नामक स्थान से एक लिंक मार्ग वहां से मसरूर के लिए जाता है। मार्ग सिंगल लेन है लेकिन अच्छा है। मोड़ खुले हैं। आसपास चारों ओर भरपूर हरियाली और सुंदर गांव  बसे हैं। मसरूर मंदिर समूह है जिसे एक ही चट्टान से हथौड़े से काट कर बनाया गया है। यह भारत के केवल चार रॉक कट मंदिर समूहों में से एक है और उत्तरी भारत का एक मात्र ऐसा मंदिर समूह है। प्रसिद्ध पुरातत्वज्ञ श्री खान मसरूर मंदिर समूह में मुंबई के समीप एलिफेंटा गुफाओं, अंग्कोरवाट (कम्बोडिया) और महाबलीपुरम (तमिलनाडु) के साथ समानताएं पाते हंै। इसकी बनावट में गुप्त शैली का प्रभाव दिखता है, इसलिए वे इसे 8वीं शताब्दी या इससे कुछ पहले का निर्माण मानते हैं।

कुछ लोग इसे शैव परंपरा से जोड़ कर देखते हैं और कुछ वैष्णव परंपरा से, किंतु इसमें विभिन्न मंदिरों में की गई नक्काशी में शिव, विष्णु शक्ति और सूर्य की मूर्तियां और भित्ति पर उत्कीर्णित मूर्तियां मिलने के कारण इसे बहुत से लोग पाञ्चरात्र परंपरा से जोड़ते हैं, जिसमें एकाधिक देवताओं को समान मान्यता देते हुए उनमें से अपनी पसंद का कोई एक चुनने और उसकी उपासना करने की छूट होती है। बहुत से देवताओं में से अपनी पसंद का कोई इष्ट देव बनाने की परंपरा शायद इसी से निकली होगी। यह एक तरह से बहुदेव वाद और एकेश्वर वाद के बीच समन्वय बनाने की अच्छी कोशिश हो सकती है। भारतीय आध्यात्मिक परंपरा की यह विशेषता रही है कि  वह भेद वाद को अभेद में बदलने के लिए प्रयासरत रहती है। उसमें ऐसा कुछ भी नहीं जिसमें तार्किक आधार पर विश्लेषण न किया जा सके और समय के अनुसार उसमें बदलाव न लाए जा सकें।

यही कारण है कि  यहां समय-समय पर विभिन्न दार्शनिक विचारधाराएं विकसित हुईं और उन्हें मान्यता मिली, जिनमें से कुछ को तो अनीश्वर वादी भी माना जा सकता है। आध्यात्मिक क्षेत्र में इस तरह की स्वतंत्रता अन्य कहीं भी मिलना दुर्लभ है। सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, पूर्व मीमांसा, उत्तर मीमांसा मुख्य दार्शनिक प्रणालियां हैं , जिसके अतिरिक्त बौद्ध और जैन दर्शनों का भी अलग विशेष महत्त्व है। इन्हीं दार्शनिक प्रणालियों की विविधता की छूट की संस्कृति होने के कारण थोड़े-थोड़े भेद से अनेक मत संप्रदाय प्रचलित हुए और आपस में सामंजस्य से फल-फूल रहे हैं। इस चिंतन धारा के प्रमाण स्वरूप भी मसरूर मंदिर समूह का अपना अलग महत्त्व है। छैनी-हथौड़े से एक चट्टान को आकार दे कर एक सुव्यवस्थित भवन का निर्माण करना और दरो दीवार को ऐसा रूप देना जिसका कोई भी भाग नक्शे की योजना से अलग न हो, यह बहुत ही श्रमसाध्य कार्य है। जिसको करना उच्च कोटि की कारीगरी और भवन निर्माण विज्ञान की जानकारी के बिना असंभव है। इस मंदिर समूह का मुख उत्तर-पूर्व दिशा की ओर है जहां से धौलाधार पर्वत शृंखला का दृश्य बहुत ही मनोहारी दिखता है।

मंदिर के सामने 25 मीटर चौड़ा और 50 मीटर लंबा तालाब है जिसमें सारा वर्ष पानी रहता है। तालाब में सुंदर मछलियां इसकी सुंदरता को और भी बढ़ा देती हैं। किनारे पर विशाल जामुन और बरगद के पेड़ सारे स्थल की शोभा को चार चांद लगा देते हैं। गर्मियों में इनके कारण सघन छाया का आनंद प्राप्त होता है। सर्दियों में सुनहली धूप सेंकने का आनंद लेने के लिए भी पर्याप्त स्थान है। वर्ष भर इस स्थल की यात्रा की जा सकती है। किंतु मार्च-अप्रैल और अक्तूबर नवंबर का समय मौसम के लिहाज से बढि़या होता है।  इस समय न तो ठंड होती है न गर्मी ही होती है। 1887 ईस्वी में कुछ अज्ञात पुरातत्व विभाग के खजियों द्वारा बनाए गए ड्राइंग चित्र उपलब्ध हैं। जिनसे बीसवीं सदी में इस पर शोध के लिए महत्वपूर्ण सामग्री उपलब्ध हुई है। किंतु दुनिया के सामने इस दुर्लभ मंदिर समूह को लाने का श्रेय 1913 ईर्स्वी में हैनरी शटल वर्थ  को जाता है। इसके बाद 1915 में पुरातत्व विभाग के हैरॉल्ड हर्ग्रीव्स ने स्वतंत्र रूप से इसका सर्वेक्षण किया। हर्ग्रीव्स लिखता है कि इस मंदिर की दूरस्थ स्थिति और दुर्गम क्षेत्र होने के कारण एक ओर जहां इस मंदिर समूह की अनदेखी हुई वहीं दूसरी ओर कांगड़ा घाटी में आने वाले मुस्लिम हमलावरों द्वारा किए जाने वाले विध्वंस से यह मंदिर स्थल बचा रहा।

1905 के कांगड़ा भूचाल में इस मंदिर की बहुत तबाही हुई, फिर भी 1887 के ड्राइंग चित्रों में  1905 से पहले के चित्र उपलब्ध हैं। उन चित्रों और अन्य ऐतिहासिक जानकारियों को मंदिर परिसर में संग्रहालय बना कर रखा जाना  चाहिए। यह शोधकर्ताओं और पर्यटकों  को रोचक और सटीक जानकारी देकर पर्यटन को बढ़ावा देने वाली साबित होगी। हालांकि मंदिर परिसर तक पहंुचने के लिए दिव्यांग जनों या वृद्धों की सुविधा के लिए रैंप बना कर आसानी पैदा की गई, फिर भी प्रदेश की इतनी बड़ी धरोहर का पर्यटन की दृष्टि से संपूर्ण लाभ उठाने के लिए बहुत कुछ करना बाकी है। लंज से मसरूर मंदिर स्थल तक सड़क डबल लेंन  होनी चाहिए। मध्यम वर्ग और अमीर पर्यटकों के लिए भोजन और आवास की सुविधाएं और मंदिर म्यूजियम के साथ शोधार्थियों के रहने की व्यवस्था करके बहुआयामी पर्यटन को बढ़ाया जा सकता है। मंदिर पुरातत्व विभाग के अधीन है, अतः देखरेख की व्यवस्था ठीक है।

किन्तु मुख्य मंदिर जो राम, लक्ष्मण और सीता का है जिसे पुराने समय से ठाकुरद्वारा कहा जाता है, में लोग कुछ चढ़ावा चढ़ा जाते हैं जबकि सूचना पट पर चढ़ावा चढ़ाने की मनाही लिखी है। यदि चढ़ावा की अनुमति हो तो मंदिर सुधार  के लिए कुछ राशि जुट जाएगी। मंदिर परिसर के साथ लगते ही आंगन-बाड़ी केंद्र और एक माध्यमिक विद्यालय स्थित हैं किन्तु उनके भवनों की दुर्दशा पर्यटकों के मन में कुंठा का भाव पैदा कर देते हैं। पुरातत्व स्थल के पास होने के कारण डिजाइन में कुछ बदलाव करने हों तो किए जाएं। इस समय प्रतिदिन 200 से 600 पर्यटक आ रहे हैं। उचित सुविधाओं को स्थापित करके पर्यटक संख्या में काफी बढ़ोतरी की जा सकती है। इससे स्थानीय स्तर पर रोजगार पैदा करने के अलावा सरकारी आय भी बढ़ सकती है।


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