चालान पर चक्का जाम

By: Sep 21st, 2019 12:05 am

नए मोटर वाहन कानून के तहत भारी जुर्माने के खिलाफ  ट्रांसपोर्टर के 44 संगठनों ने हड़ताल की। फिलहाल यह दिल्ली-एनसीआर तक ही सीमित थी। ट्रांसपोर्टर संगठनों की धमकी है कि यदि जुर्मानों में संशोधन नहीं किया गया, तो वे देशव्यापी हड़ताल तक भी जाने को बाध्य हो सकते हैं। एक दिन की सांकेतिक हड़ताल ने ही दिल्ली-एनसीआर की व्यवस्था को बिखेर कर रख दिया। चूंकि स्कूली बसों का भी चक्का जाम रखने का आह्वान किया गया था, लिहाजा ज्यादातर स्कूलों में अवकाश घोषित करना पड़ा। उसके अलावा कोई देर से दफ्तर पहुंचा या एनसीआर का निवासी अपने दफ्तर या कार्यस्थल तक पहुंच ही नहीं पाया। कोई बीमार व्यक्ति अस्पताल तक नहीं पहुंच पाया, नतीजतन उसकी जिंदगी की सांसें ही थम गईं, कोई सड़क पर बैठा ही कराहता रहा। अलबत्ता हड़तालियों ने दावा किया कि एंबुलेंस पर कोई पाबंदी नहीं थी। ऐसे आपातकालीन वाहनों को हड़ताल से मुक्त रखा गया। यह अर्द्धसत्य राष्ट्रीय राजधानी की सड़कों पर खूब देखने को मिला। कोई रेलवे स्टेशन या बस अड्डे पर बाहर से आए थे और दिल्ली में अपने या परिजन के घर तक जाना चाहते थे, लेकिन उन्हें घंटों तक कोई वाहन उपलब्ध नहीं हुआ। यदि कोई चोरी-छिपे चलने को तैयार हुआ, तो उसने मनमाने, दोगुने-तिगुने किराए वसूल किए। सवाल यह है कि केंद्र सरकार को नए मोटर वाहन कानून के तहत भारी जुर्माने की व्यवस्था क्यों करनी पड़ी? और नए कानून के व्यापक दस्तावेजों को पढ़ा क्यों नहीं गया? कानून के बावजूद अभी तक 12 राज्यों की सरकारों ने इसे लागू क्यों नहीं किया, जिनमें ज्यादातर भाजपा-एनडीए सरकारें ही हैं? क्या जनमत के आक्रोश और विरोध से डर लग गया, क्योंकि कुछ राज्यों में चुनाव का मौसम शुरू हो चुका है? दरअसल हमारे देश में सड़क दुर्घटनाओं और उनमें मरने वालों के आंकड़े बेहद खौफनाक हैं। दुनिया के विकसित देश और अंतरराष्ट्रीय संगठन तक उन आंकड़ों के मद्देनजर दहशत में रहते हैं, अपने चिंतित सरोकार जताते रहे हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रपट के मुताबिक भारत में सड़क दुर्घटनाओं में करीब 2.40 लाख लोग सालाना मरते हैं। हालांकि स्थानीय स्तर पर हमारी रपटें यह खुलासा जरूर करती रही हैं कि सालाना 1.50 लाख से अधिक लोग भारतीय सड़कों की घातक दुर्घटनाओं में मारे जाते हैं। औसतन प्रति चार मिनट में एक मौत होती है। औसतन 16 बच्चे हर रोज अकाल मौत के शिकार होते हैं। औसतन 400 मौतें रोजाना सड़क दुर्घटनाओं के कारण होती हैं। ये तमाम आंकड़े सामान्य नहीं हैं, जिंदगियां लील रहे हैं। ये आंकड़े आटोमोबाइल के विकसित बाजारों और देशों की तुलना में भयावह हैं। अमरीका में ऐसी मौतें औसतन करीब 40,000 सालाना होती हैं। ये वीभत्स आंकड़े किसी भी जिम्मेदार व्यक्ति या सरकार को कंपा सकते हैं। राष्ट्रपिता गांधी ने इन आंकड़ों के लिए हड़ताल करने की संस्कृति नहीं सिखाई थी। सवाल सहज भी है, लेकिन बेहद गंभीर भी है कि इन बेलगाम दुर्घटनाओं और अकाल मौतों के लिए जिम्मेदार कौन है? सबसे पहला जवाब है-हमारी परिवहन और यातायात नियमों के प्रति अराजकता। आप दिल्ली-नोएडा में ही छोटी-सी स्कूटी पर तीन सवार देख सकते हैं और कोई हेलमेट नहीं। क्या यह दुर्घटना को आमंत्रण देने की कोशिश नहीं है? एक स्कूटर या बाइक पर पति-पत्नी और छोटे बच्चे को बिना हेलमेट घूमते देख सकते हैं। हम प्रदूषण नियंत्रण का महत्त्व तो सीखे ही नहीं। यदि कार में जा रहे हैं, तो सीट बैल्ट लगाना न हमारी आदत है और न ही हमें उसका महत्त्व पता है। कार में धुआं निकलता रहे और दूसरों को परेशान करे, इसकी हमने चिंता करना सीखा ही नहीं, क्योंकि हम तो प्रदूषण जीवी हैं। सड़क या चौराहे पर बत्ती लाल है या हरी है, उसकी हमें जानकारी होने के बावजूद उसे लांघने की प्रवृत्ति के शिकार हैं हम। बेशक हमारी औसत सड़कें और कई राजमार्ग भी बेहद खराब स्थिति में हैं। दुर्घटनाओं के कारण वे भी हैं। ऐसे ढेरों कारण 70 सालों से देखे जाते रहे हैं। अब सड़क परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने सड़कों के सुधार और विस्तार के आंदोलन छेड़ रखे हैं, नौकरशाही और ठेकेदारों को समयबद्ध काम करना पड़ रहा है। उन्होंने ही नए मोटर वाहन कानून बनाए हैं। आखिर उनका मकसद क्या है? बेशक आम आदमी की जान बचाना। जुर्माने का खौफ  अब भी नहीं है, तो यदि उन्हें बिलकुल ही कम कर दिया गया और कानून में शिथिलता बरती गई तो क्या होगा? नियति हम सभी जानते हैं, लिहाजा हड़ताल से बेहतर है कि हम अनुशासन सीखें और मौज से अपना वाहन चलाएं। तब कौन जुर्माना कर सकता है?


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