तीन गुणों से पार

By: Sep 7th, 2019 12:15 am

बाबा हरदेव

माया के तीन गुण माने जाते हैं तमोगुण, रजोगुण और सतोगुण और ये तीनों ही गुण जीव को बंधन में डालते हैं। मानो मनुष्य में तीनों गुणों का मिश्रण होता है, परंतु कर्म अनुसार एक गुण आगे बढ़ता है। अब क्योंकि जीव अनेक प्रकार के हैं इसलिए निम्न लक्ष्णों से युक्त है। कोई बड़ा निष्क्रिम है, कोई बड़ा कर्मठ है, कोई बड़ा सुखी है तो कोई असहाय। इस प्रकार लक्ष्णों वाले गुण ही प्रकृति में जीव की वृद्धावस्था के कारण हैं। अब जीवों में किस-किस गुण से कौन-कौन सा बंधन होता है, इसका वर्णन इस प्रकार है।

तमोगुण– गीता के अध्याय चौदह के आठवें श्लोक में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को कहते हैं कि हे अर्जुन! सब जीवों को मोहने वाले ‘तमोगुण’ को अज्ञान से उत्पन्न जान। ये गुण देह अभिमानी जीवन का ेपरमाद,आलस्य और निद्रा के द्वारा बांधता है। तमोगुण सतोगुण के बिलकुल विपरीत कार्य करता है। अर्थात तमोगुण से मोहित जीव प्रभंत हो उठता है और जो प्रभंत है उसे इस हालत में कभी तत्त्वज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता। उत्थान के स्थान पर उसका पतन ही होता है। मानो तमोगुण परमाद (असत्य) से बांधता है। तमोगुणी व्यक्ति सदैव निराशा महसूस करता है और भौतिक द्रव्यों के प्रति व्यसनी बन जाता है। इसलिए ये बंधन मुक्त नहीं है।

रजोगुण- इसी प्रकार पवित्र गीता के अध्याय चौदह के सातवें श्लोक में वर्णित है, हे अर्जुन! कामजनित रजोगुण को तृष्णा और आसक्ति से उत्पन्न जान, रजोगुण जीव को सकाम कर्म की आसक्ति में बांधता है। अब रजोगुण का स्वरूप स्त्री और पुरुष में एक दूसरे के प्रति होने वाले आकर्षण है। स्त्री पुरुष में राग रखती है और पुरुष स्त्री में राग रखता है। अतः रजोगुण मोहरूप है और जीवन को इच्छा और कर्म में बांधता है। रजोगुण की वृद्धि होने पर तृष्णा जाग्रत होती है जिससे रजोगुण इंद्रिय तृप्ति के लिए उन्मत हो उठता है और फिर इंद्रिय तृप्ति के लिए रजोगुणी मनुष्य समाज अथवा राष्ट्र में सम्मान तथा सुख, परिवार और गृह आदि विषयों की ख्वाहिश करता है। ये सब रजोगुण के कार्य हैं। इसी कर्मफल की आसक्ति में रजोगुणी मनुष्य बंध जाता है। अतः आधुनिक सभ्यता में संपूर्ण विश्व ही रजोगुण के वशीभूत हो रहा है।

सतोगुण-प्रकृत जगत में जब सतोगुण का विकास होता है, तो सतोेगुणी मनुष्य अन्य जीवों से अधिक बुद्धिमान हो जाता है क्योंकि सतोगुणी प्रकाश वाला है, सतोगुणी मनुष्य लौकिक दुःखों से अधिक प्रभावित नहीं होता। ऐसे मनुष्य में ये भाव बना रहता है कि वह सुखी है। अब इसके सुख का कारण ये है कि सतोगुण में पाप कर्मफल का अभाव रहता है। मानो सतोगुण का अर्थ अधिक सुख तथा अधिक ज्ञान है। अगरचे ये परिणाम दूसरे गुणों से भिन्न है परंतु तीन गुणों का परिणाम एक ही निकाला जाता है। सतोगुण भी बंधन मुक्त नहीं है क्योंकि सतोगुण में जीव को ये अभिमान हो जाता है कि वो ज्ञानी है, दानी है, श्रेष्ठ है। अतः इस उपाधि से मनुष्य ऐसा बंधता है। अब ये बात स्पष्ट है कि तीनों गुण वालों को बंधन से मुक्ति नहीं मिलती है। इसलिए मुक्ति की प्राप्ति के लिए मनुष्य को इन तीनों गुणों से ऊपर उठ जाना या पार चले जाना अनिर्वाय है क्योंकि आत्मा परमात्मा इन तीनों गुणों से ऊपर है। जो आदमी इन तीनों गुणों से ऊपर उठ जाता है यानी गुणातीत हो जाता है ये न तो तामसी होता है, न राजसी होता है, न ही सत्विक होता है।


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