विष्णु पुराण

By: Sep 7th, 2019 12:15 am

विवस्वानष्टभिर्मासैरादायपी रसात्मिकाः।

वर्षत्यम्बु ततच्चान्नमंदप्यखिलं जगत।।

विस्वानशुभिस्तीक्ष्णैरादाज जगतो जलम।

सोम तुण्यात्यगेंदूश्च वायुनाडीमयैर्दिवि।।

नालैविक्षिपतेऽभ्रेषु धमाग्नयनिलुभूर्तिषु।

न भ्राश्यंति यतस्तेभ्यो जलान्य भ्राणि तान्यतः।।

अभ्रस्थाः प्रपतंत्यापो वायुना समुदीरताः।

संस्कारं कालजनितं मैत्रेयासाद्य निर्मलाः।।

सरत्समुद्रभौमास्तु तथापः प्राणिसंभवाः।

चतुष्प्रकारा भगवानादत्तं सविता मुनेः।।

आकाशगंगासलिलं तथादाय गभस्मिन।

अनभ्रगमेवोर्व्या सद्यः क्षिपति रश्मिभिः।।

तस्य संस्पर्शनिधू तपापङ्को द्विजोत्तमः।

न याति नरकं मर्त्यो दिव्यं स्नानं हि तस्मृत्म।।

सूर्य आठ महीने तक अपनी किरणों के द्वारा रस जल को ग्रहण करता और चार महीने उसे बरसाता है। उस जल वृद्धि से अन्न उत्पन्न होता है, जिस पर संपूर्ण विश्व का पोषण निर्भर है। सूर्य अपनी तीक्ष्ण किरणों के द्वारा विश्व से जल खींचकर उससे चंद्रमा का पोषण करता है और चंद्रमयी वायुमयी नाडि़यों से उसे धूप, अग्नि और मेघ में पहुंचाता है। चंद्रमा द्वारा प्राप्त यह जल मेघों से शीघ्र ही भ्रष्ट होने के कारण वे मेघ अभ्र कहे जाते हैं। हे मैत्रेय जी! काल जनित संस्कार से यह मेघों में स्थित जल निर्मल होकर वायु द्वारा प्रेरित किए जाने पर पृथ्वी पर बरसाता है। हे मुने! नदी, समुद्र,पृथ्वी तथा प्राणियों से उत्पन्न इन चार प्रकार के जलों को भगवान सूर्य अपनी ओर खींचते हैं। वे आकाश गंगा के जल को लेकर मेघादि के बिना केवल अपनी किरणों के द्वारा पृथ्वी पर बरसाते हैं। हे प्रिय श्रेष्ठ! उसके स्पर्श मात्र से पाप रूप कीचड़ धुल जाती है, जिससे मनुष्य नरक प्राप्ति से बच जाता है। इसलिए इसे दिव्य स्नान कहा है।

दृष्टसूर्य यद्वारि पतस्य भ्रैविना दिवः।

आकाशगंगासलिलं तदूनोभिः क्षिप्यते रवेः।।

कृत्तिकादिषु ऋक्षेषु विषमेषु च यद्दिवः।

दृष्टाकं पतितं ज्ञेय तद्नाङ्ग दिग्गजोज्झितम।।

युग्मर्क्षेषु च योत्तयं पतत्तर्कोज्झतं र्दिवः।

तत्सूर्यरशिमभिः सर्व समादान निरस्यते।।

उभयं पुण्यं पुण्यंमत्यर्थ मृणां पापभयरहम।

आकाशगंगासलिलं दिव्यं स्नानं महामुने।।

सूर्य के दिखाई देते हुए मेघों के बिना हो जो जल वृष्टि होती है, वह आकाश गंगा का जल सूर्य की किरणों द्वारा ही बतलाता हुआ होता है। कृत्तिकादि विषय नक्षत्रों के बिना मेघों के तथा सूर्य के दिखाई देते हुए बरसने वाला जल भी आकाश गंगा का ही होता है। उसे दिग्गजों द्वारा हुआ समझो। सम संख्यक नक्षत्रों में सूर्य द्वारा बरसाया जाने वाला जल सूर्य की किरणों द्वारा ग्रहण करके ही पृथ्वी पर बरसाया जाता है। हे महामुने! आकाश गंगा के यह दो प्रकार के जलमय दिव्य स्नान है, यजन से मनुष्य के पापादि भयों का उन्मूलन होता है।


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