हिंदी में अंग्रेजी भाषा के शब्दों का अनावश्यक प्रयोग बढ़ा

By: Sep 15th, 2019 12:12 am

हिमाचल में मीडिया की ग्रोथ के साथ आए

भाषायी परिवर्तन – 1

अब वह जमाना नहीं रहा जब जालंधर, चंडीगढ़ या दिल्ली से प्रकाशित अखबार हिमाचल में आया करते थे। अव हिमाचल, खासकर कांगड़ा खुद एक मीडिया हब बन गया है। हिमाचल में अब यहीं से प्रकाशित अखबार बिकते हैं। मीडिया की इस ग्रोथ के साथ कई भाषायी परिवर्तन भी आए हैं। ये भाषायी परिवर्तन क्या हैं, इन पर दृष्टिपात करते विभिन्न साहित्यकारों के विचार प्रतिबिंब में हम पेश कर रहे हैं। पेश है इस विषय पर विचारों की पहली कड़ी…

अजय पाराशर

मो. – 9418252777

हिमाचल में मीडिया के विकास के साथ जो भाषाई परिवर्तन आए हैं, उनमें पहला उदाहरण तो यह शीर्षक ही हो सकता है, ‘हिमाचल में मीडिया की ग्रोथ के साथ भाषाई परिवर्तन क्या हुए?’ जाहिर है मीडिया के विकास के साथ हिंदी में अंग्रेजी भाषा के शब्दों के अनावश्यक और अनर्थक प्रयोग ही बड़े परिवर्तन माने जा सकते हैं। इसमें कोई दोराय नहीं कि हमें हिंदी में विदेशी भाषा के शब्दों के विरुद्ध नहीं होना चाहिए क्योंकि इससे भाषा तो समृद्ध होती ही है, दूसरे हिंदी की स्वीकार्यता को देश-विदेश में सहज और सरल रूप में लिया जाने लगा है। भले ही राजनीतिक तौर पर दक्षिण भारत में आज भी हिंदी का विरोध होता हो, लेकिन आम जनमानस को अब इसके वैश्विक महत्त्व को स्वीकार कर, उसे आम जीवन में अपनाने में कोई हिचक नहीं।

यह मीडिया का ही प्रभाव है कि हिंदी अब लगभग पूरे राष्ट्र की भाषा बनती जा रही है, जिसका उदाहरण है विभिन्न प्रतिस्पर्धी टीवी कार्यक्रमों में देश के लगभग सभी भागों के सभी आयु वर्ग के लोगों का उत्साह के साथ भाग लेना। लेकिन प्रश्न अब भी बाकी है कि हिमाचल में मीडिया के विकास के साथ आए भाषाई परिवर्तन। सबसे बड़ा अंतर तो यही है कि मीडिया के विकास के साथ अब आम लोग भी सहजता के साथ हिंदी में वार्तालाप कर लेते हैं। लहजा भले ही पहाड़ी हो, लेकिन जो सबसे बड़ा भाषाई नुकसान हुआ है, वह स्थानीय बोली का भी है। आज की अधिकतर पीढ़ी अपनी ही बोली में अपने आपको अभिव्यक्त करने में असमर्थ या असहज पाती है। दूसरे हिंदी और अंग्रेजी में तंग हाथ होने से भाषाई सौंदर्य में दिन-प्रतिदिन गिरावट आ रही है। इन सबकी सीधी सी वजह है, बुद्धि का न्यूनतम उपयोग और मेहनत का अभाव। खासकर, सोशल मीडिया में इस्तेमाल होने वाली ऊटपटांग भाषा, अशुद्ध वर्तनी और गलत व्याकरण का प्रयोग। हम लोग यह जानने की चेष्टा भी नहीं करते कि हम जिन शब्दों का प्रयोग कर रहे हैं, उनकी आवश्यकता, उपयोगिता और अर्थ क्या हैं? क्या महज पेड़ के तने का मोटा होना ही उसके विकास का सूचक हो सकता है? अगर उसकी लकड़ी में ऐंठन हो तो, उसे जलाना भी मुश्किल होता है। ऐसे में उससे सौंदर्य और फल-फूल की आशा करना भी व्यर्थ होगा। मीडिया के विकास के साथ आम बोल-चाल की भाषा में बढ़ते अश्लील शब्द, किसी भी संवेदनशील आदमी को व्यथित कर देते हैं। कुछ समय पूर्व जो शब्द आम भाषा में निषिद्ध थे, वे आज मीडिया के विकास के साथ हमारे जीवन में ऐसे प्रवेश कर गए हैं कि हम अपने अभिभावकों और बड़ों के समक्ष उनका प्रयोग करने से नहीं हिचकिचाते। अगर हम समय रहते नहीं चेते तो भाषाई गिरावट के साथ-साथ हमारे समाज में सभ्यता, शिष्टाचार, नैतिक मूल्यों और संवेदनशीलता के हृस को रोकना असंभव होता जाएगा।

भाषा के साथ होने लगा खिलवाड़

विजय विशाल

मो.-9418123571

नए संचार-माध्यमों ने संचार की दुनिया में एक क्रांति उपस्थित कर दी है। इन जनसंचार के विभिन्न साधनों में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया आज ऊंचाई पर है। उसके अंतर्गत रेडियो, टेलीविजन, सेटेलाइट टीवी, केबल टीवी, इंटरनेट, कम्प्यूटर, सिनेमा व मोबाइल जैसे डिवाइस आते हैं। नई प्रौद्योगिकी के साथ भाषा में भी बदलाव दिखाई दे रहा है। विशेष रूप से हिंदी भाषा का स्वरूप बदला है। हिंदी के क्षेत्र में विस्तार हुआ है। इतना तो तय है कि जो भाषा प्रौद्योगिकी के साथ-साथ नहीं चलेगी, उसका विकास भी नहीं होगा। वह भाषा पिछड़ जाएगी। नई सदी में भाषा के संदर्भ और स्वरूप नए प्रतीकों के रूप में सामने हैं। संचार और प्रसारण माध्यमों ने भाषा को एक नए रूप में प्रस्तुत किया है। बदलती हुई विश्व चिंतनधारा में आज भाषा का चेहरा हर पल बदलते हुए स्वरूप में सामने आता है।

प्रिंट मीडिया और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से आगे इंटरनेट की भाषा एक नई चुनौती दे रही है। मीडिया जगत में लेखन का सर्वाधिक महत्त्व है। यह लेखन ही सच्चे अर्थ में कहें तो जनसंचार कर्मी को मीडिया में स्थापित करता है और उसकी पहचान बनाता है। हिंदी एक विशाल भू-भाग की भाषा है। भूमंडलीकरण और आर्थिक उदारीकरण के दौर में इसका फलक और ज्यादा विस्तृत हुआ है। आज सभी विदेशी कंपनियां, देशी-विदेशी टेलीविजन चैनल हिंदी भाषा का प्रयोग कर रहे हैं, लेकिन इसकी प्रयुक्ति में बदलाच जरूर आया है। समाचार पत्रों की भाषा में यह परिवर्तन एक स्वाभाविक बात है, क्योंकि आम जनता तक इसकी पहुंच है। वहीं, यह भी सच है कि मीडिया खुद अपनी भाषा गढ़ रहा है। नई पीढ़ी तक अखबार पहुंचाने की आड़ में हिंदी में अंग्रेजी को प्रवेश करा दिया गया है। अधिकतर हिंदी अखबारों की भाषा हिंगलिश हो गई है। खबरों के शीर्षक हिंदी व अंग्रेजी को मिलाकर दिए जा रहे हैं। यह भी सच है कि इस बीच समाज की भाषा भी काफी बदली है और लगातार बदलती जा रही है। व्याकरण को न मानने वालों की मीडिया में तादाद बढ़ी है। इससे एक अनुशासनहीन भाषा संरचना विकसित हुई है। देशज शब्द के साथ-साथ अंग्रेजी शब्दों का प्रचलन बढ़ता ही जा रहा है और आज यह मीडिया और पत्रकारिता का हिस्सा बन चुका है। मीडिया की भाषा को लेकर, खासकर हिंदी भाषा के संदर्भ में कहूं तो अभी कोई मापदंड  या प्रारूप तय नहीं हो पाया है। जल्द से जल्द और पहले-पहल खबर पहुंचाने की होड़ में भाषा के साथ खिलवाड़ हो रहा है। समाचार हों या बहसें, हर जगह भाषा की टांग तोड़ी जा रही है। संक्षेप में कहूं तो मीडिया की ग्रोथ के साथ हिंदी में अनेक भाषाई परिवर्तन साफ  देखे जा सकते हैं।

हिंदी के साथ पहाड़ी भाषा को स्थान मिलने लगा

कुलदीप चंदेल

मो.-9318508700

एक जमाना था जब हिमाचल प्रदेश में पंजाब, चंडीगढ़ व दिल्ली से प्रकाशित होने वाले पत्र-पत्रिकाओं का बोलबाला हुआ करता था। लेकिन जब से इस पहाड़ी प्रदेश से भी समाचार पत्र प्रकाशित होने लगे हैं, तब से कई तरह के भाषाई परिवर्तन देखने को मिले हैं। सबसे बड़ा परिवर्तन तो यह हुआ कि अब पहाड़ी भाषा को भी स्थान मिलने लगा है। समाचारों के शीर्षक कई बार पहाड़ी भाषा को प्रतिबिंबित करते हुए सब कुछ स्पष्ट कर देते हैं जिससे पाठकों को अपनी माटी अपनी भाषा की सोंधी-सोंधी खुशबू का आभास होने लगता है। दिव्य हिमाचल ने तो हर जिला की संस्कृति से जुड़ने वाले शीर्षक से पृष्ठ की पहचान बनाई है। यही नहीं, दस-पंद्रह पंक्तियों में जिला में बोली जाने वाली पहाड़ी भाषा में सामयिक सामग्री प्रकाशित करने का प्रयोग भी सफलतापूर्वक किया है, जिसे पाठकों का भरपूर समर्थन मिला। पाठकों ने इसे हाथों-हाथ लिया। यह हिमाचल में मीडिया की ग्रोथ के साथ ही संभव हुआ है। इसके अतिरिक्त हिमाचल से प्रकाशित होने वाले समाचारपत्रों के शीर्षक यदा-कदा अंग्रेजी अक्षरों से भी भरे देखे जाने लगे हैं। ‘थैंक्स’ का प्रयोग आम तौर पर हो रहा है। यह ठीक नहीं है। इसकी जगह हिंदी में ‘धन्यवाद’ ही लिखा जाना चाहिए। इसी तरह टूरिस्ट इन्फारमेशन सेंटर की जगह पर्यटन सूचना केंद्र यदि शीर्षक में जाए तो अच्छा रहेगा। एक अखबार के शीर्षक में ‘ब्वॉयज होस्टलों में 246 लड़कों को मिली होस्टल सुविधा’ भी अच्छा नहीं लगता प्रतीत हुआ। यहां ब्वॉयज होस्टलों की जगह छात्र-छात्रावासों का प्रयोग किया जा सकता था। हिंदी के समाचारपत्रों में बोल-चाल वाली भाषा का प्रयोग हो तो ठीक है। समाचारपत्रों का दायित्व अच्छी, सुंदर, पठनीय हिंदी को प्रोत्साहित व प्रयोग में लाना होना चाहिए, न कि अंग्रेजी के उधार से लिए थैंक्स आदि, क्योंकि लोगों को कई बार कहते सुना जाता है कि अखबार में छपा है।

बोलचाल व मीडिया की भाषा में अंतर घटा

प्रो. शशिकांत शर्मा

मो.-7018738180

आज के बदलते दौर में हिमाचल में मीडिया के क्षेत्र में अग्रणी ग्रोथ हुई है। वहीं इस ग्रोथ के साथ एक भाषा के साथ कई भाषाओं को आपस में जोड़ा जा रहा है। इससे धीरे-धीरे अब मीडिया में कामचलाऊ भाषा का प्रयोग ज्यादा होने लगा है। मीडिया में बोलचाल व भाषा में अंतर जरूरी है। हमें मीडिया में साधारण बोलचाल में होने वाले शब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिए। इस बात में दो राय नहीं कि हिमाचल में पिछले तीन से चार वर्षों में सैकड़ों नए चैनल व ऑनलाइन पोर्टल खुले हैं। भिन्न-भिन्न तरह के न्यूज चैनल, वेबसाइट्स व अखबार लोगों तक कई नई सूचनाएं पहुंचा रहे हैं। लेकिन बड़ा चिंतनीय विषय है कि सबसे पहले सूचनाएं देने के चक्कर में असली हिंदी व अंग्रेजी भाषाओं के संतुलन को बनाए रखना कहीं न कहीं आज मीडिया भूल रहा है। हिमाचल में भी मीडिया नए ट्रेंड को अपना रहा है। हिमाचल में हिंदी व अंग्रेजी के इक्का-दुक्का मीडिया सेंटर को छोड़ हर जगह कामचलाऊ भाषाओं का प्रयोग हो रहा है, जो कि एक बड़ा चिंतनीय विषय है। आईएएस व एचएएस की तैयारी करने वाले युवा भी भाषाओं के ज्ञान के लिए अखबार को ज्यादा पढ़ते हैं। बहुत ही आहत होकर कहना पड़ रहा है कि सूचनाएं जल्दी व अपने मीडिया सेंटर की टीआरपी बढ़ाने के लिए जल्दबाजी में बोलचाल की भाषाओं का प्रयोग हो रहा है। हालांकि यह भी साफ  है कि हिमाचल में युवाओं में भाषायी ज्ञान बढ़ा है। अलग-अलग तरह की भाषाएं सीखने के लिए युवाओं में क्रेज है। ऐसे में प्रदेश के अधिकतर संख्या में युवा वर्ग मैगजीन, न्यूजपेपर का सहारा हिंदी व अंग्रेजी भाषा सीखने के लिए ले रहे हैं। मीडिया के विभिन्न सेंटर हिंदी, अंग्रेजी, बंगाली, पंजाबी व जो भी भाषा हो, लेकिन उसमें शब्दों का सही चयन होना चाहिए। हिमाचल में हिंदी भाषा को ज्यादा तवज्जो दी जाती है, इसीलिए मेरा मानना तो यही है कि प्रदेश में हिंदी भाषा के ऐसे शब्दों का प्रयोग होना चाहिए, जिसका सही मायनों में कोई अर्थ भी निकले और युवाओं को भाषायी ज्ञान बढ़ाने में उपयोगी भी साबित हो सके।

सिडनी के शहर में लघु भारत का दृश्य

शेर सिंह

साहित्यकार

सिडनी में आए आज दो सप्ताह से अधिक समय हो चुका था। 15 सितंबर को घर से लगभग 15-20 किलोमीटर दूर फ्लिंग्टन सब्जी मंडी को गए थे। भारतीय संदर्भ में कहें तो साप्ताहिक हाट, सब्जी मंडी अथवा मछली बाजार! मंडी की बहुत बड़ी बिल्डिंग है। उतना ही विस्तृत वाहन पार्किंग एरिया और लंबा-चौड़ा, कई खंड-भाग तथा उनमें ठसाठस भरे फार्म फ्रेश फल तथा सब्जियां। अर्थात सीधे खेत से अथवा पेड़ों से लाए, तोड़े सब्जियां-फल-फूल आदि आदि! इनको बेचने वाले अंग्रेज, चीनी, भारतीय, पाकिस्तानी, थाईलैंडी और पता नहीं कौन-कौन? अपने देश भारत की तरह जोर-जोर से आवाजें लगाते, बोलते, बोली लगाते स्टॉल के मालिक और सेल्समैन! चीनी, भारतीय, पाकिस्तानी, शायद मालिकों की ओर से नियुक्त सेल्समैन!  खरीददारों में दुनिया भर के लोग। गोरे-काले, सांवले-गेहुंए, भूरे-पीले, ऊंचे-छोटे, मोटे-पतले। मोटी-मोटी आंखें, छोटी-छोटी आंखें! लंबी नाक, चपटी नाक, उभरे गाल, पिचके गाल। फुल पेंट, हॉफ  पेंट, कुर्ते-पजामे, टी शर्ट-जीन्स पहने। हाथ में ट्रॉली अथवा सब्जियों से भरे बैग उठाए भीड़ में से रास्ता बनाते! गिरते, पड़ते लोग! पूरा माहौल वाकई में, सही मायनों में एक व्यस्त सब्जी मंडी का दृश्य पैदा कर रहा था। मनुष्य चाहे तो कहां नहीं पहुंच सकता है? जहां चाहे, जा सकता है, पहुंच सकता है। बस, इच्छा शक्ति, उत्साह, उमंग और जोश होना चाहिए। लेकिन कहीं भी पहुंचा जाए, कहीं भी जाया जाए, बेशक एक महाद्वीप से दूसरे महाद्वीप में भी।

फिर भी लगता है कि यह दुनिया वास्तव में ही गोल है। बस लट्टू की तरह घूम रही है! 16 सितंबर, 2018 रविवार का दिन था। आज मंदिर-गोंपा, नदी-समुद्र देखने का मन बनाया था। मन क्या, बल्कि कार्यक्रम पहले से ही तैयार कर लिया था। सुबह के 9.00 बजे अर्ट्रामॅन के जर्सी रोड से बालाजी मंदिर में दर्शन के लिए निकल पड़े थे। मंदिर सिडनी से लगभग 60 -75 किलोमीटर दूर हेलेंस्वर्ग में है। हेलेंस्वर्ग बिल्कुल समुद्र के किनारे स्थित है। रविवार होने के बावजूद सड़कों पर बहुत ट्रैफिक था। लगता था, हर कोई वीकएंड मनाने के लिए घर से बाहर निकल चुका है। सड़क कहीं-कहीं चार लेन की, कहीं छह लेन, कहीं आठ लेन! जगह-जगह सिग्नल। लेकिन कोई भी जल्दी के चक्कर में सिग्नल को तोड़ नहीं रहा था। कोई किसी को ओवरटेक भी नहीं कर रहा था। लेकिन आश्चर्य! आपस में किसी प्रकार का कोई संवाद भी नहीं! कोई ट्रैफिक पुलिस या चेकिंग नहीं! सड़क के दोनों ओर सुंदर घर। घर के साथ उतना ही सुंदर फुलवारी! हाईवे से सटे घरों तक में कोई बाऊंडरी वॉल, ऊंचे गेट, फाटक तक नहीं! जहां घर नहीं, वहां घने पेड़! अधिकतर युक्लिप्टस, अशोक और ऐंगोफोरा के। रास्ते में छोटे-छोटे गांव। वैसे ही छोटे-छोटे लकड़ी के बने घर। बहुत सुंदर, आकर्षक घरों की ढलानदार छतों में, बाहर को आकाश झांकती चिमनियां! तंदूर में आग जलाने पर धुआं बाहर उगलने हेतु चिमनियां! जिन्हें हम हिमाचल प्रदेश में नडू यानी नली कहते हैं। मुझे कुल्लू-लाहुल के अपने तंदूर वाले घरों की याद हो आई।

कुल्लू-लाहुल में शीत ऋतु के दौरान कड़ाके की ठंड और बर्फ  से बचाव हेतु जलावन वाली लकडि़यां तंदूर में डालकर ठंड से बचने का प्रयास करते हैं। धुआं नडू यानी नली से बाहर निकल जाता है। बिल्कुल वैसे ही, यहां के घर दिख रहे थे। हम ज्यों-ज्यों आगे बढ़ रहे थे, घना जंगल और भी घना होता जा रहा था। परंतु हैरानी हो रही थी। सड़क पर न कहीं तिनके का टुकड़ा था, न ही कहीं पत्थर या मिट्टी! कोलतार की चिकनी, सपाट सड़कें। सड़क पर केवल दौड़ती गाडि़यां तथा प्रदर्शित किए दिशा संकेतों, निर्देशों के अतिरिक्त और कुछ नहीं! जब वेंकटेश्वर मंदिर में पहुंचे तो सुबह के 10.00 बजे से अधिक का समय हो चुका था। मंदिर के पार्किंग में, सड़क के किनारे सैकड़ों की संख्या में विभिन्न प्रकार की मोटरकारें खड़ी थीं। पार्किंग के लिए हमें मुश्किल से बाहर ही सड़क के एक किनारे जगह मिली। मंदिर के अंदर हमारे प्रवेश से पहले ही हवन संपन्न हो चुका था। वेंकटेश्वर मंदिर बाहर से जितना भव्य और आकर्षक दिख रहा था, उतना ही भीतर से कलात्मक बनावट के कारण सुंदर तथा दर्शनीय था।

अंदर हर ओर भारतीय चेहरे ही दिख रहे थे। युवा, अधेड़, बूढ़े, युवक-युवतियां, पुरुष-स्त्रियां! अपने-अपने पारंपरिक वेश-भूषा में! अधिकांश स्त्रियां साड़ी-सलवार में। कुछ पश्चिमी लिबास में भी! मंदिर के अंदर का दृश्य सुंदर, आकर्षक तथा भव्य तो था ही, इस समय तरह-तरह के परिधानों में सजे स्त्री-पुरुष अपने ललाटों, माथों पर कुमकुम, चंदन, पवित्र भस्म से विभिन्न आकारों के तिलक लगाए अथवा चिन्ह बनाए, कुर्सियों पर बैठे या खड़े थे। चहल-पहल से भरा-भरा बड़ा ही खुशनुमा माहौल था। इस समय भीड़ गणेश भगवान के संपन्न हो रहे अभिषेक स्थल पर अधिक थी। दोनों हाथ जोड़े, भक्ति भाव में डूबे। क्या बच्चे, क्या बड़े, क्या स्त्री, क्या पुरुष, सभी दो लाइनों की लंबी क्यू में खड़े पुजारी के द्वारा मंत्रोच्चारण करते और गणेश भगवान को भिन्न-भिन्न द्रव्यों से अभिषेक करते देख, अभिभूत हो रहे थे। लगता था यह ऑस्ट्रेलिया का हेलेंस्वर्ग नहीं, बल्कि दक्षिण भारत का कोई देवस्थान है। वैसे मंदिर में अधिसंख्या दक्षिण भारतीयों की ही थी। लेकिन भारतवासियों का यह जैसे संगम स्थल लग रहा था। कोई तमिल में, कोई मलयालम में, कोई मराठी में, कोई हिंदी में, कोई कन्नड़ में, कोई तेलुगू में, कोई गुजराती में, कोई बंगला में, कोई पंजाबी में आपस में बात कर रहे थे। चार-पांच परिवार के पुरुष सदस्य पगड़ी बांधे हुए थे। वे पंजाबी भाषी सिक्ख थे। 100-150 किलोमीटर से भी अधिक दूर-दूर से लोग आए हुए थे। लगता था लघु भारत यहीं है। अपने पारंपरिक नेपाली टोपी पहने कुछ नेपाली परिवार भी थे। मंदिर के भीतरी कक्ष में गणेश भगवान, शिव-पार्वती, मां दुर्गा, भगवान मुरूगा, देवी सरस्वती, बालाजी भगवान, त्रिपुरारी सुंदरी, हनुमान जी इत्यादि अराध्य देवी-देवताओं की मूर्तियों, आकृतियों की भव्यता से पूजास्थल जगमग कर रहा था। जैसा कि पहले उल्लेख किया, आज रविवार का दिन था और गणेशोत्सव, गणेश चतुर्थी का चौथा दिन था। लोग अपने घरों में इस अवसर पर स्थापित की गई गणेश भगवान की छोटी-छोटी मूर्तियां अपने साथ लेकर आए हुए थे। अब उन्हें भी यहां मंदिर प्रशासन द्वारा गणेश भगवान की मूर्ति विसर्जन के साथ ही सामूहिक विसर्जन में शामिल होना था। हमने अंदर पूरे मंदिर की परिक्रमा की। सच्चे अर्थों में, यह लघु भारत द्वारा आयोजित अपनी तरह का एक बहुत ही भव्य उत्सव था। सब प्रसन्नचित्त, उल्लसित मुख से एक-दूसरे को देख और मुस्कुरा रहे थे। मंदिर के भीतर से बाहर आए, तो मराठी समाज द्वारा मंदिर के प्रांगण में युवा लड़के, लड़कियां ढोल, ताशे को पूरे जोश और उत्साह से बजाते हुए गणपति बप्पा मौरया की आवाज बुलंद कर रहे थे। वे गोल घेरा बनाए, बजते ढोल, ताशे की थाप और धुन पर नाच रहे थे। लड़कियों को पूरे जोश के साथ ढोल और ताशे बजाते देख आनंद आ रहा था। घेरे में आधे लड़के और उतनी ही लड़कियां थीं। सुर-ताल से बजते ढोल, ताशे की उठती, गूंजती कर्णप्रिय स्वरलहरियों से उत्साहित होकर दर्शकों की भीड़ में से कुछ लोग भी मौज में भरकर, नाचते-बजाते उन युवा लड़के, लड़कियों के गोल घेरे में शामिल हो गए थे। लड़कों ने उमंग में भरकर अब और भी तेज गति से नाचना शुरू कर दिया था। लोकधुनों की मधुर स्वर, कर्णप्रिय संगीत के साथ सबके कदम लयबद्ध होकर ऊपर-नीचे हो रहे थे। सबके शरीर स्पंदित हो उठे थे। लोककला में लोगों को बांधे रखने की जबरदस्त ताकत होती है।     

-(शेष अगले अंक में)

सफर की फिक्र में भारत भूषण ‘शून्य’

स्वतंत्र लेखक

यहां सभी यात्री हैं, मुसाफिर होने की इस नियती से विलग नहीं हुआ जा सकता। आप लाख अपने उद्देश्य  या मंतव्य बताते फिरें, आपका यहां सदा बने रहना असंभव है। इस नुक्ते को भुलाकर ज्ञान की कितनी डींगें हांकते फिरें, आपकी समझ का जनाजा निकलता रहेगा। दूसरों को यात्री और खुद को यात्रा का एकमात्र लक्ष्य घोषित करने की लालसा सत्ता के आंगन में ही संभव है। राजनीति की कथित सामाजिक आंख में यह सच्चाई कभी समा नहीं सकती और यही इस खेल की नामुराद ढिठाई है। अपने ही दलगत साथियों को स्थायी विदाई देते रहने के बावजूद हम अपनी मजबूती में संलग्न बने रहते हैं जैसे उनका जाना हमारे मंतव्य की पूर्ति भर है। अपने प्रति जागरूक न होने की इस श्रेणी को हम अपनी विशिष्टता बताकर किसे धोखा दे रहे हैं, कोई नहीं जानना चाहता। जीवन के इस एकमात्र सच से आंखें चुराकर हम शेष सभी कथित तथ्यों को बड़ा नहीं कर सकते। आपके जीने की अथाह ललक का मतलब यह नहीं कि आपको जिंदगी भी अनंत हो गई। जिन्हें कल तक समाज या देश के लिए अपरिहार्य समझा जा रहा था, वे आज भुला देने के कगार पर हैं। आप भी इसी गिनती के विन्यास के भीतर बने रहेंगे। आपकी लाख कोशिशें इन नग्न सच्चाई को ओझल नहीं कर सकती। राजधर्म या सेवाधर्म की सभी संभावनाएं इस स्रोत से नहीं उपज रही तो याद रखिए आपको दुलत्ती लगाने में अगली पीढ़ी तैयार खड़ी है। जिद को कंधे पर बिठा कर लिए गए सभी निर्णय अपनी इसी विसंगति से गिरने की दिशा तय कर लेते हैं। मानवता का सत्कार स्थापित करने के लिए अपनी हांकने को छोड़ना पहली और आखिरी शर्त है। क्या हम इस मानवीय पहलू को जानने की कभी ईमानदार कोशिश करेंगे?

कविता : गरीब की जिंदगी

बेरी के झाड़ में

उलझ कर रह गई

गरीब की जिंदगी

निकालता है, मुश्किल से

एक कांटा… अगले ही क्षण

अनेक कांटों से उलझ जाती

गरीब की जिंदगी…..।

जूझते झुंझलाते हर पल

मन मसोसने को है

गरीब की जिंदगी

गाली को वरदान

नित मिट्टी में रुलना…पर

दो जून और कपास को तरसती

गरीब की जिंदगी…।

दबंगों के साए…. कहां

कलियों का खिलना…कितनी घिनौनी

गरीब की जिंदगी…

न इज्जत न आबरू… बस

समर्पण और शर्मिंदगी…यूं

साहूकारी में गिरवी….है

गरीब की जिंदगी…।

न आशा न उल्लास

लाचारी की व्यथा कथा है

गरीब की जिंदगी…

सामाजिक विसंगतियों में

सरकती… हांफती…दम तोड़ती

गरीब की जिंदगी…।

-डा. शंकर वासिष्ठ, सोलन, हिमाचल प्रदेश


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