कड़े फैसलों के पीछे सरकार

By: Oct 29th, 2019 12:05 am

बसंत हेतमसरिया

स्वतंत्र लेखक

वर्तमान केंद्र सरकार द्वारा जनहित (?) की दुहाई देकर कई कड़े फैसले लिए गए हैं। जब कभी सरकार यह कहती है कि कड़े निर्णय लेने होंगे तो इसका अर्थ यही समझा जाता है कि किसी क्षेत्र विशेष में समस्या बड़ी गंभीर हो गई है और सरकार मानती है कि सामान्य तरीके से उसका निदान संभव नहीं है। अकसर सरकार के ऐसे कदमों का खामियाजा जनता को ही भुगतना पड़ता है। कभी, कोई कड़े कदम सरकार या प्रशासन में बैठे लोगों को कष्ट नहीं देते। सरकार की ऐसी घोषणा कुछ इस अंदाज में होती है, जैसे वह जानती हो कि ऐसे कदमों से जनता को परेशानी तो होगी, फिर भी वह मजबूरी में कठोर कदम उठाने के लिए विवश है। वह यह जताना चाहती है कि लोगों की ऐसी किसी समस्या के समाधान के लिए वह इतनी कृत-संकल्पित है कि लोगों को नाराज करने का खतरा तक उठा रही है और आशा करती है कि लोग इसे समझेंगे। असल में इस तरह की बात करके सरकार चालाकी से कई चीजें साध रही होती है। इसे समझने के लिए हम इसी साल एक सितंबर से लागू हुए नए ‘मोटर व्हिकल एक्ट’ के ताजा उदाहरण को लें। यह सही है कि लगभग पूरे भारत के महानगरों, शहरों में ही नहीं, छोटे-छोटे कस्बों में भी ट्रैफिक जाम से सड़क पर चलने वाला हर नागरिक परेशान है। मिनटों के सफर में घंटों लग जाना आम बात हो गई है। सरकार अपनी तरफ  से और कई बार अदालतों के निर्देश पर तरह-तरह की कोशिशें करती दिखाई देती है, पर विशेषज्ञता या प्रयास में गंभीरता की कमी हो या कोई और वजह, हालात सुधरने की बजाय बिगड़ते ही दिखते हैं। ट्रैफिक जाम की इस गंभीर समस्या के साथ सड़क सुरक्षा को जोड़कर सरकार ने नया कानून लागू किया है। इसमें ट्रैफिक नियमों का उल्लंघन करने पर वाहन चालकों पर पहले की तुलना में जुर्माने की राशि में 30 गुना तक बढ़ोतरी की गई है। ‘केंद्रीय सड़क और परिवहन मंत्री’ नितिन गडकरी ने इस भारी-भरकम बढ़ोतरी पर सफाई देते हुए कहा है कि सरकार का मकसद लोगों पर ज्यादा जुर्माना लगाना नहीं है। सरकार चाहती है कि सड़क दुर्घटनाएं कम हों ताकि लोगों की जान बच सके। देश में हर साल लगभग पांच लाख सड़क दुर्घटनाएं होती हैं, जिनमें तकरीबन डेढ़ लाख लोग जान गंवा बैठते हैं। मजे की बात यह है कि ट्रैफिक समस्या से परेशान देश के नागरिकों का एक तबका इस शुल्क-वृद्धि को उचित मान रहा है। इस मामले में गौर करने की बात यह है कि वाहन चालकों पर एकतरफा जुर्माना बढ़ाकर सरकार ने सड़क दुर्घटनाओं, ट्रैफिक जाम एवं सड़क से जुड़ी तमाम समस्याओं के लिए वाहन चालकों को ही दोषी ठहराकर अपना पल्ला झाड़ लिया है। टूटी-फूटी एवं खराब तरीके से बनी अपर्याप्त सड़कें, उन पर अव्यवस्था, पैदल एवं गैर-मोटर वाहनों के चलने के लिए सड़क पर पर्याप्त एवं सुरक्षित जगह की कमी, खराब ट्रैफिक सिग्नल, ट्रैफिक व्यवस्था की बदहाली, भ्रष्ट एवं अक्षम ट्रैफिककर्मी जैसे कारण, जो ट्रैफिक जाम एवं सड़क दुर्घटनाओं के लिए कम जिम्मेदार नहीं हैं, और जिन्हें दुरुस्त करना सरकार की जवाबदेही है, से सरकार ने आराम से किनारा कर लिया है। इस कानून को लागू करते समय इस बात का जिक्र भी नहीं किया गया कि वह ट्रैफिक जाम या सड़क दुर्घटनाओं से निपटने के लिए खुद क्या करेगी। जुर्माने से मिलने वाली बड़ी राशि का सरकार क्या करेगी यह तो अभी स्पष्ट नहीं ही है, पर वर्षों से सड़क परिवहन को बेहतर बनाने के नाम पर पेट्रोलियम ईंधन पर लगने वाले ‘सेस’ के माध्यम से सरकारी कोष में जमा होती रही विशाल राशि का कितना इस निमित्त उपयोग हुआ, यह भी जानने का विषय है। कानून ठीक से लागू हों तो स्थिति में सुधार के लिए पहले के कानून ही पर्याप्त हैं। सरकार जनता पर शिकंजा कसने के लिए कड़े कानून बनाती है जिनसे समाधान नहीं होता, सिर्फ  भय पैदा होता है। इन्हें लागू करने का सिस्टम सही न हो तो ये कारगर तो नहीं ही होंगे उलटे पदाधिकारियों के आतंक और भ्रष्टाचार को और बढ़ाएंगे। सरकार के दूसरे कड़े फैसलों की असलियत भी ऐसी ही है। लगभग तीन वर्ष पूर्व काला धन निकालने, जाली नोट की समस्या से निपटने, आतंकवाद को समाप्त करने, अर्थव्यवस्था को ‘कैश-लैस’ करने जैसे उद्देश्य बताकर नोटबंदी जैसा अप्रत्याशित कदम उठाया गया था। इसकी वजह से पूरा देश परेशानी में पड़ा था, कई लोगों को नोट बदलवाने के चक्कर में जान से हाथ धोना पड़ा, लेकिन फिर भी किसी भी घोषित उद्देश्य का लेशमात्र भी हासिल न हो सका। इतनी बड़ी असफलता और देश के हर नागरिक को परेशानी में डालने वाले इस फैसले पर सरकार ने ढिठाई दिखाते हुए देश से खेद तक व्यक्त नहीं किया। आज देश की अर्थव्यवस्था गंभीर मंदी की चपेट में दिख रही है जिसकी वजह बगैर सही तैयारी के ‘जीएसटी’ को लागू करने एवं नोटबंदी को माना जा रहा है। ऐसी सारी परेशानियों के बावजूद यह जरूरी है कि सरकार को देश की बेहतरी के लिए इतनी गुंजाइश दी जाए कि वह कड़े फैसले ले सके। पर तब सरकार से भी यह अपेक्षा होगी कि वह जब भी ऐसे फैसले ले, उसके पीछे के उद्देश्य सही हों, वे वही हों जो सार्वजनिक रूप से घोषित किए गए हैं और उनके पीछे कोई छिपा हुआ इरादा न हो। ऐसा विचार इसलिए आता है कि राजनीति में अब न तो पारदर्शिता रह गई है और न ही यह अब सीधी लकीर पर चलती है। कडे़ फैसलों को देखें तो घोषित उद्देश्यों से इतर एक ऐसा प्रयास दिखता है, मानो सरकार जनता पर हावी होना चाहती है। ऐसे फैसलों से सरकार के चाहे-अनचाहे देश में एक अफरा-तफरी का माहौल खड़ा होता है। असम में लागू होने वाला ‘राष्ट्रीय नागरिकता पंजी’ (एनआरसी) एवं जम्मू-कश्मीर से ‘धारा 370’ खत्म किए जाने के फैसले भी इसी श्रेणी के हैं। सत्ताधारी पार्टी एवं सिर्फ  राष्ट्रीयता के नजरिए से देखें तो इस फैसले को साहसिक और अपेक्षित मानना और पार्टी समर्थकों द्वारा इसका स्वागत करना स्वाभाविक है, परंतु इन फैसलों के प्रभाव को मानवीय दृष्टि से देखें तो चिंता होती है और इन पर कई सवाल खड़े हो जाते हैं। सरकार द्वारा हाल में लिए गए ऐसे कई अन्य फैसलों से भी ऐसी आशंका को बल मिलता है। कानून को न मानने पर दंड का प्रावधान एक व्यवस्थित समाज व्यवस्था के लिए जरूरी है, पर जब दंड तालिबानी कठोरता के हो जाएं तो इसका यही अर्थ होगा कि इनका उद्देश्य अव्यवस्था रोकने की बजाय लोगों में भय पैदा करना है। यह एक संभावना है जिसे नजरंदाज नहीं करना चाहिए और ऐसा ही है तो सोचने की बात है कि एक लोकतांत्रिक देश में एक चुनी हुई सरकार ऐसा क्यों कर रही है, उसकी मंशा क्या है? वैसे भी इस देश ने तालिबानी दंड व्यवस्था की सदा भर्त्सना की है और उसे सभ्य समाज के लिए अस्वीकार्य माना है। किसी लोकतांत्रिक देश में जब सरकार राग-द्वेष के आधार पर फैसले लेती दिखे, उसके फैसले जनता की आकांक्षाओं को परिलक्षित करते न दिखें, उनमें लोकहित और मानवीय मूल्यों का अभाव हो और उन पर सरकार स्पष्टीकरण देने से बचे या उसका जवाब असंतोषजनक और अपर्याप्त हो तो यह देश के लिए चिंता की बात है और इस पर तत्काल गौर करने की जरूरत है।


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