कांगड़ा में खुली लीडरशिप के खालीपन की पोल

By: Oct 5th, 2019 12:30 am

शिमला – राजनीतिक दलों के कमजोर प्रबंधन से विधानसभा उपचुनावों में कांगड़ा के लीडरशिप के खालीपन की पोल खुल गई है। कांगड़ा के भगवा दुर्ग में पांच दशकों तक भाजपा का पताका फहराने वाले शांता कुमार का कद अब बौना दिखने लगा है। इस बीच पार्टी ने किसी दूसरे नेता को खड़े होने ही नहीं दिया। इस कारण प्रदेश का सबसे बड़ा जिला अपने घर में कद्दावर नेता को ढूंढ रहा है। भाजपा की तर्ज पर कांग्रेस में भी लीडरशिप का वैक्यूम खड़ा हो गया है। किसी समय पंडित संतराम और फील्ड मार्शल सत महाजन के सियासी कद ने कांगड़ा को प्रदेश की राजनीति में इक्कीस बना दिया था। इसके बाद चौधरी चंद्र कुमार जिला कांगड़ा में ताकतवर नेता के रूप में उभर कर सामने आए। ओबीसी के कुनबे से निकले चंद्र कुमार के बाद जीएस बाली ने लीडरशिप की कमान संभाली। अपने सियासी कौशल और कुशल प्रबंधन से कांगड़ा को सियासी धुरी में लाने वाले जीएस बाली अब अपने स्वास्थ्य से जूझ रहे हैं। उनके समानांतर अपना सियासी कद बनाने वाले सुधीर शर्मा का यकायक राजनीति से लुप्त होना से कांग्रेस की लीडरशिप के लिए भयंकर संकट खड़ा हो गया है। इस कारण उपचुनाव में कांग्रेस के लिए जिला की लीडरशिप का खालीपन अंदरखाते चुनौती बना है। उधर, लोकसभा चुनावों में टिकट कटने और पालमपुर में प्रवीण शर्मा का प्रेम और धर्मशाला में राजीव भारद्वाज का स्नेह शांता कुमार के सियासी कद को बौना कर गया। भाजपा में शांता कुमार के कई अघोषित उत्तराधिकारी राज्याभिषेक से पहले ही सियासी गलियारों से गायब हो गए। बैजनाथ से पंडित परिवार को सियासी मात देकर चमके दूलो राम ने जिला की लीडरशिप के लिए अपना मजबूत दावा पेश किया। चुनावों में हार और विवादों के कारण उनका सियासी सफर पुनर्सीमांकन में समाप्त हो गया। इसके बाद किशन कपूर और राजन सुशांत अपनी अक्रामकता के साथ कई बार जिला के नेता के रूप में आगे बढ़े। अपनी ही सरकारों से टकराव और संगठन में तालमेल की कमी के चलते इन नेताओं को भी अपने सियासी कद की ऊंचाई नहीं मिल पाई। धूमल राज में रविंद्र रवि ताकतवर नेता के रूप में उभर कर सामने आए। पिछले चुनावों की हार ने उन्हें भी हाशिए पर धकेल दिया। इस बीच ओबीसी नेता के रूप में रमेश धवाला की जिला में एक लीडर के रूप में परवरिश हुई। इन्हें भी संगठन और धूमल टकराव का ग्रहण लग गया।

दोनों के लिए खतरे की घंटी

नई भाजपा में विपिन सिंह परमार के सियासी कद में निखार आ रहा है, लेकिन दिग्गजों की उपस्थिति में लीडरशिप का तमगा उन्हें भी हासिल नहीं हो रहा है। लिहाजा कांगड़ा में लीडरशिप का खालीपन भाजपा-कांग्रेस के लिए खतरे की घंटी है।


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