जाना ठुणिये का शहर

By: Oct 6th, 2019 12:05 am

हिमाचल प्रदेश के आधुनिक व्यंग्य परिदृश्य में रत्न सिंह ‘हिमेश’ ने व्यंग्य की परिमार्जित शुरुआत की। आरंभ में हिमाचल प्रदेश सरकार के ‘साप्ताहिक गिरिराज’ में उन्होंने ‘मैं भी मुंह में जुबान रखता हूं’ से अपनी व्यंग्य यात्रा का श्रीगणेश किया जो ‘सूर्य’ के ‘ठुणियानामा’ से होता हुआ जनसत्ता के ‘ठगड़े का रगड़ा’ तक हिंदी और शिमला क्षेत्र के आसपास की बोली के मिश्रण में अबाध चलता रहा। अब वह इस दुनिया में नहीं हैं, किंतु उनकी यादों को संजोते हुए हम यहां ‘ठुणियानामा’ के तहत प्रकाशित उनके व्यंग्य लेख ‘जाना ठुणिये का शहर’ को प्रकाशित कर रहे हैं। यह आलेख हमें उनकी बेटी ने उपलब्ध करवाया…

रतन सिंह ‘हिमेश’

का फाइल चित्र

जिस दिन ठुणिया राम शिमले आया उस दिन शिमले में बिजली-पानी बंद था। ठुणिये ने किसी आदमी का हुक्का-पानी बंद होना तो सुना था लेकिन किसी शहर का बिजली-पानी बंद होना नहीं सुना था। वो बहुत हैरान था। उसे याद आया कि बचपन में उसी के गांव के ख्याली राम का हुक्का पानी बंद हुआ था। खूब गहमा-गहमी हुई थी। रोज़ घर-घर में मीटिंगें होती थीं। ख्याली राम ने कसूर किया था। इसलिए उसका हुक्का-पानी बंद होना चाहिए। दया राम की लड़की की शादी थी। लड़की की शादी हो तो हर गांव-वासी, भाई-बडार, रिश्तेदार-सरीक सभी का सहयोग जरूरी था। लेकिन राम सिंह ने घोषणा की थी कि अगर दयाराम की लड़की की शादी में ख्याली राम को बुलाया गया तो गांव का कोई भी आदमी शादी में शामिल नहीं होगा। बस यहीं से झगड़ा शुरू हुआ था। जितने मुंह उतनी बातें, जितनी बातें उतनी बात उलझती जाती थी। बिरादरी में मुकद्दमा पेश हुआ था कि क्योंकि ख्याली राम ने राम सिंह की लड़की को पड़ौस के एक लड़के के साथ भगाने में मदद की थी, इसलिए ख्याली राम का हुक्का-पानी बंद होना चाहिए। दयाराम की लड़की की शादी ज्यों-ज्यों नजदीक आती त्यों-त्यों ख्याली राम का केस उलझता जाता था। आखिरकार फैसला हुआ — ख्याली राम का हुक्का-पानी बंद। शादी हुई और बात आयी-गयी हो गयी। लेकिन शिमले ने किस की बेटी को भगाने में मदद की कि उसका बिजली-पानी बंद हुआ? अजब बात थी! दिन भर शहर भर में चाय का एक कप हासिल करना मुश्किल हो गया। शहर भर में हंगामा रहा। लोग जुलूस बनाकर शहर की गलियों में घूमते रहे। नारे लगाते रहे। -हमारी मांगें पूरी करो! -कर्मचारी एकता जिंदाबाद! – जो हमसे टकरायेगा, चूर-चूर हो जाएगा!

ऐसे सैकड़ों नारे, सैकड़ों कण्ठों की मिली-जुली आवाजें, सैकड़ों बाजुओं का हवा में एक साथ उठना। ठुणिये के लिए नया अनुभव। इन लोगों से कोई क्यों टकरायेगा? कैसे चूर-चूर हो जायेगा? ठुणिया जुलूस से दूर हो गया। इनसे कोई टकरा तो नहीं रहा है, ऐसा न हो कि कोई इनसे टकराए ही ना और ठुणिया सामने पड़ जाये और चूर-चूर हो जाए तो क्या होगा? ठुणिया डर कर आढ़ती की दुकान में घुस गया। शाम हुई। सड़कों पर अंधेरा, घरों में अंधेरा। दुकानों और घरों में मोमबत्तियां टिमटिमाने लगीं। सड़कों पर नौजवान बिफरे हुए बैल की तरह घूमने लगे। लड़कियां और औरतें सहमी-सी, घबराई-सी बच कर चलने लगीं। ठुणिया हैरान और परेशान। जब गांव पहुंचा तो शिमले के बिजली-पानी बंद के किस्से सुनाने लगा – ‘याद है न ख्याली राम का हुक्का-पानी बंद हुआ था? उसे फिर बिरादरी को धाम देनी पड़ी थी, तब कहीं जाकर उसका हुक्का-पाणी खुला था। शिमले का भी बिजली-पाणी बंद हुआ। हुक्का तो वहां कोई पीताई नहीं। इसलिए हुक्का-पाणी तो नहीं बिजली-पाणी बंद हुआ। क्यों? पता नहीं चला। शिमले ने कोई खास कसूर किया होगा। रात के अंधेरे में शिमला कैसा लगता है? अजी बस जैसे गांव का जंगल जहां गीदड़ हुआ-हुआ किया करते हैं। शिमले में भी वो शोर था, वो शोर था कि पूछो ना?’ ‘माल पर लागा एक धक्का इधर अरौ एक उधर। न जाने मुझे कैसे भीड़ से धक्का लगा कि एक खूबसूरत लड़की से जा टकराया। मैंने डर कर कहा —बहण जी, माफ करना उधर से धक्का लगा था।’ ओ घबरा-कर तेज-तेज कदम उठाती हुई आगे बढ़ गयी। मेरा जो ऊपर का सांस ऊपर था और नीचे का नीचे वो संभल गया। बहण जी तो क्या थी। मेरी लड़की के बराबर थी। मगर डर के मारे मेरे मुंह से ‘बहण जी’ निकल गया। खूबसूरत? मगर थी बेचारी गरीब। पूरा कपड़ा खरीदने के लिए उसके पास पैसे नीं थे। इसलिए जो थोड़ा-सा कपड़ा खरीद सकी थी, उससे उसका आधा जिस्म ही ढक सका था। दूसरा धक्का लगा तो एक बहुत मोटी औरत से टकराया। ओ इतणी मोटी थी कि धक्के से हिल न सकी, उलटे मैं शड़क पर गिर पड़ा। हंगामा हो गया। डर कर भागा तो आढ़ती कौड़ीमल के यहां जाकर शरण ली। ‘इन शिमले वालों की हालत वैसे है खराब। न इनके घरों में लाल-टैन, न दीवे। बस मोमबत्तियां जलाकर गुजारा करते हैं।’ ‘अब देखना, शिमले को भी धाम देनी पड़ेगी। तब कहीं खुलेगा उसका बिजली-पाणी।’

समकालीन व्यंग्य की नई भूमिका में प्रदेश के व्यंग्यकार

अशोक गौतम

मो.-9418070089

हिमाचल में व्यंग्य की पृष्ठभूमि और संभावना-1

अतिथि संपादक :  अशोक गौतम

हिमाचल में व्यंग्य की पृष्ठभूमि तथा संभावनाएं क्या हैं, इन्हीं प्रश्नों के जवाब टटोलने की कोशिश हम प्रतिबिंब की इस नई सीरीज में करेंगे। हिमाचल में व्यंग्य का इतिहास उसकी समीक्षा के साथ पेश करने की कोशिश हमने की है। पेश है इस सीरीज की पहली किस्त…

विमर्श के बिंदू

* व्यंग्यकार की चुनौतियां

* कटाक्ष की समझ

* व्यंग्य में फूहड़ता

* कटाक्ष और कामेडी में अंतर

* कविता में हास्य रस

* क्या हिमाचल में हास्य कटाक्ष की जगह है

व्यंग्यकार गुस्सैल जरूर होता है, पर उसका स्वभाव बहुत समाजवादी होता है, पानी की तरह निर्मल होता है। इसी वजह के चलते वह अपने समय की चुनौतियों का मजे से अपनी कलम की नोक पर वहन कर लेता है। जब भी उसे कहीं ऐसा-वैसा दिख जाता है जो समाज के स्वास्थ्य के खिलाफ  हो तो वह बिन औरों का इंतजार किए पहाड़ सी विसंगति के सामने कलम लिए खड़ा हो जाता है। यही वजह है कि आज की तारीख में पाठकों में सबसे अधिक प्रिय साहित्यिक विधा व्यंग्य है। कोई लंबी-चौड़ी भूमिका नहीं। अपनी बात हंसते हुए की और किनारे हट गए, शेष सब पाठकों को सोचने के लिए छोड़ अपने-अपने वक्त के हिसाब से। दोहरी जिंदगी के पक्ष में न व्यंग्य होता है न व्यंग्यकार। बेहतर है कि जो बुरा हो हंसते हुए कह दिया जाए, बता दिया जाए। वह दिमाग में चुभे तो बेहतर। पर जो दिमाग में न भी चुभे तो मन में ही चुभ जाए तो भी चलेगा! जीवन और साहित्य में समकालीनता अपना विशेष महत्त्व रखती है। हर युग के साहित्य में समकालीनता मांग करती रही है कि उसमें अपने समय के तत्त्व हों, वह अपने समय की संगतियों, विसंगतियों को ईमानदारी से समेटे हो। ऐसे में साहित्य में समकालीन शब्द इतना तो चाहता ही है कि उसमें रचा जाने वाला साहित्य उस काल खंड के प्रति ईमानदार हो। ऐसे में अपने समय के प्रति ईमानदार रहना आने वालों के लिए सही मायने में साहित्यकार होना है। समकालीनता लेखन के संदर्भ में प्रयोग होने वाला परिचित शब्द है। समकालीनता अपने मूल अर्थ में अंग्रेजी के कंटेंपोरेनिटी के बराबर है, जिसका अर्थ है उसी समय में होने वाली घटना या प्रवृत्ति में जी रहे व्यक्ति। समकालीनता वर्तमान के विभिन्न जीवन संदर्भों की अभिव्यक्ति कही जा सकती है। समकालीनता से अभिप्राय एक समय से है। इसका प्रमुख आयाम है हमारे जीवन के हर पल बदलने वाले रूप और उनका पूरी ईमानदारी से प्रस्तुतीकरण। गौर से अगर देखा जाए तो हम सब अपने-अपने समय में जीते हैं। अपने-अपने समय को कलम के माध्यम से रचते हैं। अपने-अपने समय के बुरेपन से न बचते हुए भी बचने की कोशिश करते हैं, अपने समय के बीच ही मने, बेमने बसते हैं। ये हमारी विवशता है या समरसता, कुछ नहीं कहा जा सकता। जीवन का हर क्षण परिर्वतनशील है। यही जीवन की सबसे बड़ी विशेषता भी है। जीवन क्रम में निरंतर आने वाले  उतार-चढ़ावों पर ही समकालीनता की अवधारणा जन्म ले विकसित होती है। इसी समकालीनता के चलते जीवन और साहित्य के उद्देश्य बदलते रहे हैं। समकालीनता अपने समय के मूल्यों, संघर्षों, संगतियों, विसंगतियों का आकलन है। जब कोई साहित्यकार अपने बूते पर अपने सामर्थ्य, सामाजिक और लेखकीय संभावनाओं के द्वार खुले रख वर्तमान को अपनी कलम के माध्यम से बदलने में जुटता है तो सीधे सादे शब्दों में वह उस वक्त समकालीनता का निर्वाह कर रहा होता है, और कुछ नहीं। इतिहास गवाह है कि जीवन के मूल्यों के साथ साहित्य के मूल्य भी बदलते रहे हैं। इन्हीं के चलते साहित्य में भी बदलाव आता रहा है।

समय के साथ जीवन और साहित्य में बदलाव शाश्वत सत्य है। इसे कोई नहीं रोक सकता। न ये, न वे, न खुद समय ही। वर्तमान समय के आदमी को निरंतर बदल रही राजनीति, समाज और संस्कृति ने बेहद संघर्षपूर्ण बना दिया है या कि संघर्षों के बीच जीने को पूरी तरह से विवश कर दिया है। पर वह उनके आगे हथियार डालने के बाद भी मरा नहीं है, यही आदमी के आदमी होने का सबसे बड़ा प्रमाण है। उसके समाज की खंडित होती विरासतें पीछे छूटती जा रही हैं। पर वह आगे बढ़ना चाहता है। वैसे तो साहित्य की सभी विधाएं अपने-अपने ढंग से अपने-अपने समाज की संगतियों-विसंगतियों का चिट्ठा उसके सामने रखती रही हैं, पर व्यंग्य जिस शिद्दत से समाज के ढोल के पोल समाज के सामने खोलता है वह अद्वितीय है। व्यंग्य का अपनी बात कहने का ढंग ही निराला है। बाहर से वह बात भले ही निर्दयतापूर्ण सलीके से करे, पर भीतर से वह रहता दयालु ही है। प्रहार करते हुए भी उसमें तटस्थ बनने की जो शक्ति होती है, वही उसे दूसरी साहित्यिक विधाओं से बिलकुल अलग और महत्त्वपूर्ण कर देती है। मनुष्य हो या कोई भी साहित्यिक विधा। भले ही उसका, उनका एक कदम पिछले पर टिका हो, उसके बाद भी उसमें, उनमें स्वतंत्र होने की छटपटाहट होती ही है। स्वंत्रता की यही छटपटाहट नए को जन्म देती है। इसी क्रम में समकालीन व्यंग्य भी अपने समय को नए तेवर देता पिछले चरण के व्यंग्य से बहुत कुछ लेने के बाद भी उससे अलग होता जा रहा है। अपनी विरासत के बहुमूल्य तत्त्वों को सहेजता, ताक पर रखता समकालीन व्यंग्यकार अपने समय की दुर्बलताओं पर दमखम के साथ प्रहार करने में जुटा है। निर्विवादित है कि व्यंग्य की विसंगतियों पर मारक क्षमता अन्य साहित्यिक विधाओं के मुकाबले अधिक रही है। यही वजह है कि कल तक जो व्यंग्य कभी मात्र एक शैली हुआ करता था, वह अब अपने स्वतंत्र रूप में विकसित हो चुका है। अब वह केवल शैली मात्र नहीं, अपने आप में एक भरी पूरी साहित्यिक विधा है। कारण, उसने अपने समय की कुरूपताओं और दुर्बलताओं को बड़ी शिद्दत से समाज के सामने रखा है जो समाज उनसे मुंह फेरने में ही अपने होने को मानता रहा है। यही वजह है कि समकालीन व्यंग्यकार व्यंग्य को केवल हास-परिहास नहीं मानता, वह इससे आगे उसे समाज के आक्रोश में तबदील करता है।

आज का व्यंग्य अपने समय के वांछित, अवांछित दबाव से निर्मित मनुष्य और समाज का वह सृजनात्मक, वैचारिक आंदोलन है जो आक्रोश व समझ को एकसाथ जन्म देता है। इसलिए समकालीन व्यंग्य अपने समय के अध्ययन के साथ ही साथ समाज का विभिन्न कोणों से किया एक साहित्यिक अध्ययन भी है। आज के व्यंग्य की भूमिका पहले के व्यंग्य की अपेक्षा अधिक विस्तृत हो गई है या कि यों कहा जाए कि पहले से अधिक विस्तृत हो रही है। समकालीन व्यंग्य जीवन के यथार्थों से दो कदम आगे बढ़ता हुआ जीवन के कटु यथार्थों को बड़ी साफगोई से पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करता है। यही वजह है कि आज का व्यंग्य बहुआयामी होता जा रहा है। भावगत एवं शैलीगत तुलना करने पर ऐसे बिंदु सहज देखे जा सकते हैं जो आज के व्यंग्य को पिछले चरण के व्यंग्य से अपने को मजे से अलग कर लेते हैं। आज व्यंग्य की भूमिका इसलिए भी बदल गई है क्योंकि आज व्यंग्य मनुष्य की जिंदगी में जीवन जीने की विषम आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, मनोवैज्ञानिक स्थितियों-परिस्तिथियों, परंपरागत नैतिक रूढि़यों और एक समय में मान्य रही मान्यताओं पर आज अमान्य हो रही मान्यताओं के जुड़ने से जीवन में जन्म ले रहे  निराशा, संत्रास, अनिश्चितता, सबके बीच होते हुए भी बेगानेपन के साथ ही साथ हरपल बदलती महानगरीय, नगरीय, कस्बाई, ग्रामीण संस्कृति से मशरूम की तरह उपजती समस्याएं, भ्रष्ट राजनीतिक, सामाजिक व्यवस्था के प्रति तीव्र असंतोष, धर्म और ईश्वर की धारणा में आए व्यावहारिक बदलाव, निरंतर भ्रष्ट होती व्यवस्था पर रोष, जिसने पूरे समाज की चूलें हिला कर रख दी हैं, खंडित होते सामाजिक भाव-बोधों के साथ और भी बहुत कुछ को समकालीन व्यंग्य मुस्कुराते हुए अपने में बखूबी समेट रहा है। आज व्यंग्यकार के लिए व्यंग्य केवल हंसाने के लिए उपयोग किया जाने वाला छुनछुना नहीं, अपने समय के जीवन के बदले हुए यथार्थ को वाणी देने का सशक्त हथियार है। आज व्यंग्य का कर्त्तव्य बदल रहा है, दायित्व बदल रहा है, दिशा बदल रही है, दशा बदल रही है। आज का व्यंग्य गए कल के व्यंग्य के साथ अपने को रखते हुए भी हर स्तर पर उससे अलग होने का माद्दा रखता है, शिल्प और विचार दोनों ही स्तरों पर। वह जानता है कि परिवेश से गहरे से, मन से जुड़ कर ही अपने होने को सार्थक किया जा सकता है। अबका व्यंग्यकार पहले की अपेक्षा अपने चारों ओर जो जीवन की चीत्कार, दुत्कार, पाखंडी सत्कार देख रहा है, उसी को अपने व्यंग्य में पूरी संजीदगी, दमखम के साथ जी रहा है। इस संदर्भ में प्रदेश में पकी फसल के रूप में हिमेश, डा. ओमप्रकाश सारस्वत, गुरमीत बेदी, सुदर्शन वाशिष्ठ, गंगाराम राजी, डा. प्रत्यूष गुलेरी, कुल राजीव पंत, प्रभात कुमार, गुरूदत्त शर्मा, रत्नचंद रत्नेश, रोशन लाल पराशर, ब्रह्मानंद देवरानी, कृष्ण चंद्र महादेविया, डा. आर वासुदेव प्रशांत, विनोद भारद्वाज, अजय पाराशर, वंदना राणा और नई आमद में रत्नचंद निर्झर, अश्विनी कुमार, पवन चौहान, राजीव कुमार त्रिगर्ती, मृदुला श्रीवास्तव सरीखे और भी कई नाम व्यंग्य लेखन के समकालीन हस्ताक्षर अपने समय को ईमानदारी से जांचने, बांचने के लिए इन दिनों चर्चा में हैं।

इन्हीं में से प्रदेश के कुछ बोल्ड व्यंग्यकारों ने बोल्ड व्यंग्य लिखकर व्यंग्य की बदलती चुनौती की ओर संकेत भी किया है। आज  हर एक पहले के हर एक की अपेक्षा जिंदगी के विभिन्न मोर्चों पर अपने-अपने  अस्तित्व को बनाए, बचाए लिए कभी न खत्म होने वाली विरोधाभासी लड़ाई पहले से अधिक जुझारू हो लड़ रहा है, इस उम्मीद के साथ कि आने वाले कल उसकी जीत होगी। इसीलिए आज का व्यंग्य हर एक की विरोधाभासी लड़ाई में सहभागी बना है।  एक मुख्य बात और! आज का व्यंग्यकार राजनीति को चाहते हुए भी अपने व्यंग्य लेखन से इसलिए अलग नहीं कर पा रहा क्योंकि आज हर तरह के जीवन की राजनीति केंद्र होकर रह गई है। आज की राजनीति का हर वर्ग को गढ़ने में बहुत बड़ा हाथ है। यही वजह है कि चुनावों की धंधेबाजी, राजनीतिज्ञों द्वारा चुनाव में जनता का उल्लू बनाना, हवाई वादे करना, सत्ता में बने रहने के लिए ऐसा-ऐसा करना जो कि कल्पना से भी परे की बात हो, को यथार्थ के धरातल पर ला खड़ा करने को आज का व्यंग्यकार अपने व्यंग्यों में स्थान दे रहा है ताकि चालाकियों को समझा जा सके। आज का व्यंग्य हास्य से अधिक चिंतन का रूप ग्रहण कर रहा है। यह व्यंग्य के लिए शुभ है या अशुभ, अपनी-अपनी सोच है। व्यंग्य की नित खिलती भाषा, समृद्ध होते शिल्प विधान व्यंग्य को जीवन के इतने करीब लाया है कि व्यंग्य का अपना एक अलग संसार बस चुका है और हर कोई उस संसार का नागरिक होना चाह रहा है। कोई माने या नए पर यह निर्विवादित है कि  व्यंग्य ने आज की तारीख में भाषा की संप्रेषण क्षमता को अन्य साहित्यिक विधाओं की अपेक्षा अधिक गरिमा प्रदान की है तथा व्यंग्य शैलियों के नूतन प्रयोगों से उसने  व्यंग्य के प्रचलित ढांचे को बहुत कुछ तोड़ते हुए, जोड़ते हुए वह समाज में अपनी बदलती भूमिका निभाने को सहर्ष अपने साथ बहुत सी असरदार कलमें लिए तैयार हैं।  ऐसे में असरदार कलमों के बने रहने की जहां संभावनाएं प्रबल हैं वहां चुनौतियां भी कम नहीं। जब कोई विधा पाठकों के दिमाग में हलचल करने लगे तो ऐसे में पाठकों को अपनी विधा से कुछ उम्मीदें तो रहती ही हैं। तब उस विधा के कर्मी को समाज की हर विसंगति की नब्ज को बारीकी से टटोलना जरूरी हो जाता है। समाज सापेक्ष साहित्यकार ऐसा करता भी है। यही उसका धर्म भी होता है और कर्म भी। क्योंकि वक्त के बदलते दृश्य-परिदृश्य में अपनी बदलती भूमिका के लिए हरदम तैयार रहना, अपने और अपने समय के साथ न्याय करना होता है।

व्यंग्य है तो हम हैं

गंगा राम राजी

मो.-9418001224

जबसे मानव ने होश संभाला, तबसे हास्य का जन्म माना जा सकता है तो व्यंग्य समय के दुष्प्रभाव से उपजी विसंगतियों की देन कही जा सकती है। न समय के चलते समाज में विसंगतियों का जन्म होता, न व्यंग्य साहित्य में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाता। आज ज्यों ज्यों हमारे जीवन में विसंगतियों का दखल जितनी तेजी से बढ़ रहा है, व्यंग्य भी साहित्य में उतना ही मुखरित हो रहा है। हिंदी भाषा के साहित्य में ही नहीं, संसार की प्रत्येक भाषा के साहित्य में अपने-अपने समाज की विसंगतियों से लड़ने हेतु व्यंग्य एक  व्यावहारिक हथियार के रूप में प्रयोग किया जा रहा है। इस संदर्भ में दांते की लेटिन में लिखी डिवाइन कॉमेडी को मध्यकालीन व्यंग्य का महत्त्वपूर्ण कार्य माना जाता है जिसमें वर्तमान व्यवस्था का मजाक उड़ाया गया था। हमारे लोक साहित्य में भी आदिकाल से ही इस विधा को विशेष स्थान प्राप्त है। लोक साहित्य की लोक विधाओं में भी व्यंग्य जनमानस के मनोरंजन के साथ ही अपनी वर्तमान व्यवस्था के प्रति आक्रोश जताने  हेतु प्रस्तुत होता रहा है। समय चाहे मेरा हो चाहे उनका, विसंगतियां हर समय में रही हैं। और आज के इस यांत्रिक युग में तो जीवन पल-पल जटिल होता जा रहा है। यह जीवन चाहे सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक, शैक्षणिक हो या साहित्यिक। आज की तारीख में व्यंग्य समाज की विकृत स्थितियों का जितनी स्पष्टता से प्रकटीकरण करता है, उतनी साहित्य की अन्य विधाएं नहीं कर पा रहीं। इसलिए भी पाठकों के बीच व्यंग्य अधिक लोकप्रिय हो रहा है। कारण, आज के मनुष्य को जीवन की अनचाही विद्रूपताएं जीने नहीं दे रहीं। साहित्य के अतिरिक्त हमारा व्यावहारिक जीवन भी चाहे-अनचाहे कहीं न कहीं व्यंग्य का सहारा लिए रहा है। जहां एक ओर अकबर-वीरबल व्यंग्य विनोद से लेकर आज की लोकसभा का हिस्सा तक व्यंग्य बना है, वहीं दूसरी ओर व्यंग्य आज की व्यापारिक ऐड का भी जरूरी हिस्सा बन चुका है। इसके बिना न बाजार का गुजारा है न उपभोक्ताओं का। यही वजह है कि व्यंग्य को सभी देशों के मानवीय जीवन और साहित्य में एक तीखे औजार के रूप में जाना जा रहा है। अब तो कलात्मक साहित्य के अतिरिक्त राजनीतिक साहित्य में भी व्यंग्य मारक शक्ति बन कर आगे बढ़ रहा है। हिंदी साहित्य के आधुनिक व्यंग्य के जन्मदाता कहे जाने वाले हरिशंकर परसाई व्यंग्य को जीवन की आलोचना करने वाला मानते हुए इसे विसंगतियों, मिथ्याचारों और पाखंडों का पर्दाफाश करने वाला मानते हैं। जीवन के प्रति व्यंग्यकार की उतनी ही निष्ठा होती है, जितनी कि गंभीर रचनाकार की। इसमें केवल हंसना या रोना जैसी चीज नहीं होती। यही वजह है कि परसाई ने कभी हास्य की बैसाखी को स्वीकार नहीं किया। कुल मिलाकर कहा जाए तो जहां गद्य को कवियों की कसौटी माना जाता है तो वहीं व्यंग्य गद्य की कसौटी है। प्रदेश में आज की तारीख में राष्ट्रीय धारा से जुड़ कर व्यंग्य लिखा जा रहा है। हिमेश से शुरू हुई इस यात्रा में वाया अशोक गौतम की सड़क पर चलते अन्य प्रदेश के व्यंग्यकारों के साथ पवन चौहान ने सामाजिक विसंगतियों पर प्रहार करने की जो परंपरा आरंभ की है, वह यात्रा अबाध गति से आगे बढ़ रही है। वर्तमान में दिव्य हिमाचल, हिमप्रस्थ, गिरिराज, सोमसी, विपाशा जैसी प्रदेश की प्रमुख पत्रिकाएं व्यंग्य के विकास में प्रदेश के व्यंग्यकारों का उत्साह वर्धन करते अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं।

बाहर व भीतर का फैलाव

भारत भूषण ‘शून्य’

स्वतंत्र लेखक

बाहरी दुनिया की सभी क्रियाएं और घटनाएं हमारे भीतरी संसार का परावर्तन है। सच्चाई यह है कि बाहर और आंतरिक अलग-अलग नहीं। एक ही सिक्के के दो पहलू भर हैं जो कभी विलग हो नहीं सकते हैं। एक रूप के दो कोण या एक कोण की दो रेखाएं। मुश्किल यही है कि हमने संसार के भौतिक रूप को कुछ और जबकि भीतरी स्वरूप को कुछ और मान लेने को सच्चाई समझ रखा है। तथ्य यह है कि हमें जो बाहर दिखाई दे रहा है, वही भीतर का बाहरी फैलाव भी है। जो आंतरिक विचार प्रक्रिया की सूक्ष्मता है, वही बाहर का उद्गार भी है। शरीर के स्तर पर हम भौतिकी अवयव हैं और मानसिक स्तर पर भी विचार प्रक्रिया की भौतिकीय संरचना। इन दोनों को एक साथ देखने और समझने का ख्याल जिस दिन घटित हो गया, तब बुद्धिमता का सार्थक उदय होना भी तय हो गया समझो। दिक्कत यही है कि हमने तन को तकनीक पर आधारित जान रखा है और मन को किसी और दुनिया का अवतार। मन के धरातल पर तन का सिंहासन खड़ा है तो तन की नींव पर मन का हर आसन। हमारा मस्तिष्क किसी खास दुनिया से अवतरित नहीं हुआ। यह इसी शरीर का एक घटक है जो अपने विचारों से स्वयं को विलग कर कर्ता भाव की सृष्टि कर डालता है। यहीं से दुविधाओं का वह जाल आ पकड़ता है, जिसने हमारी सहज साधारणता को तहस-नहस कर डाला है। जीवन को किन्हीं खास घटकों में बांट और बांध देने से हम इसके सहज बहाव से वंचित हो जाते हैं। इसकी साधारण तरलता को विशेष आग्रहों के बर्तन में उंडेल देने की हमारी उच्छृंखलता को अतार्किक बल मिलना सुनिश्चित हो जाता है। यह स्थिति त्रासद भी होती है और विसंगति से भरी हुई भी। इस तथ्य को इसके खरे रूप जान लेना ही ‘बौद्ध’ होने की संभावना तक ले जाने का सरल ज्ञान-सा है शायद। हम इस ओर झांकने से जितना बचेंगे, उतना जीते जी मरेंगे। यही सच्चाई है। इसको पकड़ना या न छोड़ना हमारी बुद्धि का प्रसार है। हम कर लें तो ठीक, नहीं तो जी के जंजाल में फंसे रहें।


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