पर्यटन में नाबार्ड का स्पर्श

By: Oct 17th, 2019 12:06 am

हिमाचल में ग्रामीण पर्यटन की वकालत करते नाबार्ड के इरादे अब किसान-बागबान की आर्थिक क्षमता का विस्तार करना चाहते हैं। ऐसे प्रयोग राजस्थान-गुजरात में चल रहे हैं और देश के विभिन्न भागों में ग्रामीण पर्यटन अपनी क्षमता को रूपांतरित करने के लिए नाबार्ड को पार्टनर के रूप में देख रहा है। कमोबेश इसी भूमिका में सजे-धजे नाबार्ड के लिए हिमाचल के कबायली तथा भौगोलिक परिस्थितियों में अछूते रहे क्षेत्रों में पर्यटन आर्थिकी का संचार कारगर सिद्ध हो सकता है। ऐसा नहीं है कि हिमाचल में पर्यटन की बहारें किसी एक क्षेत्र या केवल प्रमुख स्थलों तक रुक गई हैं, लेकिन नाबार्ड की वित्तीय सहायता से नए अंकुर फूट सकते हैं। परिवेश की परंपराओं और ग्रामीण आर्थिकी के सीमित दायरे में अगर पर्यटन का रास्ता खुलता है, तो अनुभव की तलाश में जिस एडवेंचर, सादगी और लोक जीवन शैली को आज का सैलानी अंगीकार करना चाहता है, नए मुहावरों के साथ स्वागत करेगा। यह ग्रामीण गतिविधियों का संरक्षण सरीखा प्रयास होना चाहिए, लिहाजा प्रशिक्षण तथा नवाचार को अपनाने की मानसिक स्थिति को व्यापक परिधि से जोड़ने का श्रम भी करना होगा। उदाहरण के लिए ग्रामीण आर्थिकी के सामने विकल्प के रूप में प्रकट हुए मिनी और माइक्रो हाइडल परियोजनाओं ने सभ्यता-संस्कृति और मानवीय व्यवहार को जिस सीमा तक तहस-नहस किया है, वहां फिर से पर्यटन की महीन कताई असंभव दिखाई देती है। होली और भरमौर में स्थापित विद्युत परियोजनाओं ने मुआवजे की शक्ल में इनसानी फितरत को अपनी जमीन से नहीं, बल्कि पारंपरिक परिदृश्य से असंगत बना दिया। यह कहानी उस रोशनी में पढ़नी होगी जो आर्थिक प्रगति को भी बेसहारा कर देती है या अपना ही दोहन इस कद्र हो जाता है कि मंजिलें झुककर भी असहज रहती हैं। हिमाचल की पर्यटन उड़ान का बोझ उठाते प्रमुख स्थल आज अपना प्राकृतिक संतुलन खो चुके हैं या भीड़ बनते सैलानियों ने इन्हें लंबे ट्रैफिक जाम, गंदगी, अनैतिक गतिविधियों तथा मानवीय असुरक्षा से रौंद डाला है। ऐसे में ग्रामीण पर्यटन या नए पर्यटन की संभावनाओं को परखने के बजाय संरक्षण की जरूरत है। दुर्भाग्यवश हिमाचल में बढ़ती पर्यटक संख्या के बीच, भीड़ का दुष्प्रभाव देखा जा रहा है। आज चुनौती यह भी है कि हिमाचली गांव को इसके अपने अंदाज व खूबियों मे रहने दें, लेकिन प्रदेश की शहरी मानसिकता ने गांव की गली तक को प्रभावित किया और सबसे नकारात्मक पक्ष सामुदायिक व्यवहार को खंडित करता विकास रहा है। ऐसी कितनी चरागाहें मिल जाएंगी जहां पर्यटक को केवल प्रकृति के अविच्छिन्न अध्यायों से रू-ब-रू होने की आजादी मिल सकती है, लेकिन अतिक्रमण से सिकुड़ते परिदृश्य में गांव भी अपराधी हो चला है। ग्रामीण दस्तकारी या बुनकर समाज के बीच जिंदा रहने की कसक में शाल-मफलर या टोपी जैसे उत्पाद भी अगर पारवरलूम की गिरफ्त में अपना आधार खो रहे हैं, तो नाबार्ड परियोजनाओं के दायरे असीमित हो सकते हैं। हिमाचल की बेशकीमती धरोहर का ताल्लुक कई गांवों की वास्तुकला, मंदिर, बावडि़यां या इतिहास के पन्नों से है, लेकिन प्रगति के तीव्रगामी प्रभाव ने इन्हें समेटना शुरू कर दिया है। एग्रो टूरिज्म की दिशा में पालमपुर कृषि विश्वविद्यालय के कुछ प्रयास सराहनीय माने जाएंगे, लेकिन सांगला घाटी में मुख्यधारा का पर्यटन स्थल बनने की होड़ में अपना स्पर्श भूल गई। ऐसे कई ‘ फूड रूट’ स्थापित किए जा सकते हैं जहां पर्यटक हमारे ‘साझे चूल्हे’ से ठेठ पकवान की महक लेकर लौटेंगे। निजी तौर पर हिमाचल में ग्रामीण पर्यटन के विविध आयाम देखे जा सकते हैं, लेकिन सामुदायिक तौर पर इसे रेखांकित करने की जरूरत है। गांव या पंचायती क्षेत्र जब तक खुद को एक मॉडल के रूप में नहीं तराशेंगे, पर्यटन की खिड़की नहीं खुलेगी। उदाहरण के लिए अगर हम प्राकृतिक खेती, सिंचाई परियोजनाओं या कूहलों का संरक्षण ही करें, तो पर्यटक की पहंुच बढ़ जाएगी। उसकी रुचि तो अवाहदेवी जैसे इलाकों की पारंपरिक वास्तुकला, जलसंग्रहण पद्धति यानी खातरी तथा गोबर से दीवारों पर की गई चित्रकारी में भी हो सकती है, बशर्ते समुदाय अपने गौरव का पक्षधर बने। नाबार्ड के साथ-साथ कृषि-बागबानी विश्वविद्यालयों, विभागों तथा ग्रामीण विकास मंत्रालय को ग्रामीण पर्यटन का मानचित्र तैयार करते हुए कई तरह की वीथियां तथा विभागीय संग्रहालय स्थापित करते हुए प्रगति, समुदाय और संस्कृति के शो केस पेश करने होंगे।

 


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