भाषाई हेल्मेट जरूरी

By: Oct 7th, 2019 12:04 am

निर्मल असो

स्वतंत्र लेखक

देश में यातायात तथा हिंदी भाषा का प्रसार एक जैसी स्थिति में है, लिहाजा हर दुर्घटना का कोई न कोई नया बहाना है। उम्मीद के अनुसार केंद्र की एनडीए सरकार ने दोनों विषयों में भारतीयता और राष्ट्रीयता का परिचय दिया, लेकिन देश द्रोही न सड़क और न ही भाषा पर अनुशासित हैं। जिस तरह वाहन चालकों के होश ठिकाने लाने के लिए जुर्माने की नई दरें खौफनाक हुईं, उसी तरह अहिंदी भाषी को भी राष्ट्रभाषा सिखानी होगी। कम से कम जो लोग हिंदी की सीट पर बैठ कर भाषाई ज्ञान पेलते हैं या हिंदी की वसीहत में अपनी अध्यक्षता के पखवाड़े ढूंढते हैं, उन्हें दक्षिण तक भाषाई यातायात का संचालन करना होगा। देश की खातिर हर नागरिक का ऐसा टेस्ट हो कि पता चल जाए कि वह हिंदी भाषा की जुबान बोलता है, अन्यथा एक देश…….. का नारा कैसे लगेगा। खैर हिंदी की अध्यक्षता करने वालों की कमी नहीं और न ही आयोजनों की, कमी है तो एक अदद ऐसे राष्ट्रीय कानून की जो भारत की हर जुबान को हिंदी बना दे। कई बार लगता है कि हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने से पहले इसके सिर पर हेल्मेट क्यों नहीं रखा या दक्षिण में इसकी बात करने से पहले अमित शाह ने अपने सिर पर इसे क्यों नहीं रखा। भारत की राष्ट्रभाषा का असली संबोधन ही भाषाई हेल्मेट है, जिसकी जरूरत समझी नहीं गई। हेल्मेट के भीतर चेतना सुरक्षित रहती है, इसलिए यातायात में इसका व्यापार भी खूब चलता है। भाषा की दृष्टि से हिंदी के विद्वान भी वही माने गए जिनके सोच पर कोई न कोई हेल्मेट विराजमान है, बल्कि अंतर यही है। आप हिंदी के भाषाई विद्वानों को देखिए कि किस तरह अखाड़ों और नगाड़ों के बीच रहते हैं, इसलिए अपनी-अपनी सुरक्षा के कवच पहनते हैं। एक-दूसरे की पहचान व रुतबे के लिए यह जरूरी है कि सिर ढके भाषाई विज्ञानी को पहचाना जाए, वरना मंचों पर नंगे सिर पर टमाटर ही गिरेंगे। यकीन मानों आज की कविता और कवि की दौड़-भाग देखें तो लगता है किसी छोटी सी सड़क पर अचानक यातायात जाम हो गया या यूं ही मंचीय कविता चलती रही, तो भाषा की पटरी कहीं जोश-जोश में और उखड़ न जाए। परागपुर के एक व्यापारी के पास चलाने को है तो एक कार, मगर पुलिस ने हेल्मेट न पहनने का चालान करके उन्हें अदालत पहुंचा दिया। इसे कहते हैं भाषा का सीधा प्रयोग। यानी जिसे आंख देखे या न देखे, भाषाई तत्त्व उसे दिखा दें। हमें इस संसार को देखने के लिए कोई न कोई भाषा चाहिए ताकि लिखे को पढ़ें, कहे को सुनें। शाह भी यही कह रहे हैं, लेकिन समझने वाले उनकी भाषा नहीं समझ रहे। शायद शाह कवि नहीं-कथाकार नहीं हैं। व्यंग्यकार वह हो नहीं सकते और न ही व्यंग्य की औकात, कविता-कहानी की तरह है। दक्षिण को हिंदी सिखानी है तो अमित शाह आज के कवि बन जाएं या कहानी में कह दें। कवि जब मंच पर होता है तो जो खुद न समझे उसे भी समझाने की चेष्टा करता है। ठीक वैसे ही जैसे हिमाचल की संकरी सड़कों पर कोई वाहन बिना यातायात नियमों के दूसरे पर भारी पड़ जाता है। कवियों की दौड़ में कविता लिखने की न वजह और न कोई सीमा बची है, लिहाजा एक दूसरे को ओवर टेक करने की समीक्षा में लेखक अब कभी अपने यातायात में दो पहिया, चौपहिया या पंक्चर टायर की तरह घिसटता हुआ सरकारी मंच का विश्राम सरीखा है।


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