विष्णु पुराण

By: Oct 5th, 2019 12:18 am

वृसद्रथंतरदीनि सामन्यह्न क्षये रविम।

अंगमेषां त्रयी विष्णोऋय्यजु सामसंज्ञिता।।

विष्णु शक्तिरदोनि सदादित्ये करोति स।

न के पल रवेः शक्ति वैष्णवी सा त्रयीमयी।।

ब्रह्मथ पुरुषो रुद्रस्वयमेतत्वयीमयम।

सर्गादऋङमयीब्रह्मा स्थितौ विष्णु र्मजर्म।।

रुद्रःसामभयोऽत्नाय तस्मात्तत्स्यात्तस्थात्तस्याशुचिष्वानि।।

यह विष्णु शक्ति सूर्य में सदा निवास करती है। यह वैष्णवी शक्ति केवल सूर्य की ही अधिष्ठात्री नहीं है, किंतु ब्रह्मा,विष्णु और शिव वेदत्रयीमय है। सर्गारंभ में ब्रह्मा ऋक, मय स्थिति के समय विष्णु यजुर्मय और प्रलयेाल में रुद्र साममय रहते हैं। इसी कारण सामयाग की ध्वनि को सदोष माना गया है।

एवं सा सात्विको शक्तिवैष्णवी य त्रयोमयी।

आत्मासप्तगणस्थं तं भास्वंतमधितिष्ठित।।

तया चार्धिष्टितः सोऽपि जाज्वलोति स्वरशिमभिः।

तमः समस्तं जगतां नाश नयति चाखिलम।।

स्तुवंति चैनं मुनयो गंधर्वर्गीयते पुरः।

नृत्यंतोऽप्तरसी यांतिः तस्त चानु निशचराः।।

वहंति पन्नगा यक्षः क्रियतेऽभीषुसङग्रह।

बालखिल्यास्तयैवनं पपिवार्य समासते।।

नोदेता नास्तमेत्ता च कादचिच्छार्क्तिरूपधक।

विष्णुविष्णोः पृथक तस्य गणस्सप्तविघ्रोऽम्यम।।

स्तंभस्थपर्णस्येव योऽयमासन्नतां गतः।

छायादर्शनसंयोग स तं प्राप्नोत्यथात्मनः।।

एक सा वैष्णवी शक्तिर्नेवापैति ततो द्विज।

मासानुमासं भास्वंतमध्यासुत्ते तत्र संस्थितम।।

इस प्रकार वह त्रयमयी सात्विकी वैष्णवी शक्ति अपने सात गणों में स्थित सूर्य में ही शवस्थान करती है। उसमें  अधिष्ठित हुए सूर्य भी अपनी रशिमयों से और भी प्रखर होते हुए जग तक के अंधकार को मिटा देते हैं। ऐसे उन सूर्य मूर्ति स्तुति करते, गंधर्व यश कीर्तन करते, अप्सराएं नृत्य करती,राक्षस पीछे चलते, सूर्य रथ को सजाते,यक्ष घोड़ों की वागडोर पकड़ते और बालखिल्यादि उस रथ को सब ओर से घेरे हुए चलते हैं। उन त्रयमयी शक्ति वाले भगवान विष्णु का कभी उदयास्त नहीं होता और यह सात प्रकार के गण उनके अलग ही  हैं। जैसे स्तंभस्य दर्पण के पास जाने वाले को सदा उस की छाया दिखाई नहीं देती, वैसे ही विष्णु को यह शक्ति सूर्य के रथ में सदा रहती है तथा प्रत्येक मास में सूर्य के पृथक-पृथक रूप में स्थित होने पर यही शक्ति उनकी अधिष्ठात्री होती है।

पितृदेवमनुष्यादांस सदीप्यायन्प्रभुः।

परिवृतत्यहात्रकारणं सविता द्विज।।

सूर्यरशिमं सुषुम्ना यस्तर्पितस्तेन चंद्रमा।

कृष्णपक्षेऽमरं शश्वत्पोयते वं सुधामयः।।

पोत त द्विकल सोमं कृष्णपक्षक्षये द्विज।

हे द्विज दिन और रात्रि को उत्पन्न करने वाले सूर्य पित्तर देवता और मनुष्यादि को सदा तृप्त करते हुए भ्रमण करते हैं। सूर्य को सुषुम्ना नाम्नी किरण शुक्लपक्ष में चंद्रमा को पुष्ट करती है और कृष्ण पक्ष में देवगण उस असुतमय चंद्रमा की एक-एक कला को पीते रहते हैं।


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