अपेक्षा ही दुखों का कारण

By: Nov 30th, 2019 12:25 am

बाबा हरदेव

अपेक्षा जहां है वहीं दुःख की भी संभवना है और जहां अपेक्षा नहीं है, वहां विषाद का कोई खतरा नहीं है। अतः जिनसे मनुष्य को अपेक्षा है कि उसे प्रीति मिलेगी पत्थर नहीं,उनसे यदि फूल भी फेंका गया, तो घाव का एहसास होगा ही। घाव फूल के कारण नहीं लगता फूल बेचारा कैसे घाव लगा सकता है? घाव लगता मनुष्य की अपेक्षा से और जितनी बड़ी अपेक्षा होगी,घाव भी उतना ही गहरा मिलेगा। हां जिससे हमें कोई अपेक्षा ही नहीं है वह यदि पत्थर भी मारे, तो भी दुख नहीं देता,पीड़ा नहीं देता। महात्माओं का कथन है कि अपेक्षा छोड़ो और इससे सावधान रहो क्योंकि अपेक्षा ही दुखों की जनक है,यदि आशा रखी जाएगी, तो निराशा ही हाथ लगेगी और यदि अपेक्षा रहेगी, तो उपेक्षा हाथ लगेगी। जैसे कहा गया है।

कोई उम्मीद बर नहीं आती, कोई सूरत नजर नहीं आती।

मनुष्य सुख मांगेगा, तो दुख पाएगा इसलिए न सुख मांगा जाए और न अपेक्षा रखी जाए, न आशा बांधी जाए फिर फलस्वरूप जैसे ही आशा छूटी कि सब आशाएं पूरी हो गईं जैसे ही अपेक्षा गई सुखों की वर्षा होने लगी। अब मनुष्य जीत मांगे फिर इसे हारने का कोई भय नहीं रहता। मानो यदि मनुष्य जीतना ही नहीं चाहता, तो इसे कोई हरा कैसे सकता है, क्योंकि हराया उसको जा सकता है जो जीतना चाहे। इसी प्रकार उसे ही दुखी किया जा सकता है जो सुख मांगता है,उसी का ही अपमान किया जा सकता है जो सम्मान मांगता है,लेकिन जिसके लिए मान-अपमान में कोई अंतर ही नहीं रहा,जिसके लिए कांटे और फूल बराबर हो गए,जिसके लिए जिंदगी और मौत सम्मान हो गई,अब उसे कैसी पीड़ा फिर उसे कैसा दुख। बस यही क्षण है,यही घड़ी है जब व्यक्ति अतिक्रमण करता है संसार का। ऊपर वर्णित अवस्था को आध्यात्मिक जगत में बुद्धत्व कहते हैं तथा इसे ही निर्वाण अथवा मोक्ष के नाम से भी संबोधित किया जाता है और इसे ही मातृवत होना भी कहा गया है। अब मातृवत होना क्या है? विद्वानों का मत है कि मातृवत होने का अर्थ है कि मनुष्य की कोई चाह न हो क्योंकि चाह और वासना ही जीवन पर्याय हैं,जब तक मनुष्य कुछ न कुछ चाहता है, तब तक मनुष्य जीवित है। कहा भी गया है कि जब तक सास तब तक आस। आध्यात्मिक जगत में  जीवित और मृत व्यक्ति में यही अंतर नहीं है कि मृत कुछ मांगता नहीं है,इसकी कुछ चाहना नहीं होती और एक और अंतर है कि मृत जहां रहता है वहीं रहता है जबकि जीवित व्यक्ति भविष्य की यात्रा पर  निकल पड़ता है मानो व्यक्ति की अकांक्षा इसे भविष्य में दौड़ाती रहती है। अध्यात्म में श्वास चलने या न चलने से किसी के जीवित और मृत होने का संबंध नहीं है,बल्कि जिस व्यक्ति की वासना और वासना से उत्पन्न हुई चिंता और दुख व तृष्णा मिट गई हो, वह व्यक्ति मृतवत माना जाता है। उपनिषद का कथन है कि जीते जी मुर्दा हो जाओ फिर तुमको कोई बांधेगा नहीं, बंधे तुम इसलिए हो कि तुम जिंदा हो।


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