अयोध्या पर सियासत

By: Nov 12th, 2019 12:05 am

अयोध्या विवाद पर सर्वोच्च न्यायालय के सर्वसम्मत फैसले को एक दिन भी नहीं बीता और पुरानी सियासत की तलवारें खिंच गईं। हालांकि आम आदमी के स्तर पर पत्ता भी नहीं खड़का। अयोध्या में मुसलमान मंदिरों में गए और महंतों ने उन्हें लड्डू खिलाए। दिल्ली में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार  अजित डोभाल ने विभिन्न धर्मगुरुओं के साथ बैठक की। एकजुटता और सद्भाव की अपील देशभर में गई, लेकिन कांग्रेस के मुखपत्र ‘नेशनल हेराल्ड’ में एक लेख के जरिए संविधान पीठ के फैसले पर सवाल किए गए। हालांकि बाद में मुखपत्र को लिखित माफी मांगनी पड़ी। आश्चर्यजनक है कि मुखपत्र के कार्यकारी निदेशक आकार पटेल ने वह लेख लिखा था और संपादकीय विभाग ने कहा कि टिप्पणी से हमारा कोई संबंध नहीं। क्या एक अखबार में ऐसा संभव है कि कार्यकारी निदेशक के आलेख की जानकारी संपादकीय डेस्क को न हो और वह अपना पल्ला झाड़ ले? बहरहाल टिप्पणी में गंभीर आरोप लगाया गया कि भाजपा-विहिप जैसा चाहती थीं, सर्वोच्च अदालत ने वैसा ही फैसला दिया। क्या हमारी न्यायपालिका सत्ता और सियासत की इतनी मोहताज है कि उसके डिक्टेशन का पालन करे? यह शर्मनाक ही नहीं, संवैधानिक अवमानना भी है। उसमें एक पूरी सियासत का भाव भी अंतर्निहित है। यह संविधान पीठ का अपमान भी है। अच्छा होता, यदि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी देश से माफी मांगती। किसी भी पक्ष का फैसले से संतुष्ट या असंतुष्ट होना स्वाभाविक है, लेकिन अनुच्छेद 142 के तहत दिया गया यह फैसला हर पक्ष को मानना ही होगा। यह संवैधानिक बाध्यता भी है, लेकिन इस फैसले की मुशर्रफ  की तानाशाही के पाकिस्तान और वहां की अदालतों से तुलना करना बिल्कुल अपरिपक्वता है, पूर्वाग्रह भी है। दरअसल कुछ मुस्लिमवादी और इस्लामी नेताओं की सुई सर्वोच्च अदालत की इस टिप्पणी पर अटकी है, जिसमें 1992 में विवादित ढांचे को गिराने की घटना को कानून-व्यवस्था का उल्लंघन माना गया था और वे संघ-भाजपा परिवार से उसके लिए माफी की मांग कर रहे हैं। सियासत की शुरुआत इसी बिंदु से होती है। बेशक अयोध्या विवाद पर फैसला जरूर आया है, लेकिन उसकी आड़ में सियासत का सिलसिला नहीं थमेगा। बेशक राम मंदिर निर्माण आरएसएस के लिए बुनियादी सांस्कृतिक सरोकार रहा है। भाजपा ने 1989  में अपने पालमपुर अधिवेशन के दौरान प्रस्ताव पारित किया कि अयोध्या में भव्य राम मंदिर बनाने के लिए राष्ट्रव्यापी आंदोलन छेड़ा जाएगा। इसी के तहत लालकृष्ण आडवाणी ने रथयात्रा शुरू की और नरेंद्र मोदी उनके सारथी बने। इसका पहला चुनावी लाभ यह हुआ कि 1989 के लोकसभा चुनाव में भाजपा के 86 सांसद जीते, जबकि उससे पहले सदन में पार्टी के मात्र दो ही सांसद थे। उसके बाद भाजपा बढ़ती ही गई और 1996 के चुनाव में लोकसभा में सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभर कर आई। अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने, बेशक सरकार 13 दिन की ही रही। यह मुद्दा भाजपा के प्रत्येक चुनाव घोषणा-पत्र में स्थान पाता रहा, बेशक उसका चुनावी प्रभाव कम होता गया, लेकिन इसे आस्था से जोड़ कर प्रचारित किया गया। इसी की प्रतिक्रिया में एक ‘धर्मनिरपेक्ष राजनीति’ शुरू हुई, जो बुनियादी तौर पर मुस्लिमवादी थी। संघ और भाजपा को ‘सांप्रदायिक’ करार दे दिया गया। अब बेशक उस रूप में यह मुद्दा नहीं उछाला जाएगा, लेकिन भाजपा सर्वोच्च न्यायालय के फैसले का प्रचार जरूर करती रहेगी और हिंदू वोट बैंक उसके पक्ष में लामबंद होना स्वाभाविक है। चूंकि अब राम मंदिर बनने की प्रक्रिया शुरू होगी और कुछ सालों तक जारी रहेगी। इसी दौरान 2022 में उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव होने हैं और 2024 में लोकसभा चुनाव होंगे। जाहिर है कि भव्य राम मंदिर आकार ग्रहण कर रहा होगा, लिहाजा उसका प्रत्यक्ष चुनावी लाभ भाजपा को मिलना स्वाभाविक है। इसके समानांतर राम मंदिर विरोधी सियासत को लोग स्वीकार नहीं करेंगे, क्योंकि यह धार्मिक आस्था का भावुक विषय है। अभी यह साफ  नहीं है कि संघ परिवार काशी और मथुरा के मुद्दे उठाएगा या नहीं, लेकिन वे भी अयोध्या से कम संवेदनशील नहीं हैं। लिहाजा ऐसी व्याख्याएं गलत या राजनीतिक हैं कि संघ परिवार की रामवादी सियासत पर ढक्कन लग गया है। हालांकि समय के साथ-साथ बेरोजगारी, महंगाई, विकास के मुद्दे भी चर्चा में जरूर आएंगे।


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