आरसेप के लिए खुले रखें दरवाजे

By: Nov 11th, 2019 12:06 am

डा. जयंतीलाल भंडारी

विख्यात अर्थशास्त्री

आरसेप एक व्यापार समझौता है। इस व्यापार समझौते के तहत सदस्य देशों को एक-दूसरे के साथ व्यापार में सहूलियतें देनी होती हैं। सदस्य देशों को आयात और निर्यात पर लगने वाला टैक्स नहीं भरना पड़ता है या बहुत कम भरना पड़ता है। आरसेप में 10 आसियान देश वियतनाम, लाओस, म्यांमार, इंडोनेशिया, मलेशिया, फिलीपींस, सिंगापुर, थाईलैंड, ब्रूनेई और कंबोडिया शामिल हैं। अब भारत के अलावा चीन, जापान, साउथ कोरिया, आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड भी इसमें शामिल हैं…

यद्यपि पिछले दिनों चार नवंबर को भारत सरकार ने रीजनल कांप्रिहेंसिव इकोनॉमिक पार्टनरशिप ‘आरसेप’ में शामिल नहीं होने का जो फैसला किया है वह निश्चित रूप से भारत के आर्थिक और कारोबारी हित में है, लेकिन अब देश और दुनिया के अर्थविशेषज्ञों का मत है कि यदि आरसेप के अन्य देश भारत के द्वारा उठाए गए मसलों पर अनुकूलता दिखाएं तो आरसेप में प्रवेश के लिए भारत को अवश्य विचार करना चाहिए। गौरतलब है कि  भारत सरकार ने कहा कि आरसेप के तहत देश के आर्थिक तथा कारोबारी हितों के साथ कोई समझौता नहीं किया जा सकता है। सरकार ने कहा कि आरसेप समझौते के मौजूदा प्रारूप में आरसेप की मूल भावना तथा वे मार्गदर्शन सिद्धांत परिलक्षित नहीं हो रहे हैं जिन पर भारत ने सहमति दी थी। साथ ही आरसेप समझौते में भारत की चिंताओं का भी निदान नहीं किया गया है।

आरसेप समझौते पर हस्ताक्षर न करने का एक कारण यह भी है कि सात साल तक चली आरसेप वार्ता के दौरान वैश्विक आर्थिक और व्यापारिक परिदृश्य सहित कई चीजें बदल चुकी हैं तथा भारत इन बदलावों को नजरअंदाज नहीं कर सकता है। उल्लेखनीय है कि आरसेप एक व्यापार समझौता है। इस व्यापार समझौते के तहत सदस्य देशों को एक- दूसरे के साथ व्यापार में सहूलियतें देनी होती हैं। सदस्य देशों को आयात और निर्यात पर लगने वाला टैक्स नहीं भरना पड़ता है या बहुत कम भरना पड़ता है। आरसेप में 10 आसियान देश वियतनाम, लाओस, म्यांमार, इंडोनेशिया, मलेशिया, फिलीपींस, सिंगापुर, थाईलैंड, ब्रूनेई और कंबोडिया शामिल हैं। अब भारत के अलावा चीन, जापान, साउथ कोरिया, आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड भी इसमें शामिल हैं। उल्लेखनीय है कि वर्ष 2017 के दौरान आरसेप देशों में विश्व की कुल जनसंख्या की 47.6 प्रतिशत जनसंख्या रहती थी जो कि वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद में 31.6 प्रतिशत और वैश्विक व्यापार में 30.8 प्रतिशत योगदान रखती है।

आरसेप में भारत के अलावा शामिल बाकी 15 देशों ने शिखर बैठक में बातचीत खत्म करने के बाद समझौता करने का फैसला किया है। आरसेप के संयुक्त बयान में कहा गया कि  आरसेप में भाग लेने वाले 15 देशों ने सभी 20 भागों के लिए मसौदे पर आधारित बातचीत पूरी कर ली है तथा बाजार के इस्तेमाल से जुड़े सभी मुद्दों पर भी बात हो गई है। साथ ही 2020 में समझौते पर हस्ताक्षर से पहले की कानूनी समीक्षा भी हो गई। इस बारे में अब तक 28 दौर की वार्ता हो चुकी है। इसके अलावा कई मंत्री स्तरीय बैठकें और तकनीकी दौर की कई वार्ताएं भी हुई हैं। उल्लेखनीय है कि आरसेप समझौते पर बातचीत 2012 में शुरू हुई थी और अंतिम समझौते पर हस्ताक्षर 2020 में किए जाएंगे। इसमें कोई दोमत नहीं है कि भारत के आरसेप समझौते में शामिल होने से राष्ट्रीय हितों को भारी नुकसान पहुंचता। इस समझौते में भारत के हित से जुड़ी कई समस्याएं थीं और संवेदनशील वर्गों की आजीविका पर इसका गंभीर प्रभाव पड़ता। भारत ने आरसेप वार्ता में हिस्सा  लिया था और अपने हितों को ध्यान में रखते हुए सख्ती से अपनी बात भी रखी थी। भारत सरकार का कहना है कि वर्तमान परिस्थितियों में आरसेप समझौते का हिस्सा नहीं बनना सही फैसला है। पिछले काफी समय से घरेलू उद्योग और किसान इस समझौते का भारी विरोध कर रहे थे क्योंकि उन्हें चिंता थी कि इसके जरिए चीन भारतीय बाजार को अपने माल से पाट देगा।

समझौते में शामिल नहीं होने का फैसला कर सरकार ने घरेलू उद्योग और किसानों की चिंताएं दूर कर दी हैं। यह बात भी महत्त्वपूर्ण है कि भारत का कहना था कि इस समझौते में चीन की प्रधानता नहीं होनी चाहिए। भारत ने साफ  तौर पर कहा कि वैश्विक ताकतें उस पर दबाव नहीं डाल सकती। उद्योग जगत का कहना था कि आरसेप समझौते पर भारत के हस्ताक्षर कर देने के बाद आयात शुल्क कम करने या खत्म करने से विदेश से भारी मात्रा में सामान भारत आएगा और इससे देश के घरेलू उद्योगों को बहुत भारी नुकसान होगा। अमूल ने भी डेयरी उद्योग को लेकर चिंता जाहिर की थी। यद्यपि विगत चार नवंबर को बैंकॉक में आरसेप बातचीत खत्म होने के बाद जहां 15 देश समझौते के लिए तैयार हो गए हैं वहीं इन देशों ने आरसेप में प्रवेश के लिए भारत के दरवाजे भी खुले रखे हैं।

चूंकि भारत इस समझौते में इसलिए शामिल नहीं हुआ क्योंकि उसकी कई आपत्तियां थीं। पिछले वर्षों से करीब 70 मसलों पर समझौता रुका हुआ था और इनमें से 50 मसले भारत से संबंधित थे। सबसे बड़ा मसला चीन से आयात की सीमा तय करना और सीमा से अधिक आयात होने पर शुल्क बढ़ाने की प्रक्रिया निर्धारित करने से संबंधित था। भारत के इस प्रस्ताव का चीन ने प्रमुख रूप से विरोध किया। इस समझौता वार्ता के तहत भारत को उम्मीद थी कि सेवाओं में अधिक व्यापार से भारतीय आईटी, चिकित्साकर्मी तथा शिक्षकों को विदेश जाने में मदद मिलेगी, लेकिन आसियान देशों और आस्ट्रेलिया जैसे विकसित देशों ने उसमें अड़ंगा लगा दिया। चाहे आरसेप में भारत का प्रवेश हो या न हो यह जरूरी है कि भारत निर्यात बाजार के लिए नई तैयारी के साथ आगे बढ़े। औद्योगिक उत्पादों के संबंध में भारत को प्रतिस्पर्धा से नहीं डरना चाहिए। अभी भी हमारे कई विनिर्माण क्षेत्रों में भारी अक्षमता बनी हुई है और इन क्षेत्रों में अधिक प्रतिस्पर्धा होनी चाहिए।

यह बात भी समझनी होगी कि निर्यात में इजाफे के बिना आयात में कोई बड़ा इजाफा नहीं हो सकता, जब तक कि कोई हमें मुक्त आयात न करे। हम आशा करें कि सरकार चार नवंबर को आरसेप पर हस्ताक्षर से इनकार करने के बाद अब दक्षिण पूर्व एशिया एवं आसपास के अन्य बाजारों में निर्यात बढ़ाने की नई चुनौतियों और डब्ल्यूटीओ के निर्यात सबसिडी बंद किए जाने के नए आदेश के बाद अब नई निर्यात रणनीति की डगर पर आगे बढ़ेगी। इसके तहत उपयुक्त नए निर्यात प्रोत्साहनों के साथ-साथ निर्यातकों के लिए ढांचागत सुविधाओं पर भी ध्यान देगी। निर्यात क्षेत्र में वैश्विक मानकों को अपनाया जाएगा। निर्यात मंजूरी संबंधी कामों को डिजिटल किया जाएगा। वैश्विक बंदरगाहों पर जिस तरह जहाज आधे दिन और ट्रक आधे घंटे में हट जाते हैं वैसा ही लक्ष्य हमें भारतीय बंदरगाहों के लिए भी सुनिश्चित करना होगा।

हम आशा करें कि आरसेप समझौते पर हस्ताक्षर न करने के बाद भी भारत आसियान देशों के साथ नए सिरे से अपने कारोबार संबंधों को इस तरह विकसित करेगा कि इन देशों में भी भारत के निर्यात संतोषजनक स्तर पर दिखाई दे सकें।


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