गीता रहस्य

By: Nov 23rd, 2019 12:18 am

स्वामी रामस्वरूप

 हे अर्जुन ! जो साधक केवल एक निराकार, स्वयंभू परमेश्वर की वेदों में कही यज्ञ, नाम, स्मरण, योगाभ्यास आदि उपासना ही करता है और नित्य वेद मंत्रों से ईश्वर के स्वरूप का चिंतन करता है और इस परमेश्वर से अन्य किसी और परमेश्वर आदि की भक्ति नहीं करता तो उसका ‘योगक्षेम’ रूप कर्त्तव्य का भार स्वयं परमेश्वर ही वहन करता  है…

गतांक से आगे…

श्लोक 9/22 में श्रीकृष्ण महाराज अर्जुन से कह रहे हैं कि जो पुरुष मुझमें अन्य किसी का चिंतन न करके केवल मेरा  चिंतन करते हुए मेरी उपासना करते हैं, उन नित्य मुझसे जुड़े योगियों का योगक्षेम अर्थात नित्य मुझसे जुड़ी स्थिति एवं उस स्थिति की रक्षा को मैं स्वयं वहन करता हूं । चारों वेदों में केवल एक निराकार,सर्वव्यापक,सर्वशक्तिमान परमेश्वर की भक्ति का उपदेश है। अन्य किसी की भक्ति का उपदेश नहीं है, उसी एक परमेश्वर को यजुर्वेद मंत्र 2/26 में ‘स्वयंभूःअसि’ कहा है जिसका अर्थ है कि वह परमेश्वर जो अनादिरूप है। अनादि का अर्थ  है कि जो जन्म-मरण से परे है, उसके माता-पिता नहीं होते, वह अवतार कभी नहीं लेता अपितु परमेश्वर ही सबका माता-पिता है और सबका पालन-पोषण करता है। श्लोक 9/22 में श्रीकृष्ण महाराज ने ‘माम’ और ‘अहम’ पद परमेश्वर के लिए प्रयोग किए हैं जिसका रहस्य पिछले कई श्लोेकों में समझा दिया गया है। अतः श्रीकृष्ण महाराज का यहां यह भाव है कि हे  अर्जुन ! जो साधक केवल एक निराकार, स्वयंभू परमेश्वर की वेदों में कही यज्ञ, नाम, स्मरण, योगाभ्यास आदि उपासना ही करता है और नित्य वेद मंत्रों से ईश्वर के स्वरूप का चिंतन करता है और इस परमेश्वर से अन्य किसी और परमेश्वर आदि की भक्ति नहीं करता तो उसका ‘योगक्षेम’ रूप कर्त्तव्य का भार स्वयं परमेश्वर ही वहन करता  है।  यहां यह ध्यान रखें कि ईश्वर का कोई कर्त्तव्य नहीं है परंतु यजुर्वेद मंत्र 1/48 के अनुसार वह कर्मफल दाता है और जब श्लोक 9/22 में कही हुई वेदानुकूल भक्ति कोई भी करता है, तो ईश्वर उसका फल इस रूप में देता है कि साधक का योगक्षेम ईश्वर स्वयं कर देता है।                – क्रमशः


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